Monday, July 11, 2022

बस घर आने वाला है- रूह


एक बड़ा सा इतवार सारा दिन घर में डोलता रहा. मैं उससे आँखें चुराती रही. आलस खूबसूरत शय है. मैंने आलस का हाथ थाम रखा था और इतवार के मन में जितने मंसूबे थे उन सबको धराशाई करती रही. दिन भर बारिश होती रही और मैं सोने और जागने के बीच में झूलते हुए आसमान ताकती रही.

रूह पास में रखी रही...मैं उसे देखती रही. कभी पलट भी लेती लेकिन आगे के पन्नों पर बढ़ने से जाने कैसा संकोच था कि पढ़े हुए पन्नों को फिर से पढ़ने लगती. फिर उसे पलटकर रख देती और खिड़की के शीशे पर गिरती बारिश से बनती आकृतियों को देखने लगती.

आखिर शाम तक आलस में और मुझमें समझौता हो गया. मैंने उससे थोड़ी मोहलत मांगी उसने आसानी से दे भी दी. मैंने रूह उठा ली. वाइन पीने की इच्छा को चाय पीने की इच्छा के आगे देर तक रखे रहने दिया. और आखिर चाय पीने की इच्छा ने चाय का कप आगे बढ़ा दिया.

असल में मुझे नहीं पता था कि मैं किस यात्रा पर निकली हूँ या फिर शायद मुझे पता था. ख्वाज़ाबाग़ पहुँचने की मुझे कोई जल्दी नहीं थी. लेकिन आखिर तो पहुंचना ही था. और...मेरी शाम धुंधलाने लगी. यह बीती रात की बाबत है. बीती रात जब मैं पन्ना दर पन्ना सफर करते हुए रूह का हाथ थामे ख्वाजाबाग की उस गली, उस गेट को ढूंढ रही थी जो लेखक की स्मृति में था. पढ़ते हुए इस कदर इकसार हो चुकी हूँ कि मुझे यह मेरी ही कहानी लग रही है. और ख्वाजाबाग की उस कॉलोनी की उस गली के आखिरी घर के सामने मैं ही खड़ी हूँ.

कि मुझमें उस घर के भीतर जाने की हिम्मत नहीं हो रही. मैं किताब को पलटकर रख देती हूँ. एक अजीब सी हूक, एक बेचैनी घेर लेती है. आखिर फिर से किताब उठा लेती हूँ और फफक फफक कर रो पड़ती हूँ. रोती ही जाती हूँ.

ऊंचे फ्रेस के पेड़ों की कतारों को पहचनाते हुए पिता की गोद में बैठे हुए सुनना कि 'बस घर आने वाला है'.
रूह ने मेरा हाथ पूरे वक़्त कसकर पकड़ा हुआ था. रूह चाहती थी घर में मैं अकेले प्रवेश करूँ.
'बस यहीं रोक दो यही मेरा घर है...'
'हम जिस दरवाजे से सेब चुराने जाते थे हमें अब उस दरवाजे से भीतर जाना होगा.'
अपनी हिचकिचाहट में मैंने दरवाजे को धक्का दिया. कुछ देर की जद्हदोजेहद के बाद वह दरवाजा खुला इसके भीतर प्रवेश पूरी तरह अतीत में प्रवेश था,

सच कहूँ इन पन्नों से गुजरते हुए मैं हर पल बिखर रही थी. टूटी सिसकियाँ, अटकी हुई हिचकियाँ बरसती बूंदों के सुर में सुर मिला रही थीं. इनको कोई कैसे लिख सकता है. मैं कैसे लिख सकती हूँ ख्वाजाबाग के उस घर, उस बुखारी, उस बैठक, उस रसोई की बाबत कुछ भी.उस खिड़की के बारे में कैसे लिख सकती हूँ जिससे लेखक ने घंटों आसमान ताकना सीखा था. उस जगह के बारे में कोई भी कैसे कुछ लिख सकता है जहाँ बचपन में टाफियां छुपाई हों...मेरे बचपन की तमाम स्मृतियाँ ख्वाजबाग की स्मृतियों में घुलने लगीं. लेखक और मैं इकसार होने लगे थे. कि मेरी रुलाई की रफ्तार तेज़ होती जा रही थी.

बस फर्क इतना था कि लेखक अपनी बेचैनी के साथ घर से निकल गया और मैं वहीं छूटी रह गयी. वहीं दरवाजे से टिककर खड़ी रसोई में माया आंटी को खाना बनाते देख रही थी ठीक वैसे ही जैसे इंदौर में देखती हूँ उनके आश्रम में. मैं वहीं फर्श पर लेट जाना चाहती हूँ, बचपन में छुपाई सारी टॉफियां निकाल लेना चाहती हूँ, कुछ नयी टॉफियां छुपा देना चाहती हूँ कि फिर कोई लौटे बरसों बाद तो वो उदास न हो.

रूह ने कहा, 'कुछ देर और ठहर जाओ, पता नहीं फिर तुम कब यहाँ कभी आ भी पाओगे या नहीं.'
'मैं आऊँगा पर अभी मैं रुक नहीं सकता हूँ...'

लेखक अपनी उदास आँखें लेकर घर से जा चुका है जबकि मैं वहीं छूटी हुई हूँ. रात भर सपने में मैं उस घर में भटक रही थी. क्या वो मेरा ही घर था, क्या मैं रूह थी...मेरी रूह कहाँ है आखिर.मेरी आवारा रूह तो कहीं भी भटक जाती है, अटक जाती है. मैं देहरादून में हूँ और वो मेरे पास नहीं...

(अंतिम से पहले...)

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति