फ्रांज काफ्का का पत्र मिलेना के नाम
(फ्रांज काफ्का: जर्मनी का विश्वप्रसिद्ध यहूदी उपन्यसकार. कहा जाता है कि काफ्का को उम्र भर हल्का-हल्का बुखार रहा. उन्होंने समग्र साहित्य उसी बुखार की तपिश में लिखा. और यह बुखार मिलेना के प्यार का बुखार था.)
प्रिये,
आज सुबह के पत्र में मैंने जितना कुछ कहा, उससे अधिक यदि इस पत्र में नहीं कहा तो मैं झूठा ही कहलाऊंगा. कहना भी तुमसे, जिससे मैं इतनी आजादी से कुछ भी कह सुन सकता हूं. कभी कुछ भी सेाचना नहीं पड़ता कि तुम्हें कैसा लगेगा. कोई भय नहीं. अभिव्यक्ति का ऐसा सुख भला और कहां है तुम्हारे सिवा मेरी मिलेना. किसी ने भी मुझे उस तरह नहीं समझा जिस तरह तुमने. न ही किसी ने जानते-बूझते और इतने मन से कभी, कहीं मेरा पक्ष लिया, जितना कि तुमने.तुम्हारे सबसे सुंदर पत्र वे हैं जिनमें तुम मेरे भय से सहमत हो और साथ ही यह समझाने का प्रयास करती हो कि मेरे लिए भय का कोई कारण नहीं है(मेरे लिए यह बहुत कुछ है क्योंकि कुल मिलाकर तुम्हारे पत्र और उनकी प्रत्येक पंक्ति मेरे जीवन का सबसे सुंदर हासिल है.) शायद तुम्हें कभी-कभी लगता हो जैसे मैं अपने भय का पोषण कर रहा हूं पर तुम भी सहमत होगी कि यह भय मुझमें बहुत गहरा रम चुका है और शायद यही मेरा सर्वोत्तम अंश है. इसलिए शायद यही मेरा वह एकमात्र रूप है जिसे तुम प्यार करती हो क्योंकि मुझमें प्यार के काबिल और क्या मिलेगा? लेकिन यह भय निश्चित ही प्यार के काबिल है. सच है इंसान को किसी को प्यार करना है तो उसकी कमजोरियों को भी खूब प्यार करना चाहिए. तुम यह बात भली भांति जानती हो. इसीलिए मैं तुम्हारी हर बात का कायल हूं. तुम्हारा होना मेरी जिंदगी में क्या मायने रखता है यह बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है.
तुम्हारा
काफ्का
(काफ्का यहूदी थे और मिलेना ईसाई. धर्म के पहरेदारों ने इन दोनों को कभी एक न होने दिया. लेकिन मन से वे हमेशा एक-दूसरे के साथ ही रहे. मिलेना ने काफ्का के लिए काफी दु:ख सहे.)
रिल्के का पत्र क्लेयरा के नाम
(जर्मन कवि रिल्के की कविताओं की सोंधी खुशबू से सारी दुनिया अब तक महक रही है)
कैफ्री22।2।१९०७
प्रिये,
मैं इन थोड़े से शब्दों में तुम्हारे पांचवे पत्र के लिए धन्यवाद देता हूं। मैं तुम्हारे दु:ख को खूब समझता हूं और उसे महसूस करता हूं। इस दु:ख को निकाल पाना ते मेरे बस में नहीं है। खामोशियों के बीच भी दर्द की एक धार सी बहती रहती है। तुमसे न मिल पाने का दु:ख। कभी-कभी लगता है कि अगर हम पास नहीं आ सकते तो काश दूर ही जा सकते। इतनी दूर कि एक-दूसरे को याद भी न आ सकते. लेकिन ऐसी तो कोई जगह ही नहीं. कभी-कभी हम कहीं खड़े होते हैं और बाहर की हवा या प्रकाश या पक्षी के संगीत का एक स्वर हमें कहीं ले उड़ता है और हमसे अपनी मर्जी करा लेता है. यह सब देखना-सुनना और ग्रहण करना तो ठीक है, इसके प्रति जड़ होना ठीक नहीं है, लेकिन बिना इसमें पूरी तरह डूबे हुए ही हमको इसके सब स्तरों का अधिक से अधिक गहराई से अनुभव करना चाहिए. वसंत के इन्हीं दिनों मैं रोडिन ने मुझसे कहा था, बसंत की ओर ध्यान मत दो. कुछ बातों की ओर हमें बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिए. हमें अपने अंदर की सबसे दर्दीली जगहों के प्रति एकाग्र और सचेत रहना चाहिए क्योंकि अपने पूरे व्यक्तित्व से भी हम इस दर्द को समझ नहीं सकते. अपनी पूरी जीवन शक्ति से हर चीज को अनुभव करने के बाद भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है और वही सबसे महत्वपूर्ण है.
रिल्के
सिलसिला जारी....
3 comments:
दोनों ही पत्र मार्मिक हैं। शुक्रिया।
शुभकामनाएं।
bahut sundar!
प्रतिभा जी रिल्के मेरे पसंदीदा हैं इस नाते भी और ...दूसरे..आप उन्हें लगातार पढ़वाने वाली हैं ..इसलिए भी धन्यवाद ...सुकून मिला इन्हे पढ़कर,
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