Friday, May 8, 2020

मौत मुंसिफ भी नहीं..न जिन्दगी ही


शहर चल पड़े हैं फिर से. फिर से सडकों पर लोग दिखने लगे हैं. फिर से सुबहों में हडबडी शामिल हो गयी है. कहीं पहुँचने की जल्दी, कहीं से लौटने का इंतजार. सब कुछ धीरे-धीरे पहले जैसा होने लगा है. लेकिन एक अज्ञात भी के साथ. एक अजीब सा डर है जो हर वक़्त साथ रहता है. गुलज़ार साब की लाइने याद आती हैं कि 'सब पे आती है सबकी बारी से, मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं, जिन्दगी सब पे क्यों नहीं आती...'

मौत सब पे आती है यकीनन, उसे आना ही है लेकिन वो मुंसिफ भी नहीं लगती. जिन्दगी तो पहले ही सब पे नहीं आती थी. मौत भी भूखे, गरीबों, मजदूरों, मुफलिसों पर आती है ज्यादा आसानी से. वो उन्हें चरों तरफ से घेरती है...वो बीमार होंगे तो बिना इलाज मरेंगे, बीमारी से बचेंगे तो भुखमरी से मरेंगे, नहीं तो पुलिस की लाठियों की मार से मरेंगे, कहीं कोई भीड़ हिन्दू मुस्लिम के नाम पर किसी नेता को लिंच नहीं करती, (करे ऐसा भाव नहीं है) अपने ही जैसे किसी साधारण से इन्सान को निशाना साधती है. गैस रिसाव, बनती हुई इमारते गिरना, पुल गिरना, ट्रेन एक्सीडेंट, स्कूल की छत गिर जाना और नहीं तो अस्पतालों में आक्सीजन सिलेंडर की कमी, इन्सेफ़लाइटिस और भी न जाने कितने रास्ते जानती है मौत एक खास वर्ग तक पहुँचने के. मौत मुंसिफ कहाँ हुई फिर...

पता नहीं क्या अगडम बगडम लिख रही हूँ. तुम ठीक ही समझ लोगे शायद. मन व्यथित है. उदास.

मन बदलने को फ़िल्में देख रही हूँ लेकिन वहां से भी उदासी लेकर ही लौटती हूँ. दोबारा से दृष्टि देखी. शेखर कपूर को देखने का लालच था. कितना खूबसूरत...जब क्रश शब्द के मायने भी नहीं पता थे तब से उसकी छवि मन में बसी है. 'उडान' सीरियल देखते हुए.

दृष्टि में भी क्या है सिवाय मेल ईगो के. शुरू में जिस व्यक्ति की समझ मोहती है बाद में पता चलता है वो समझ नहीं बनती हुई दूरी थी...बड़ा कठिन है रिश्तों को समझना. कि स्त्रियाँ हमेशा से धोखा खाने के बाद भी धोखा देने वाले के सामने निरीह सी खड़ी नजर आती हैं. ये सच था या बना दिया गया? पता नहीं...हंसी आ रही है...कुछ भी नहीं बदला इतने वर्षों में.
रिश्तों से बाहर जाना पुरुषों के लिए अब भी ज्यादा आसान है, स्त्री जाती है अगर तो लौट भी आती है ढेर सारी गिल्ट के साथ. अगर नहीं लौट पाती तो जीवन भर गिल्ट लिए फिरती है साथ में बोनस में मिले सामजिक तमगे भी...

स्त्रियाँ भी तो मजदूर ही हैं. उन पर भी जिन्दगी चारों तरफ से हमले करती है. एक हमला भीतर खाने ही है, खुद को समझने का और अपनों से ही तिरस्कृत होने का...
तो क्या हुआ कोरोना का डर भी अब जीवन में शामिल सा हो चला है. इतने डर तो पहले से थे, एक और सही. बस कि हर पल को जीभर को जीने का जी चाहता है. तुम मिलो तो ढेर सा रुका हुआ रोना फूटे और भीतर फूलों के खिलने की जगह बने. अमलताश और गुलमोहर मुस्कुराने लगे हैं...मन न जाने कब मुस्कुराएगा.

1 comment:

एक नई सोच said...

प्रतिभा जी, नमस्कार


खूब सही लिखा है आपने - सच ही तो है, आजकल लॉक डाउन डेज में यही सब चल रहा है। और धीरे धीरे सब अनलॉक हो रहा है पर फिर भी कहीं न कहीं डर, परेशानी, सोच विचार अभी अनलॉक नही हो रहा है। पर इस विश्वास के साथ कि सब पहले जैसा जल्द से जल्द होगा और जल्द से जल्द मन फिर मुस्कायेगा।

सधन्यवाद ....।

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