एक चिड़िया देर से कान के पास शोर कर रही है. यहाँ बहुत सी चिड़िया हैं लेकिन शोर एक ही कर रही है. वो शोर करते हुए क्या कह रही होगी, क्या वो उदास होगी, या गुस्से में? हो सकता हो वो अपनी माँ से किसी बात के लिए जिद कर रही हो...जो पंछी शोर नहीं कर रहे उनके मन में क्या चल रहा होगा?
जब मैं अपने घर में बैठकर सुबह की चाय पीते हुए पंछियों की आवाजें सुनती हूँ तो इस सोच में डूब जाती हूँ कि एक ही समय में, एक ही काल खंड में एक सी चीज़ों के अर्थ इतने अलग क्यों होते हैं भला? क्या पंछियों की आवाज फुटपाथ पर सोने वालों, मीलों, कोसों पैदल चलने वालों को भी राहत देती होगी? राहगीरों को लाइन में लगकर खाने के पैकेट लेते वक़्त कैसा लगता होगा? और तब कैसा लगता होगा जब घंटों लाइन में लगकर भी खाना नहीं मिलता होगा.
खाना बांटने वालों को कैसा लगता होगा. जितने दोस्तों को जानती हूँ जो मदद की मुहिम में लगे हैं वो सब भीतर से उदास हैं, बेहद उदास. एक रोज एक दोस्त की ठंडी आवाज को थामने की कोशिश की तो वह बिखर पड़ी. ‘देखा नहीं जाता इतना दुःख, सहा नहीं जाता. जब हम मौके पर होते हैं, पैकेट बना रहे होते हैं, जरूरी सामान जमा कर रहे होते हैं तब ऊर्जा होती है शरीर में लेकिन जब लौटते हैं वहां से गहन उदासी होती है. किसी से कुछ कहने को दिल नहीं करता. यह कैसा समय है. इसकी जिम्मेदारी सिर्फ कोरोना वायरस के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती.’ वो फूट-फूटकर रो पड़ती है.
कितनी तस्वीरें हैं आसपास जो सोने नहीं देतीं, कितने किस्से हैं जो सीने से चिपके हुए हैं. कभी जी चाहता है किसी के पाँव की चप्पल बन जाऊं, किसी बच्चे को गोद में ले लूं, किसी गर्भवती के पाँव दबा दूं किसी को रोक लूं बैलगाड़ी में बैल की जगह जुतने से. कहना सिर्फ कहना होता है जब तक वह करने में बदले. व्यक्ति की तमाम सीमायें हैं, जिन्दगी की तमाम सीमायें हैं और तब हम कुछ पैसा देकर उस कुछ न कर पाने की ग्लानि से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं. महसूस करते हैं कि थोड़े मानवीय तो हैं हम. ठीक भी है लेकिन क्या पर्याप्त है. यह ठीक लगना कब अहंकार में बदल जाता है पता नहीं चलता. इस पर नजर रखना जरूरी है.
मैंने अपने दोस्त से पूछा जब पैसे कम पड जाते हैं और कोई देने से मना कर देता है तो कैसा लगता है, उसने कहा कुछ नहीं लगता. हम दूसरे की तरफ बढ़ जाते हैं. हमारे पास किसने क्यों नहीं दिया, कोई क्यों इतना कठोर है, कोई इस समय में क्यों पकवान की तस्वीरें लगा रहा है, लाइव हो रहा है यह सब सोचने का समय ही नहीं, उनके प्रति आक्रोश तो एकदम नहीं. यह विकट समय है, इस समय भीतर के अवसाद को थामना है और बाहर के सैलाब को. मैं खुद मनुष्य होने की प्रक्रिया में हूँ और इस प्रक्रिया में दूसरों पर ऊँगली उठाना शामिल नहीं है. सबकी अपनी वजहें होंगी, सबके अपने तरीके होंगे. हमें बस कुछ गमछे चाहिए, कुछ चप्पलें. बहुत सारे लोगों को चप्पलों की जरूरत है...’ कहते कहते उसकी आँखे बह निकली थीं...आँखों के बहने को मैंने उसकी आवाज में सुना था.' फोन रखती हूँ अब, रोजा खुलने का वक्त हो रहा है.' कहकर उसने फोन रख दिया. यकीनन फोन के दोनों सिरे सिसकियों से भीगे थे.
मदद, करुणा, दया, परोपकार ये शब्द अपनी अस्मिता को पुनः तलाश रहे हैं. मदद के भीतर अहंकार उगने लगा है, 'मैंने इतने लोगों की मदद की तुमने कितनों की?' या 'आज मैंने इतने पैसे दिए, बड़ा अच्छा लग रहा है कि कुछ कर पाए.' यह जो अच्छा लगना है इसे कई बार पलटकर देखना होगा. बार-बार. सच में अगर मदद का भाव है तो वो रुलाएगा...बहुत रुलाएगा. 'करुणा...' वो तो हमारे भीतर के खर-पतवार को साफ करने वाला शब्द था न, कैसे वो बाहर की दुनिया में वाहवाही लूटने चल पड़ा. उसे रोकिये, उसे वापस भीतर की यात्रा पर भेजिए. दया, उपकार, कृतज्ञता उठाकर फेंक दीजिये इन शब्दों को. जीवन सबका हक है, सबको वह हक की तरह ही मिलना चाहिए उपकार की तरह नहीं.
मदद करने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित भी क्यों करना. जो लोग इस वक़्त में भी एक-दूसरे को जज कर रहे हैं उनसे मुझे कुछ नहीं कहना. जो लोग चुपचाप काम में लगे हैं, अपने आंसू पोंछते हुए दिन रात कहीं, राशन कहीं, चप्पल, कहीं कपड़े पहुंचा रहे हैं उनसे कहना है कि उनसे प्यार है.
आज ही सोनू बता रही थी कि जिनके घर में वो बर्तन मांजने का काम करती है उन आंटी ने गुरद्वारे में पैसे दिए हैं गरीबों के लिए राशन बांटा है लेकिन मुझे काम से निकाल दिया और पैसे भी नहीं दिए.
ऐसे भी चेहरे हैं मदद के संसार में. क्या वो चिड़िया उन आंटी के प्रति गुस्से से चिल्ला रही होगी. क्या वो अपनी माँ से कह रही होगी कि माँ मेरे हिस्से का दाना उस छोटे बच्चे को दे दो न.
कल पडोस का एक छोटा बच्चा अपने पापा से कह रहा था, पापा अब मैं मैगी नहीं खाऊँगा. आप मेरी गुल्लक के और मैगी के पैसे से उस बेबी को खाना दे दो न जो टीवी में रो रहा था...
1 comment:
वाकई दुखद स्थिति है।
लाकडाउन करने में यदि 4 घंटे का नहीं बल्कि 4 दिन का समय दिया होता तो यह हालत नहीं होती।
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