Sunday, May 17, 2020

कविता कारवां के बहाने कितने अफसाने

- शुभांकर शुक्ला 

कविता कारवां के इस खूबसूरत सफर के बारे में एक दिन लेखा जोखा कर रहा था तो पता चला कि देखते ही देखते कितनी सारी कविताओं की पूंजी जमा हो गयी पता ही नहीं चला। अब तो कभी कभी जब टीवी पर या आसपास किसी सामाजिक , राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दे पर लोगों को उलझते हुए देखता हूँ तो मन करता है कि उनको धीरे से पास बुलाऊँ और उनके कान में बोलूँ कि आप लोग बेकार की बहस में उलझे हो आपकी समस्या का निदान मैं अपनी पसंद की एक कविता से कर सकता हूँ ।

सच में ऐसा ही है । मैं मसखरी नहीं कर रहा। यहाँ ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं कविता कारवां के चार सालों के सफर में जिन जिन साथियों से मिला और उनकी पसंद की जिन जिन कविताओं को सुना उससे यह निष्कर्ष निकला कि आपकी हमारी बैचनियों को एक अदद कविता बहुत ही आसानी से शान्त कर सकती है। इसको अगर संक्षेप में कहूँ तो कुछ ऐसे कहा जायेगा-

आपकी बेचैनियों का ईलाज
एक अदद कविता
सत्ता की निरंकुशता का जवाब
एक अदद कविता
मजदूर की चुप्पी की आवाज
एक अदद कविता
प्रकृति की देयताओं का निसाब
एक अदद कविता
सभी पाखण्डों का जवाब
एक अदद कविता
आपके हजारों सवालों का जवाब
एक अदद कविता ।।

तो अगर कविता कारवां के चार साल के सफर में कविताओं के सम्बन्ध में मिले अनुभवों को अगर मैं समेटूंगा तो वो कुछ इसी तरह होगा। इसमें जब मैं देहरादून की पहली कविता कारवां की बैठक में पहुंचा तो मैंने गोपाल दास नीरज जी की कविता ‘‘छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने बालों कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है’’ सुना कर शुरूआत की थी । उसके बाद खटीमा की एक बैठक में मैने मुनीर नियाजी की कविता (शायरी) पढ़ी थी - ‘‘ हमेशा देर कर देता हूँ मैं , जरूरी बात कहनी हो , कोई वादा निभाना हो ’’। इसके बाद ये सिलसिला जारी रहा और मैंने निदा फाजली जी की कविता/शायरी ‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए’’ जैसी कविताओं का पाठ विभिन्न समयों में कविता कारवां की बैठक में किया।

इसी के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल जी की मेरी पसंदीदा कविता ‘‘हताशा से एक आदमी बैठ गया था, मैं व्यक्ति को नहीं जानता था, हताशा को जानता था। ’’ के बारे में भी कविता कारवां की एक बैठक के दौरान पता चला। महिलाओं को उनकी शक्ति का परिचय कराती मराठी भाषा की नागराज मंजुले की कविता ‘‘ तुम क्यों खिल नहीं जाती गुलमोहर की तरह धूप की साजिश के खिलाफ’’ को मैंने कविता कारवां की बैठकों में अपनी पसंदीदा कविता के तौर पर कविता कारवां की बैठक में अन्य साथियों के साथ पढ़ा। आज की जाति व्यवस्था पर मुखरता के साथ चोट करती अदम गोंडवी के कई कवितायें जैसे - ‘‘आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को , मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको ’’ मेरी पसंद की सूची में रही हैं। अदम गोंडवी से परिचय पहले से था लेकिन अदम इस कदर धारदार और आम जनमानस को समझ में आने वाली धार के साथ लिखते हैं, यह बात कविता कारवां में मिलने वाले साथियों से पता चली। क्योंकि कई बार ऐसा भी हुआ है जैसे हम किसी कवि को पढ कऱ जैसे ही एक राय बनाते हैं तभी कविता कारवां की बैठक में कोई साथी उसी कवि की अपनी पसंद की कविता लेकर आता था जिससे हमें उस कवि के एक नये पहलू के बारे में पता चलता था। इस तरह की राय मैंने ‘रामधारी सिंह दिनकर’ जी को पढ़कर बना ली थी। रामधारी सिंह दिनकर जी की कवितायें मैं बचपन से पढ़ता आ रहा था क्योंकि मेरे दादा जी के प्रिय कवि हैं रामधारी सिंह दिनकर । घर में रेणुका और रश्मिरथी पहले से मौजूद थी। स्कूल में बचपन से मैं रामधारी सिंह दिनकर जी की ओजपूर्ण कविताओं का पाठ करता आ रहा हूँ। ओजपूर्ण शैली मुझे बहुत लाउड लगती है लेकिन कविता कारवां की एक बैठक के दौरान एक कविता रामधारी सिंह दिनकर जी की हाथ लग गयी जो इस प्रकार है कि -‘‘ तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतालाके, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके’’ क्ष़ित्रय वही भरी हुई हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वहीं ब्राह्मण है , हो जिसमें तप त्याग ’’। इस पूरी कविता को जब आप पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि दिनकर ने पूरी जातीय,गोत्रीय खोखली अस्मिता की धज्जियां उड़ा दी हैं।

नागार्जुन की एक कविता जो मुझे बेहद पसंद है -‘‘ तीनों बंदर बापू के - गांधी के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के ’’ नागार्जुन ने ये कविता जिस सन्दर्भ में लिखी है वह बड़ा मजेदार है। इसको कविता कारवां की एक बैठक में नूतन गैराला जी ने सुनाई थी। नागार्जुन की दूसरी कविता जो मुझे पसंद वह है- ‘‘ बहुत दिनों के बाद’’ । इसी क्रम में परिचय हुआ मुक्तिबोध से ,जब खटीमा (उधमसिंहनगर) में साथी सिद्धेश्वर जी ने मुक्तिबोध की कविता ‘‘बेचैन चील’’ का पाठ किया । मुक्तिबोध की शैली मेरे लिए बिल्कुल अलग थी उसके बाद जब मैंने छान बीन शुरू की तो मुक्तिबोध की दूसरी कविता जो हाथ लगी वो थी-‘‘अंधेरे में’’ इस कविता के बारें में कहना चाहूंगा कि जैसे हम अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी पीते रहते हैं और एक दिन घनघोर प्यास के बीच आपको अचानक से कोई शिकंजी पकड़ा दे तो बिल्कुल मुक्तिबोध की इस (अंधेरे में) वाली कविता ने कुछ उसी तरह की संतुष्टि दिलायी थी । मुक्तिबोध को पढ़ने के दोैरान उनके जीवन के बारे में पढ़ने को मिला और उन्हीं को समझते समझते परिचय हुआ केदारनाथ सिंह से।

उसी दौरान किसी इंटरव्यू या लेख में मैंने पढ़ा कि मुक्तिबोध के साहित्य से दुनिया का परिचय कराने वाले केदारनाथ सिंह जी ही थे। जब भी मैं केदारनाथ के बारे में पढ़ता था उनके साथ एक बात जरूर जुड़ जाती थी वह बिम्ब से जुड़ी हुई बात थी। इसी बहाने यह भी पता चला कि केदारनाथ जी बिम्बों के इस्तेमाल करने में महारथी समझे जाते हैं। एक गैर साहित्यिक क्षेत्र से आने की वहज से मुझे साहित्य की बारीकियों की समझ नहीं है लेकिन केदारनाथ जी से परिचय के साथ ही अचानक से साहित्य के छात्र जैसी जिज्ञासा जगी जब यह पता चला कि केदारनाथ जी ने ‘‘बिम्ब विधान’’ नाम से एक किताब की भी रचना की है। इन सब चीजों पर अभी भी समझने का काम चल रहा है लेकिन अगर बारीकियों की समझ हो तो चीजें और गहराई से समझ में आती हैं। उनकी दो कवितायें जो मुझे पसंद हैं वो हैं-‘‘हाथ’’ दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए । और दूसरी है - ‘‘जाऊँगा कहाँ’’ ऐसा लगता है मानो एक कवि अपने चिरकालिकक अस्तित्व के सम्बन्ध में इशारा कर गया हो। केदारनाथ जी को पढ़ते पढ़ते एक दिन यों ही साथी सुभाष जी से किसी बैठक में कुँँवर नारायण जी के बारे में भी पता लगा। उनकी कवितायें जो मुझे पसंद है वह है जैसे -‘‘अबकी बार लौटा तो वृहत्तर लौटूँगा’’ इसको सुभाष जी ने एक कविता कारवां की बैठक में सुनाया था। दूसरी कविता थी उनकी ‘‘दुनिया में कितना कुछ था लड़ने झगड़ने को , पर ऐसा मन मिला कि जरा से प्यार में डूबा और जीवन बीत गया’’ तीसरी कविता थी ‘‘कविता वक्तव्य नहीं गवाह है’’ कुँवर नारायण की कविताओं में जो मासूमियत भरी ईमानदारी की एक झलक मिलती है वो बरबस ही आपको खींच लेगी।

और इसी के साथ एक बैठक में देहरादून के साथी रमन नौटियाल जी ने परिचय कराया अज्ञेय की कविता ‘‘सांप’’ से । अज्ञेय से भी मेरा परिचय एक उपन्यासकार के रूप में पहले से ही था लेकिन यह बहुत हास्यास्पद भी है कि मैं उस दौरान पहली बार जान पाया कि अज्ञेय कविता भी लिख चुके हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि क्योंकि अज्ञेय के उपन्यासों का मेरे उपर इतना जबरदस्त प्रभाव था कि मुझे दूसरी तरफ देखने का मौका ही नहीं मिला । कभी कोई साथी अगर अज्ञेय पर बात करने के लिए मिला तो यह संयोग ही था कि हमेशा अज्ञेय के उपन्यासों पर ही बात हुई । कभी अज्ञेय के उपन्यासों के सुरूर से मैं निकल ही नहीं पाया लेकिन जब मैंने लगभग तीन साल पहले अज्ञेय की पहली कविता कविता कारवां की बैठक में सुनी तो फिर खोजबीन का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें एक से एक बेहतरीन कविताओं से परिचय हुआ। अज्ञेय की कविताओं में जो कविता मुझे सबसे पसन्द है वह है - ‘‘ जो पुल बनायेंगे वो अनिवार्यतः पीछे रह जायेंगें ’’ दूसरी है ‘‘चीनी चाय पीते हुए’’ और इसके अलावा भी हैं लेकिन यहाँ जो कवितायें जुबान पर चढ़ी हुई है उनको मैं प्राथमिकता दे रहा हूँ ।

बीच में कविता कारवां की बैठकों मे हम लोगों ने यह तय किया था कि कुछ बैठकों में हम इन्हीं सब कविताओं के बीच से गुजरते हुए हर कविता कारवां की बैठक में एक थीम चुनेंगे और उस थीम को ध्यान में रखकर लोग अपनी पसंद की कवितायें चुनकर लायेंगे और फिर कावता कारवां की बैठक मे उसी थीम के इर्द गिर्द घूमती कविताओं का वाचन होगा। इसी दौरान ‘प्रतिरोध की कविता ’ की थीम का एक बार चयन हुआ जिसमें हमारी देहरादून की साथी प्रतिभा जी ने कुछ ऐसे कवियों की कविताओं से परिचय कराया जिन्होंने प्रतिरोध की शानदार कवितायें लिखी थीं जैसे गौहर रजा जी , राजेश जोशी जी उनमें से एक हैं। हमारे देश मे लिंचिंग आदि के बहाने हिंसा फैलाने एवं असहमतियों को दबाने की कोशिश की जा रही थी उस समय राजनीतिक हलकों में बैठे असंवेदनहीन लोंगो को आईना दिखाती गौहरा रजा की दो कवितायें बहुत पसंद हैं पहली है- ‘‘खामोशी’’- ‘‘लो मैंने कलम को धो डाला लो मेरी जुँबा पे ताला है’’ और दूसरी है - ’’धरम में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचायेगी , मसली कलियां , झुलसा गुलशन जर्द खिंजाँ दिखलायेगी’’ । तीसरे कवि हैं रघुवीर सहाय जिनकी कविता ‘‘दो अर्थों का भय’’ का वाचन अभी कविता कारवां के फेसबुक पेज से नरेश सक्सेना जी ने किया जिसके बारे में मुझे उसी दिन पता चला।

देहरादून की एक बैठक में प्रतिभा जी ने राजेश जोशी जी की कविता पढ़ी वह ऐसे है कि - ‘‘बर्बर सिर्फ बर्बर थे, उनके पास किसी धर्म की ध्वजा नहीं थी ,उनके पास भाषा का कोई छल नहीं था ’’यह कविता समकालीन राजनीतिक , सामाजिक सन्दर्भ में अपनी हर एक लाइन में इतने गहरे अर्थ लिए हुए कि जिसका कोई मुकाबला नहीं । दूसरी मेरी पसंद की कविता है जो राजेश जोशी जी ने लिखी है - ‘‘ जो सच सच बोलेंगे वो मारे जायेंगे’’ ।

इसी के साथ इन चार पाँच सालों में जैसे जैसे हमारे देश ,समाज और राजनीति में परिवर्तन होता रहा उसी हिसाब से हमारी जीवन शैली में, कविताओं के स्वाद में भी अलग अलग फ्लेवर का आनंद कविता कारवां के साथियों के साथ मैं लेता रहा। प्रतिरोध की कविता के खयालों के बीच पिछले चार-पाँच सालों में जेएनयू जैसे संस्थानों की खबरों में रूचि बढ़ने के साथ-साथ दो अन्य कवियों से परिचय हुआ जिसमें पहले थे रमाशंकर विद्राही और दूसरे थे गोरख पाण्डेय । जिसमें रमाशंकर विद्रोही की कविता ‘‘मैं किसान हूँ आसमान में धान बो रहा हूँ ’’ बेहद पसंद है। गोरखनाथ पाण्डे की एक कविता है -‘‘ तुम्हें डर है’’ । इसी सीरीज में जब कोरोना काल में हमने कविता कारवां के पेज से अपने देश के प्रतिष्ठित कवियों को लाइव कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया तो उसमें भी कई नई कतिताओं और लेखक के बारे में पता चला जिनमें से अभी तक बस कात्यायनी जी को पढ़ पाया हूँ । आगे कतार में कई नाम हैं इस दौर के नए कवियों की लिस्ट है। धीरे-धीरे सबको पढ़ा जायेगा। फिर किसी एक हिस्से में ‘प्रेम और कविता’ पर लिखा जायेगा। अभी जो नाम छूट जा रहें हैं उनमें शमशेर सिंह हैं जिनकी ‘‘टूटी हुई बिखरी हुई’’ मेरी पसंदीदा कविताओं में से है। कात्यायनी जी की एक कविता जो ’’स्त्रियों कीे दशा को बहुत व्यापकता के साथ चित्रित करती है वह है-‘‘रात के संतरी की कविता’’ इसको अभी कविता कारवां के पेज से लाइव के दौरान जब नरेश सक्सेना जी अपने पसंद के कवियों की कवितायें सुना रहे थे उस दौरान इस कविता का उन्होंने जिक्र किया। तो इस तरह अभी बहुत सारे कवियों को छोड़ना पड़ रहा है । अगली कड़ी में अन्य को जोड़ा जायेगा। 

अभी बहुत बात बाकी है। अभी बहुत कुछ दर्ज होना बाकी है।

(शुभांकर शुक्ला  कविता कारवां के सहयात्री हैं )

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर कवरेज।
खटीमा में तो चौपट है कविता कारवाँ।

Bhawna Kukreti said...

कविता कारवां का आईडिया तो मुझे भी बहुत यूनिक लगा,और ये शायद पहले भी लिखा है । पर इनकी लेखनी में जादू लगा,क्या प्रवाह वाह !!

Anuradha chauhan said...

बेहतरीन प्रस्तुति