लिखना क्या कागज पर शब्दों का उतरना भर होता है? दुनिया के तमाम लेखकों के अनुभव कहते हैं कि लिखने के लिए हमेशा लिखना जरूरी नहीं होता। नोबेल प्राइज विनर मार्खेज की कलम के रुकने के बाद, उनकी जिंदगी के कई और शानदार अर्थ खुलते हैं.
गैब्रिएल गर्सिया मार्खेज को पढ़ा है? उन्हें नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा? व्हॉट अ पावरफुल राइटिंग....यह कनवर्सेशन किन्हीं दो लोगों के बीच का था. जिन लोगों के बीच की यह बातचीत है, उनमें से किसी का भी न नाम याद है, न चेहरा. लेकिन बचपन की यादों में यह कनवर्सेशन भी कहीं दर्ज हो गया. क्यों न होता आखिर मार्खेज नाम की दुनिया का रास्ता उन्हीं संवादों से खुला था. जब भी स्पेनिश लेखक मार्खेज को पढ़ती हूं वे संवाद जरूर याद आते हैं. आज फिर याद आ रहे हैं, वे संवाद भी और मार्खेज भी. यह खबर जब आंखों के सामने से गुजरी कि 82 वर्षीय मार्खेज ने कलम रख दी है यानी उन्होंने लिखने से संन्यास ले लिया है तो यकीन नहीं हुआ. फिल्मों से, क्रिकेट से, राजनीति से संन्यास लेते हुए तो लोगों को देखा था, सुना था लेकिन लेखन से सन्यास? वो भी मार्खेज का संन्यास. पता नहीं इस खबर को लेकर कितने लोगों ने रिएक्ट किया होगा, कितनों ने इस खबर से पहली बार मार्खेज का नाम सुना होगा और कितनों ने बेहद तकलीफ का अनुभव किया होगा. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके मार्खेज का आखिरी उपन्यास पांच साल पहले आया था. उपन्यास का नाम था मेमोरीज ऑफ माई मेलनकोली होर्स. उनके न लिखने की घोषणा के साथ ही यह उनका आखिरी उपन्यास हो गया है. युवा पत्रकार, क्रिएटिव राइटिंग का कोर्स कर रहे स्टूडेंट्स और लिखने की लालसा रखने वाले नए लोगों को लिखने की जद्दोजेहद में उलझे बगैर लिखने को लेकर परफेक्शन का बोध देखकर मार्खेज के ये शब्द याद आते हैं, 'लिखना सुख की अनुभूति तो है ही लिखना लंबी, घनी यातना से गुजरना भी है. आज कितने लोग लिखने की यातना से गुजरते हैं या गुजर पाते हैं यह एक दूसरा ही सवाल है. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कभी-कभी पूरे दिन में एक पैरा भी लिख जाए तो बहुत बड़ी बात है. उनका लेखन को लेकर संन्यास लेना, उनके इस कहे को सही साबित करता है कि लिखना लिखने के लिए नहीं होना चाहिए. उनका लेखन बंद करना इस इरादे से भी है कि कहीं उनके लेखन में दोहराव न आने लगे. इसके पहले मुझे तो किसी लेखक का नाम याद नहीं आता जिसने ऐसा कुछ कहा हो कि उसने न लिखने का फैसला किया है. आमतौर पर ये फैसले समय ने ही किये हैं. कभी लंबी बीमारी के चलते, कभी किन्हीं और कारणों से लोगों का लेखन छूट जरूर गया लेकिन छोड़ा किसी ने नहीं. समझ में नहीं आ रहा है कि इस खबर को अच्छी खबर माना जाए या बुरी खबर. बुरी इस लिहाज से कि अब उनकी कोई भी नई रचना पढऩे को नहीं मिलेगी. उनके लेखन से पूरे विश्व के साहित्य ने ऊर्जा ली है, दिशा ली है. ऐसे में एक दिशाहीनता की स्थिति आने की संभावना है. लेकिन इस खबर का सुखद पहलू यह है कि जीवन भर अपने लेखन के प्रति ईमानदार रहने वाले मार्खेज ने जीते जी इस ईमानदारी को निभाया. उन्होंने कलम के मोह से मुक्ति ली. यूं भी मार्खेज के ही शब्दों में अगर उन्हें सुना जाए तो अब वे अपनी कलम से शब्दों को भले ही न रचें लेकिन उनका जीवन, उनकी अभिव्यक्तियों में हम उन्हें पढ़ते रहेंगे. मार्खेज को पढऩा आज के दौर की बड़ी जरूरत है, बस हम इस जरूरत को कितना समझ पाते हैं यही देखना है. जर्नलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले मार्खेज का पूरा जीवन प्रेरणा है। युवा पीढ़ी के दिमाग में चलने वाली उलझनों को जिस शाइस्तगी से उन्होंने तरतीब दी वह एक मिसाल है। उनकी किताबों की लिस्ट लंबी है, उनके कामों की लिस्ट भी लंबी है और हम दुआ करते हैं कि उनकी उम्र भी लंबी हो। ताकि हम उन्हें लिखते हुए भले ही न पढें़ उन्हें देखते हुए पढ़ते रहें। यूं भी लिखना सिर्फ शब्दों का कागजों पर बैठना भर तो नहीं होता।
गैब्रिएल गर्सिया मार्खेज को पढ़ा है? उन्हें नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा? व्हॉट अ पावरफुल राइटिंग....यह कनवर्सेशन किन्हीं दो लोगों के बीच का था. जिन लोगों के बीच की यह बातचीत है, उनमें से किसी का भी न नाम याद है, न चेहरा. लेकिन बचपन की यादों में यह कनवर्सेशन भी कहीं दर्ज हो गया. क्यों न होता आखिर मार्खेज नाम की दुनिया का रास्ता उन्हीं संवादों से खुला था. जब भी स्पेनिश लेखक मार्खेज को पढ़ती हूं वे संवाद जरूर याद आते हैं. आज फिर याद आ रहे हैं, वे संवाद भी और मार्खेज भी. यह खबर जब आंखों के सामने से गुजरी कि 82 वर्षीय मार्खेज ने कलम रख दी है यानी उन्होंने लिखने से संन्यास ले लिया है तो यकीन नहीं हुआ. फिल्मों से, क्रिकेट से, राजनीति से संन्यास लेते हुए तो लोगों को देखा था, सुना था लेकिन लेखन से सन्यास? वो भी मार्खेज का संन्यास. पता नहीं इस खबर को लेकर कितने लोगों ने रिएक्ट किया होगा, कितनों ने इस खबर से पहली बार मार्खेज का नाम सुना होगा और कितनों ने बेहद तकलीफ का अनुभव किया होगा. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके मार्खेज का आखिरी उपन्यास पांच साल पहले आया था. उपन्यास का नाम था मेमोरीज ऑफ माई मेलनकोली होर्स. उनके न लिखने की घोषणा के साथ ही यह उनका आखिरी उपन्यास हो गया है. युवा पत्रकार, क्रिएटिव राइटिंग का कोर्स कर रहे स्टूडेंट्स और लिखने की लालसा रखने वाले नए लोगों को लिखने की जद्दोजेहद में उलझे बगैर लिखने को लेकर परफेक्शन का बोध देखकर मार्खेज के ये शब्द याद आते हैं, 'लिखना सुख की अनुभूति तो है ही लिखना लंबी, घनी यातना से गुजरना भी है. आज कितने लोग लिखने की यातना से गुजरते हैं या गुजर पाते हैं यह एक दूसरा ही सवाल है. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कभी-कभी पूरे दिन में एक पैरा भी लिख जाए तो बहुत बड़ी बात है. उनका लेखन को लेकर संन्यास लेना, उनके इस कहे को सही साबित करता है कि लिखना लिखने के लिए नहीं होना चाहिए. उनका लेखन बंद करना इस इरादे से भी है कि कहीं उनके लेखन में दोहराव न आने लगे. इसके पहले मुझे तो किसी लेखक का नाम याद नहीं आता जिसने ऐसा कुछ कहा हो कि उसने न लिखने का फैसला किया है. आमतौर पर ये फैसले समय ने ही किये हैं. कभी लंबी बीमारी के चलते, कभी किन्हीं और कारणों से लोगों का लेखन छूट जरूर गया लेकिन छोड़ा किसी ने नहीं. समझ में नहीं आ रहा है कि इस खबर को अच्छी खबर माना जाए या बुरी खबर. बुरी इस लिहाज से कि अब उनकी कोई भी नई रचना पढऩे को नहीं मिलेगी. उनके लेखन से पूरे विश्व के साहित्य ने ऊर्जा ली है, दिशा ली है. ऐसे में एक दिशाहीनता की स्थिति आने की संभावना है. लेकिन इस खबर का सुखद पहलू यह है कि जीवन भर अपने लेखन के प्रति ईमानदार रहने वाले मार्खेज ने जीते जी इस ईमानदारी को निभाया. उन्होंने कलम के मोह से मुक्ति ली. यूं भी मार्खेज के ही शब्दों में अगर उन्हें सुना जाए तो अब वे अपनी कलम से शब्दों को भले ही न रचें लेकिन उनका जीवन, उनकी अभिव्यक्तियों में हम उन्हें पढ़ते रहेंगे. मार्खेज को पढऩा आज के दौर की बड़ी जरूरत है, बस हम इस जरूरत को कितना समझ पाते हैं यही देखना है. जर्नलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले मार्खेज का पूरा जीवन प्रेरणा है। युवा पीढ़ी के दिमाग में चलने वाली उलझनों को जिस शाइस्तगी से उन्होंने तरतीब दी वह एक मिसाल है। उनकी किताबों की लिस्ट लंबी है, उनके कामों की लिस्ट भी लंबी है और हम दुआ करते हैं कि उनकी उम्र भी लंबी हो। ताकि हम उन्हें लिखते हुए भले ही न पढें़ उन्हें देखते हुए पढ़ते रहें। यूं भी लिखना सिर्फ शब्दों का कागजों पर बैठना भर तो नहीं होता।
(आई नेक्स्ट के एडिट पेज पर प्रकाशित लेख....)
प्रेम पत्रों का सिलसिला जारी है....
3 comments:
शायद आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ व लेखक का नाम ही मुझे खींच लाया।
यह खबर सुनकर मुझे भी दुख हो रहा है। अभी उनकी जिन पुस्तकों के नाम याद आ रहे हैं वे हैं,Collected Stories,100 Years of solitude व Love in the Time of Cholera. अपनी कहानियों व उससे भी अधिक अपनी भाषा की जादू से वे किसी भी पाठक को बाँध लेते हैं। ऐसे लेखक पाठकों के मन में बसते हैं।
घुघूती बासूती
'लिखना सुख की अनुभूति तो है ही लिखना लंबी, घनी यातना से गुजरना भी है.'
मुनव्वर राणा याद आते हैं-
"हमने शब्दों को बरतने में लहू थूक दिया,
तूम तो यह देखोगे कि मेरी गजल कैसी है?"
यूं भी लिखना सिर्फ शब्दों का कागजों पर बैठना भर तो नहीं होता।
बहुत अच्छा लिखा है आपने , वो सुख दुःख की अनुभूति सब कुछ तो लिखने वाले के सीने से गुजरा है |
Post a Comment