Sunday, May 3, 2020

ये मेरा घर ये मेरा घर...


आज सुबह में थोड़ा हल्कापन महसूस हो रहा है. थोड़ी ख़ुशी. आज मुझे 'अपने घर' में आये हुए एक बरस हो गया. पिछले बरस इन दिनों महसूस करना लगभग थमा हुआ था. पैर चक्करघिन्नी हो गये थे और दिमाग में जैसे एक साथ हजार हिसाब किताब चल रहे होते थे. मैं उन दिनों बहुत खुश नहीं थी. बस रोबोट की तरह काम करती जा रही थी. 'मेरा सपनों का घर' जैसा कोई सपना नहीं था मेरा. इसलिए घर मेरी ख्वाहिशों की फेहरिस्त में काफी नीचे ही था. जिन्दगी के उतार चढ़ाव और माँ-पापा की इच्छा कि 'तुम्हारे सर की छत सुरक्षित हो जाए' ने घर बनाने की ओर बढ़ा दिया.

घर में आने के बाद दोस्त पूछते कैसा महसूस कर रही हो तो मैं कहती कुछ महसूस नहीं हो रहा फिलहाल. महसूस होना हमेशा वक्त लेता है. पिछ्ले बरस की भागमभाग इस बरस का ठहराव बनी, महसूस करना बढ़ा. घर के मायने क्या थे मेरे लिए, पंछियों से बातें करने का ठीहा, बादलों को आते-जाते देखने की फुर्सत, एक कोना जहाँ संगीत सुना जा सके, एक कोना जहाँ पढ़ा जा सके, जहाँ देर तक जागा जा सके, सुबह की चाय पीते हुए अलसाया जा सके देर तक...बारिशों को हथेलियों पर लिया जा सके. जहाँ देह ही नहीं आत्मा भी बिंदास घूमती फिरे, कोई क्या कहेगा की फ़िक्र से परे. जहाँ दोस्तों की आमद हो, खिलखिलाहटें हो... ये कुछ ज्यादा फैंटेसी नहीं हो गयी?

जिस दुनिया में स्त्रियों को अपने लिए एक कोना न मिलता हो, अपनी मर्जी की सब्जी बनाना उनकी लिस्ट से गायब हो चुका हो और पति व बच्चों की पसंद ही उनकी पसंद में ढल चुकी हो, जहाँ कपडे वो मोहल्ले वालों के हिसाब से पहनती हों और सोना जागना, मुस्कुराना घरवालों के हिसाब से होता हो स्त्रियों के जीवन में और जहाँ लॉकडाउन में घर का अर्थ बढती हुई हिंसा के आंकड़ों में दर्ज हो वहां मेरी ख्वाहिशों के घर का सपना तो फैंटेसी ही हुआ.

मुझे लगता है चीज़ें उतनी मुश्किल होती नहीं जितनी लगती हैं. बस इतनी सी ही तो बात होती है कि खुद की ख्वाहिश को पहचानो और उसके लिए थोड़ा एसर्ट भी करो. लेकिन यह छोटी सी लगने वाली दो ही बाते बहुत बड़ी हैं असल में. स्त्रियों को खुद को महसूस करने, खुद के लिए वो सपने देखने जो प्रयोजित न हों, और अगर वो देख लें तो उसके लिए एसर्ट करने की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी जाती. सफ़ेद घोड़े पर आने वाला राजकुमार जाने किसने उनके सपनों में बो दिया कि हर लड़की वही सपने देखने लगी, पिया का घर प्यारा लगे के गीत गाते हुए झूमने लगी, सबकी इच्छाओं के लिए रसोई में पकवान बनाने में सुख महसूस करने लगी और फिल्मो और धारावाहिकों में परोसी जा रही स्त्री किरदारों में खुद को देखने लेगी.

मैं भी तो ऐसी ही थी न. मैंने भी तो सर पर पल्ला लेकर तुलसी चौरा की पूजा करने वाली करवाचौथ के व्रत रखने वाली और दूसरों की ख़ुशी के लिए दिन भर रसोई में खटने वाली भूमिका दिल से निभाई. उसी में जीवन का समस्त सुख महसूस करने की कोशिश की. बारिश तब भी थी, फूल तब भी तो खिलते होंगे, पंछी तब भी तो गुनगुनाते होंगे मुझे सुनाई क्यों नहीं देते थे.

ऐसा नहीं कि अब मैं दूसरों की ख़ुशी को महत्व नहीं देती लेकिन उसके कारण खुद को एक्सप्लॉइट करना अब बंद कर दिया है. बस इतना ही.

हमें खुद को एक्सप्लोर करना सिखाया नहीं जाता, लेकिन हमें सीखना चाहिए. उसकी कीमत चुकानी पड़े तो चुकानी चाहिए. अपनी जिन्दगी और अपनी ख्वाहिशों की ओर हाथ बढ़ाना सीखना ही होगा. ये घर उसी का हासिल है. मेरे लिए घर का अर्थ विशाल भव्य किसी आलीशान हवेली नहीं है बल्कि वो कोना है जो मेरा है...मेरा अपना कोना.

इस मेरे अपने में मैं ही हूँ, कोई घालमेल नहीं. और मुझमें मुझे उगाने की शुरुआत प्रेम ही तो है. खुद से प्यार करना सिखाया तुमने जबसे तबसे मैं बदलने लेगी. प्रेम लिजलिजा नहीं बनता, मजबूत बनाता है. सहमी, घबरायी, सबकी बात मानने वाली अच्छी लड़की से मुक्ति मिली मुझे. कितना सुख है इस आज़ादी का.

वो आज ही का दिन था जब घर में पुताई और लकड़ी आदि का काम खत्म हुआ था. मैं अपने घर की दीवारों को रंग देने वालों, इनमें खिड़कियाँ खोलने वालों के प्रेम में थी. काम खत्म हुआ तो मैंने उनसे कहा आप लोगों के साथ ही पार्टी करनी है मुझे. और तो किसी को बुलाना नहीं है आप लोग आइयेगा....मेरी आवाज में मेरे मन के भाव एकदम से छ्लक रहे थे. उन लोगों को यकीन नहीं हो रहा था मेरी बात पर. क्यों नहीं हो रहा था यकीन. यह घर उनका भी तो है न जिन्होंने इसे बनाया. हर ख़ुशी में कमरे के हर रंग में हर कोने में उनकी बसाहट है. मैं उन्हें याद करती हूँ.

रंगों से घर को सजाने वाले, गम्भीर मुझे समझने लगे थे, वो कहते आपको जंगल से प्यार है न आपकी बालकनी में जंगल वाला टेक्सचर करूंगा एक दिन, आपके कमरे में आसमानी रंग और चिड़िया होनी चाहिए...हरा कितना हरा, नीला कितना नीला...उसे पता था. क्या तुम्हें पता है मुझे कितना नीला चाहिए?

सरफराज, मुनीर, फैजल, आलिम और गम्भीर आज भी मेरी याद में हैं. अभी गंभीर से बात कर बताया उसे 'आज ही तुमने मेरा घर सजा संवारकर सौंपा था...याद है?' उसे याद तो न होगा कि यह उसका काम है, वो बहुत घर सजाता है, सौंप देता है. लेकिन मेरे फोन से वो भावुक हो गया....भावुक तो मैं भी हूँ वैसे.

उन सब दोस्तों को शिद्दत से याद कर रही हूँ जिन्होंने हमेशा हाथ थामे रखा...मुझे जिन्दा रखा और खुद के लिए सपने देखने की ओर धकेला... घर जीने की इच्छा का ही तो नाम है न?

8 comments:

Onkar said...

बहुत सुन्दर

Onkar said...

बहुत सुन्दर

Onkar said...

बहुत सुन्दर

कविता रावत said...

सच इस अपने में कितने अपनों का योगदान रहता है, सबको याद करना संवेदनशील और अहमियत समझने वाला इंसान ही हो सकता है
बहुत अच्छी दिल से निकली आवाज

ANHAD NAAD said...

वनलता सेन !
तुम पता नहीं
किस हाट बाज़ार में थीं
पता नहीं किसने तुमसे कहा था
लाल आंचल का
परचम बना लेने को
पता नहीं कहां तुम
अग्नि के काष्ठ
बिनती रहीं ....

आलोक श्रीवास्तव

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक प्रस्तुति।

Meena sharma said...

ऐसा नहीं कि अब मैं दूसरों की ख़ुशी को महत्व नहीं देती लेकिन उसके कारण खुद को एक्सप्लॉइट करना अब बंद कर दिया है. बस इतना ही...
ये याद रहेगा।

एक नई सोच said...

ये कहाँ कोई सोचता है कि घर बनाने और सजाने वाले का क्या योगदान है।

बहुत ही सार्थक प्रस्तुति .....।

🙏🏻💐💐🙏🏻