Sunday, July 24, 2022

और हम भटक चुके थे



जीवन में जितना उजला मिला वो हरे के पास मिला. कच्ची सी नींद में थी कि कोई सिरहाने एक उजली सी सुबह रख गया. हरे रंग में जगमगाती उजली सी सुबह. पलकों से ख़्वाब छलक रहे थे. हथेलियों में तितलियां लिख रही थीं प्रेम की इबारत. सर पर रौशनी का समन्दर था जो हरी कोंपलों के भीतर से चलते हुए हम पर छलक रहा था. एक गहरी ख़ामोशी थी चारों ओर. ज़िन्दगी की सरगम का पहला सुर एकदम ठीक से सध रहा था.

हम नहीं जानते थे हम कहाँ जा रहे थे, रास्ते का रुख किधर का है. सचमुच, न जानने का सुख बहुत होता है. एक लय थी हमारे साथ आगे बढ़ते कदमों में, एक अभिलाषा थी घने जंगलों में कहीं भटक जाने की. हम भटक जाने को बेताब थे. और हमने मुस्कुरा कर एक-दूसरे की आँखों में देखा. हम भटक चुके थे.

कुदरत की ऐसी मेहरबानियों के आगे सज़दे में कौन न झुक जाए. एक हरा हमारे भीतर उग रहा था, एक हरा हमारे आगे बिखरा हुआ था और एक टुकड़ा हरा मेरे बालों में आ टंका था.

पलकों से उतरकर ख़्वाब अब हमारी हथेलियों पर रखे थे, टुकुर-टुकुर देख रहे थे हमें. सुनहरी रौशनी की किरणों ने हमें आगोश में भर लिया. इतना उजला हरा कभी नहीं देखा था...हरे की उस रोशनी से ज़िन्दगी जगमग है. आँख क्यों न डबडबायेगी भला.

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