लो फूल सारे तुम रख लो अब से। मुझे नहीं चाहिए। कांटे ठीक हैं मेरे लिए। कांटों के मुरझाने का कोई खतरा नहीं होता. न ही इनकी परवरिश करनी पड़ती है.
सुख तुम पर खूब खिलते हैं. ये तुम्हारे ही लिये बने लगते हैं सारे के सारे. सच्ची, इनका तुम्हारा नाता पुराना है. ये भी तुम्हारे हुए. मैं क्या करूंगी इनका. मेरे लिए इनकी कोई अहमियत नहीं. बेजार हूं मैं सुखों से। इनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है मुझे। बल्कि कभी कोई सुख गलती से टकरा जाता है, तो उसके टूटने का भय खाये रहता है हरदम.
चांद-वांद, चांदनी-वांदनी इनमें में भी कोई रुचि नहीं रही अब मुझे. लो सारी चांद रातें तुम रख लो. मैं अमावस की रातों पर अपने गम का चांद उगा लूंगी। बरसती हुई अमावस की रातों का स्वाद बहुत भाता है मुझे. कभी चखा है तुमने? नहीं...नहीं...ये स्वाद तुम्हारे लिए नहीं है.
धरती भी तुम रख लो, आसमान भी। मेरे लिए तो क्षितिज ही काफी है. अनंत के छोर पर दिखता एक ख्वाब सा क्षितिज.
देह भी तुम ही धरो प्रिय। निर्मल, कोमल, सुंदर देह। सजाओ, संवारो इसे। मेरे लिए तो मेरी रूह ही भली। जल्दी करो, समेटो अपनी चीजें। किसी के बूटों की आवाज आ रही है। सिपाही होगा शायद, या फिर कोई चोर-उचक्का भी हो सकता है.
मांगने लगेगा वो भी हिस्सा या फिर छीन ही लेगा वो तो सारी चीजें. तुम जल्दी से चले जाओ सब लेकर यहां से.
मुझे कुछ नहीं होगा. मेरी चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी किसी को जरा भी नहीं. मैं आजाद हूं अब दुनिया के हर ख़ौफ से।
14 comments:
सुंदर,अतीन्द्रीय सा!
कुछ-कुछ आध्यात्कि सा लग रहे आपके इस वैचारिक पोस्ट पर शेरनुमा छौंक पेश कर रहा हूं-
तुम नहीं, मैं भी नहीं, ये भी नहीं, वो भी नहीं।
कर रहा है कत्ल-ओ-खूं का फिर ये कारोबार कौन।।
bahut hi achche vichar hai aur usse bhi achchi ye rachna hai. pratibha ji chand vand to aapke bhi haq me hoga hi. umeed hai.
मन पर सीधा प्रहार करने वाला,
नपा-तुला सटीक लेख।
सारे सुखन तुम्हारे
प्रतिभा, पहली बार कोई पोस्ट पढ कर मैं स्तब्ध हूं.खामोशी से भर गई मैं. देर तक समझ नहीं आया कि क्या लिखूं.रुह से अभी अभी मिली और झनझना रही हूं.फैज बहुत याद आ रहे हैं...सारे सुखन हमारे...नहीं..सारे सुखन तुम्हारे.जहां सारी चाह मिट जाए..वो दुनिया, वो पल कितना सुंदर होगा.आत्मा के साक्षात्कार से गुजर कर तर गई.और लिखिए...रुहें कह रही हैं.
गीताश्री
आप कुछ भी लिखो हमें लिंक भेज दो ना.
गीताश्री
इनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है मुझे। बल्कि कभी कोई सुख गलती से टकरा जाता है, तो उसके टूटने का भय खाये रहता है हरदम.
किसी के बूटों की आवाज आ रही है। सिपाही होगा शायद, या फिर कोई चोर-उचक्का भी हो सकता है...
बहुत खूब लिखा है पूरी पोस्ट ही गंभीरता लिए हुए हैं
अप्रैल की सारी प्रविष्टियां एक बार में पढ़ गया. अच्छा काम है आपका. बनी रहें! शुभकामनाएं.
niswarth bhav bahut khubsurati se bayan hua hai waah.
कुछ बात तो है इसमें। रूक रूक कर रिसती हुई...
हूँ, बडी गम्भीर पोस्ट।
समझ में नहीं आ रहा कि क्या कमेण्ट किया जाए।
----------
S.B.A.
TSALIIM.
कहते हैं हर शब्द को सोच कर लिखो तो भी कुछ सोचने पर मजबूर करता है, मैं तो फिलहाल ये सोच रहा हूँ, इससे प्रकृति और जीवन का मिलन मानू या फ़िर एहसास को प्रकृति का प्रतिमान मानू....जो भी है वाकई अच्छा है.....नही बहुत ही अच्छा है...खिलते हुए फूलों की तरह !!!!
सुंदर आलेख............पढ़ कर मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है पर कहने को शब्द नहीं मिल रहे.........
प्रेम की अदभुत अभिव्यंजना है यह.सच्चे प्रेम में समर्पण होता है..पूरे सौ प्रतिशत समर्पण..यह आज का भौतिक प्रेम नहीं है..इसे आध्यात्मिक प्रेम का भी दर्जा दिया जा सकता है.वो वाकया याद आ गया....
प्रेमी आता है,दरवाजा खटखटाता है..प्रेमिका पूछती है "कौन"?प्रेमी कहता है."मैं".प्रेमिका दरवाजा नहीं खोलती.प्रेमिका फिर पूछती है"कौन?"प्रेमी कहता है"तुम".प्रेमिका दरवाजा खोल देती है.
Post a Comment