25.8.१९७६
मेरी प्रिय,
....बाहर बारिश हो रही है। एक शदीद बारिश. पूरा कस्बा अंधेरे में डूबा हुआ है-सिर्फ यही जगह रोशनी से भरी है, ऐसे जैसे सारे शहर की रोशनी ने भागकर यहां शरण पा ली है. शायद यह जगह रोशनी ही नहीं मेरे लिए भी एक टापू की तरह है, जहां मैं सृष्टि के डूबने के बाद रह जाने वाले, शेष चिन्हों की तरह हूं. कभी-कभी मैं कल्पना करता हूं, ईश्वर के उस भयावह अकेलेपन की, जब सारी सृष्टि डूब जाती होगी और वह वट के पत्ते पर अकेला बचा रहता होगा. वह जरूरत पर किसे पुकारता होगा, प्रलय शून्य सन्नाटे में? उसकी पुकार, ढूंढकर उसी के पास उदास होकर लौट आती होगी. वह अपने ही कानों से सटी उस पुकार के बारे में क्या सोचता होगा? मुझे लगता है यदि मैं उस पत्ते पर अकेला रह जाता, एट द एंड ऑफ यूनिवर्स तो मैं उस पत्ते पर से तुमको पुकारता. ऐसा मैं इसलिए सोचता हूं कि जाने क्यों मेरे शब्दों पर मंडराती है, तुम्हारे हाने और कहीं भी होने की छाया. कभी-कभी वह छाया बहुत निकट जान पड़ती है. मेरे लिखे हुए शब्दों से तब उनकी ध्वनियां जैसे बाहर बिखरती-उफनती लगने लगती हैं. जैसे, तुम्हारा नाम लिखा तो उसमें से उसके साथ अर्थ की आभा बाहर बिखर रही है. लगता है तुम्हारा नाम लिखने का अर्थ पूरे कागज पर रोशनी का फैल जाना हो. और, इस नितांत ठोस अंधेरे में डूबे कस्बे में, छोटी सी रोशन जगह का होना, जैसे तुम्हारा नाम लिख देने से ही संभव हो गया हो. वहां दूर अंधेरे में डूबे कस्बे और उसके लोगों को कहां पता होगा कि यह जो इस वक्त रोशनी का टापू टिमक रहा है, वह क्यों है? कस्बा नहीं जानता कि मैंने बस अभी तुम्हारा नाम लिखा है.बाहर अंधेरा गहरा ठोस सा है और इस जगह से बाहर बहती हवा ऐसी लग रही है, जैसे वह काली और ऊंची दीवारों को ठकठकाती हुई दरवाजा टटोल रही हो, ताकि वह अंधेरे के घेरे से बाहर हो जो. पता नहीं कि ऐसे अंधेरे-डूबे आकाश में कोई आपातकालीन द्वार हो. पर, इन दिनों तो सारा देश जैसे आपातकाल का द्वार बना हुआ है. लोग आपातकाल का स्वागत कर रहे हैं. क्या आपातकाल एक संभावना है?बहरहाल, मैं भी इस अंधेरे से बाहर निकलने के लिए किसी आपातकालीन दरवाजे की तलाश में हूं, पर यह अंधेरा मेरे भीतर का है और तुम्हें खत लिखने की घड़ी आपातकालीन दरवाजे के, बरामद हो जाने की घड़ी जान पड़ती है. कभी-कभी तो मुझे तुम उस उपकरण की तरह लगती हो जिसे डॉक्टर्स गले में लटकाये रहते हैं. मुझे लगता है, मैं उनकी तरह तुम्हारे स्पंदन को पकड़ता रहता हूं, मसलन तुमको कानों के निकट लाकर सुनता हूं. बारिश की आवाज भी, कभी-कभी डॉक्टर्स अपने गले में लटके उस उपकरण को अपने कानों में लगाकर सुनते होंगे, अपनी ही धड़कन को. तुम तक खत के जरिये बार-बार लौटना ऐसा लगता है, जैसे हर बार कोई नया अविष्कार कर लिया हो. यह अविष्कार करने की निरंतरता ही मुझे यहां इतनी दूर जीवित बनाये रखती है. मुझे याद आती है, साइबेरिया से बार-बार भरतपुर के पोखर में उनका ऐसा क्या छूट जाता है, हर बार जिसे वे ढूंढने आते हैं-ढूंढने आते हैं या कि उस छूटे हुए को भर आंख देखने.यकीन रखो एक दिन मैं भी आऊंगा, तुम तक. यही देखने कि ऐसा क्या छूट गया था मेरा तुम्हारे पास, प्रलय से पहले. जब यह मैं लिख रहा हूं तो लगता है, तुम चुप हो. तुम्हारा मौन और-और तराश देता है मेरे उन शब्दों को, जो अभी बोले और लिखे ही नहीं गये हैं. तुम्हारे मौन की धार में तराशी भाषा को लेकर एक दिन तुम्हारे पास आकर रखूंगा और पूछूंगा, लैंगवेज का एस्थेटिक देखना चाहोगी? दरअसल, सच तो यह है कि फिलहाल तुम तक मैं सिर्फ भाषा में ही पहुंचना चाहता हूं। कभी सोचता हूं कि यदि सचमुच में ही पहुंच जाऊंगा तो भाषा का क्या होगा? एक अनुपयोगी पुल की तरह ढह जायेगी। भाषा के पुल के टूटे मलबे के दोनों छोरों पर हम होंगे। तुम्हारे कान तो नहीं सुन पायेंगे, उस पुल के ढहने की आवाज। पर मैं अपने गले में लिपटे उपकरण से जरूर सुन लूंगा, वह धड़ाम की आवाज। वक्त के तेजरफ्त बहाव में बह जायेगा पुल-और मैं वहां से लौट आऊंगा, अपने उसी सन्नाटे में। मैं तुमसे पूछ भी नहीं सकूंगा कि भाषा के मलबे को लांघकर आ सकोगी इस पार। फिर चलने से पहले पूछूंगा एक सवाल कि पुल क्यों बनते हैं और पुल क्यों ढहते हैं? फिर उदास हो जाऊंगा कि एक प्रश्न अपने असंख्य उत्तर रखता है-और कभी-कभी तो उससे एक भी उत्तर नहीं आता। और कभी-कभी आते हैं अनगिनत उत्तर।
बाकी फिर....
पुनश्च:- रात को खत लिखने के बाद, कल से लौटकर सोया और नींद में रातभर बिस्तर में लोट लगाते हुए। एक परिंदे की तरह पंख लगाकर तुम्हारे शहर पर मंडराता रहा उसकी गलियों और कूचों में मैं भागता रहा. कहां ढूंढता तुम्हें भाषा के घर में. आज भी बारिश हो रही है और हवा ऐसी बह रही है, जैसे शहर में रास्ता भटक गयी हो. मैं भी भाषा में भटककर वहां पहुंच गया, जहां मैं पहुंचूंगा भी कि नहीं.
प्रेम तो नसीब है....जारी....
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