Saturday, May 16, 2020

साझेदारी का सुख और मंगलेश डबराल


कविता कारवां पढ़े हुए को दूसरों से साझा करने, जाने हुए से ज्यादा जानने का आत्मीय प्रयोग था. कभी मध्धम कभी तेज़ कदमों से चलते हुए इस प्रयोग में साथी बढ़ते गए. हर बैठक के बाद मैंने महसूस किया कि थोड़ा और समृद्ध हुई हूँ, लगभग हर बैठक के बाद महसूस हुआ कि कितना कम जानती हूँ, कितना कम पढ़ा है. हर बार कुछ नयी कवितायेँ, नयी बातें, मुलाकातें और अपनापन झोली में आ गिरता.
आत्मीयता और सामूहिकता इस कार्यक्रम की बुनियाद रही जो बहुत मजबूत थी कि कैसे-कैसे मुकाम आये, आंधी तूफ़ान आये लेकिन आत्मीयता की मीठी नदी कल कल बहती रही, लोग जुड़ते रहे. हम सचमुच परिवार हो गये. हम एक-दूसरे से हक से मिलते हैं, लड़ते हैं झगड़ते हैं, जिम्मेदारियां उठाते हैं लेकिन साथ नहीं छोड़ते एक दूसरे का. यह व्यक्ति का नहीं समूह का कार्यक्रम बना और इसमें शामिल होते गये देश भर के लोग. कोई एक चेहरा, एक नाम है ही नहीं इस कार्यक्रम का, जो सबका था वो सबका ही होना था.

इस सफर में हमने जिन्दगी के हर रंग साथ में देखे हैं. दुःख के भीषण पलों में हमने एक-दूसरे का हाथ थामा और उम्मीद की कवितायेँ पढ़ीं. त्यौहार मनाये साथ, विपदाओं में साथ रहे, सुख दुःख बांटे, कविताओं की छाँव में जिन्दगी की धूप रख आये...राहत मिली, सुकून मिला. दोस्त मिले. नाराजगियां भी मिलीं जिन्हें भी हमने पलकों पर उठाया लेकिन रुके नहीं...चलते रहे.

यह अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं का ठीहा है, इसे हमने सादा, सरल बनाने की कोशिशें की. कोशिश की कि आमजन की भागीदारी हो यहाँ, प्रेम हो, साथ हो. ग्लैमर नहीं चाहिए था, शोहरत की दरकार नहीं थी, कोई होड़ नहीं थी, बस साथ का सुख था जिसे बचाए रखना था. सहेजते चलना था.

कोविड-19 के इस विषम समय में जब देह की दूरियां बढीं हम और करीब आये. अवसाद के इस समय का हमने हिम्मत की, उजास की, प्रेम की, प्रतिरोध की कविताओं का हाथ थामकर सामना किया. कर रहे हैं. इसी कारवां में कितनी आत्मीयता से कुछ लोग जुड़ते गए इन दिनों. उन्ही लोगों में से एक मंगलेश डबराल जी हैं.

आज मंगलेश जी का जन्मदिन है. मंगलेश जी ने जब अपनी पसंद की कवितायेँ पढ़ीं तो लोगों को लगा अरे, मंगलेश जी की कवितायें तो सुनी ही नहीं लेकिन उनकी इच्छा पूरी हुई जब अशोक वाजपेयी जी ने और नरेश सक्स्सेना जी ने उनकी कवितायें पढ़ीं. और मुझे मिला एक नायब तोहफा. कि मैंने अशोक जी द्वारा पढ़ी गयी मंगलेश जी की कविता को ढूंढना शुरू किया, वो कविता रात दिन मेरे संग हो ली.'जो हमें डराता है वो कहता है, डरने की कोई बात नहीं है...' कविता नहीं मिली तो मंगलेश जी को फोन कर लिया और उन्होंने बहुत सहज और आत्अमीय भाव से अपना नया कविता संग्रह ' स्मृति एक दूसरा समय है' मुझे भेज दिया. हमें इनसे ये सहजता और विनम्रता भी तो सीखनी है. सोचती हूँ कोई नया-नया प्करसिद्विध हुआ कहाँ बात करता है इतनी आत्मीयता और सहजता से. यह व्यवहार भी तो एक कविता ही है.

मंगलेश जी के इस संग्रह की एक-एक कविता को पढ़ते हुए महसूस होता है यही तो पढ़ना चाहती थी. बस यही. समय के सीने को चीरती हुई कवितायें. धधकती हुई कवितायें, झिन्झोडती कवितायें, मौजूदा समय की आँखों में आँखे डालकर देखती और जवाब मांगती कवितायें.

सेतु प्रकाशन से आया यह संग्रह हम सबको जरूर पढना चाहिए और जन्मदिन की बधाई देनी चाहिए प्रिय कवि मंगलेश जी को. शुक्रगुजार हूँ कविता कारवां की जिसने जिन्दगी को कुछ मानी दिए और इतने सारे प्यारे लोगों से मिलवाया, उनके स्नेह का हकदार बनाया.
जन्मदिन मुबारक मंगलेश जी...

2 comments:

Geeta Gairola said...

बहुत अच्छा लिखा है प्रतिभा।रचनात्मक बनी रही हमेशा।यही दुआ है

Onkar said...

बहुत सुन्दर