पिछले पत्र के आगे का अंश.....
.........सुनो मैंने मृत्यु को नहीं देखा। शायद रिल्के ने देखा था। अपनी टेबल पर। लेकिन इन दिनों मुझे वह निरंतर घेरे रहती है। कभी-कभी तो लगता है वह मेरे साथ मेरे कमरे में रह रही है और किसी भी दिन नींद में मुझे दबोच लेगी. अपने ऐसे और इतने निष्करुण अंत की कल्पना से डर जाता हूं. कच्ची नींद टूट जाती है, आधी रात. और मैं तुम्हें खत लिखने बैठ जाता हूं. शायद मेरे भीतर कुछ है, जो धीरे-धीरे मर रहा है. एक खूंखार मृत्युबोध से निबटने की तैयार की एक भोली किस्म है, तुम्हें खत लिखना. काफ्का यही किया करता था शायद. देखा, खत एक एस्थेटिक से शुरू किया था और केयॉस पर खत्म होने जा रहा है. ऐसा क्यों होता है? कई बार हम फूलों को हाथ में लेकर चलने का संकल्प बनाते हैं और चाकू आ जाता है जाने कहां से, जो मुझे ही लहू-लुहान करने लगता है. क्या मेरी मृत्यु का समय निकट आ रहा है?वैसे यह सारा समय ही मृत्यु का समय है. चारों तरफ चुप्पी है लेकिन यह भविष्य के लिए खौलता-बदबदाता वर्तमान है, जो एक दिन पोलिंग बूथ को प्रयोगशाला में बदल देगा. चुप्पी के नीचे चीख है जो अंधेरे में भरे ठसाठस आकाश में एक दिन छेद कर देगी और रोशनी फूटेगी ऐसी जैसे मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में के अंत में कमरे में फूटती है. लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तमाम लोग हाथों को जेबों में खोंसकर चुपचाप खड़े हैं. जेबें हथकडिय़ों की नयी किस्म हैं. कोई मुट्ठी बांधकर नहीं चीख और कहूं क्राई माय बिलेविड कंट्री क्राई. इमरजेंसी इसी से ही चिंदा-चिंदा हो पायेगी, वरना तो वह एक सफेद कफन की तरह जनतंत्र की देह पर लिपटी रहेगी. यह कफनग्रस्त समय है. जबकि असलियत में ये समय पूरी देह पर नहीं, सिर्फ सर पर कफन बांधने का है. लेकिन कफन को हमारा बुद्धिजीवी वर्ग टुकड़े-टुकड़े कर के रुमालों की तरह हवा में हिला रहा है. लोग अभिव्यक्ति को विदाई दे रहे हैं. ऐसे में मुझे बार-बार मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में याद रही है. मुझे तो डोमाजी उस्ताद की शक्ल दिखाई देती है. एक शीर्ष नेता के बेटे के चेहरे में.देख ही रही होगी कि मैं लिखते-लिखते कैसे वह किस तरह तथा किस तरफ भटक जाता हूं. डायरी लिखने का इरादा बनाता हूं और तुम्हें खत लिखने की तरफ मुड़ जाता हूं, जबकि तुम कितना संतुलित लिखती हो. तुमसे लिखते वक्त एक भी हर्फ हलाक नहीं होता, लिखे जाने के बाद. मैं कितने-कितने तो शब्दों को लिखने के बाद काट देता हूं, जैसे उस पर से भरोसा उठ गया है और तुम्हारे पास पहुंचकर कोई दूसरा अर्थ प्रकट कर देगा. यह संदेह है भीतर का. बेचैनी है जो शब्दों को हताहत कर डालती है. तुमसे ईष्र्या होती है कि तुम्हारी अभिव्यक्ति कितनी सधी और संतुलित है. जैसे किसी बारीक तार पर चलकर आती हो तुम मुझ तक. बिना कदम डगमगाये. धर्मयुग में प्रकाशित तुम्हारी कविता पर मैंने कितने हिंस्र मुहावरे में टीका-टिप्पणी कर दी थी. उन निष्करुण शब्दों के उपयोग पर आज भी अफसोस होता है. इधर सारिका में वह कहानी स्वीकृत हो गयी है तथा भारती जी की चिट्ठी आयी है, ताजा कहानी भेजने के लिए. वैसे, मैंने पिछले हफ्ते ही एक प्रेम कहानी पूरी की है. कहानी छपेगी तो तुम पढ़कर हंसोगी. तुम्हारी हंसी के नीचे दब जायेंगी दोस्तों की आलोचनाएं. तुम उसमें खुद को बरामद करके क्या सोचोगी?तुम्हें कैसे बताऊं कि कहानी लिखने के दौरान मैंने तुम्हें कहां-कहां से बटोरा. बटोरते हुए आंखों को गीली होने से रोक नहीं पाया. प्रेम हंसते हुए होठों पर नहीं गीली आंख से कहीं ज्यादा बाहर आता है. कहानी पूरी करने के बाद मैं तसल्ली से रोना चाहता था. कमरे में नहीं, संसार की सबसे ऊंची इमारत पर खड़ा होकर. तुम ही बताओं जब लोग हिंसा, हत्या खुलेआम कर सड़कों पर करते हैं तो खुले में या सड़क पर रोया क्यों नहीं जा सकता? लिखने के बाद मैं देर रात गये, धीमी-धीमी बारिश में, गीली सड़कों पर दूर तक बिना छतरी के भीगता हुआ चलता रहा. गीली आंख के साथ. कहानी बीच बारिश के बारह दिनों में लिखी. तुम्हारा पिछले जन्म में कहीं वर्षा नाम तो नहीं था. अगर रहा तो आओ और बरस जाओ इस जंगल पर. धारो-धार. मैं भीग जाना चाहता हूं.आज लिखने के पहले चाहा यही गया था कि पत्र छोटा लेकिन प्यारा हो. मगर जब कलम उठाकर लिखने लगता हूं तो भाषा की सतह को भेदकर धीरे-धीरे नीचे जाने लगते हैं. अपने अर्थों के साथ. तुम जानती हो कि तुम्हें लिखे गये तमाम खत बहुत चौकन्नी भाषा में नहीं लिखे गये हैं. वह सावधानी एक सिरे से नदारद है. अत: तुम्हारे साथ बदसलूकी भी करते होंगे. पर, अब मुझे इसकी चिंता नहीं है. मुझे वर्जीनिया वुल्फ की याद आ रही है. उसने ऐसे ही बौराये शब्दों को नाथकर शायद लिखा था- लीव द लेटर्स टिल वी आर डेड. देखा, फिर मृत्यु के निकट जाकर ठिठक गया. शायद भीतर ही भीतर मैं किसी असाध्य से जान पडऩे वाले रोग से घिरने वाला हूं....को खत लिखा था, उसने कहा है कि किसी मेडिकल टीचिंग इंस्टीट्यूट में एक दफा सारे इंवेस्टिगेशन करवाये जाने जरूरी हैं. बट आई हैव बीन ग्रॉपिंग डीप इनटु द अनइंवेस्टिगेटेड डेप्थ ऑफ माई ओनसेल्फ. रात बहुत बीत चुकी है. ईश्वर भी अपने सारे काम निबटाकर सोने चला गया है. अब मैं सोऊं या कि ईश्वर के छूटे काम की निगरानी अपने मत्थे पर लेकर, ये रात जागती आंखों में काट दूं?
तुम्हारा .......
सिलसिला जारी ....
2 comments:
अब मुझे यह जानने की उत्सुकता हो गयी है प्रतिभा जी कि यह आखिर आम आदमी कौन है ..जो हर प्रेम करने वाले दिल की बात यूँ अपने लफ्जों में लिख रहा है ..:) मानवीय जिज्ञासा सहज है क्यों कि अक्सर इस तरह बहाव में बहते हुए इसी तरह का कुछ लिखा जाता है ..जो बहुत कुछ न कह कर भी कह जाता है ...खैर जानने की उत्सुकता अपनी जगह है पर आपके द्वारा यह हम तक पहुँच रहे हैं और कई नए ख्यालो को लफ्ज़ भी दे रहे हैं .. शुक्रिया आपका ..सिलसिला यह चलता रहे
sudar krum ko anzam dia apne, par itna rare collection jutaane ke lie apki mehnat, tareef kam hai....
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