28।8।७६
प्रिय.......
एक चिरन्तन सी जान पडऩे वाली बदहवासी के दरम्यान जब तुम्हारा कोई खत नहीं मिलता, तो मैं यहां चुपचाप अजनबी शहर में किताबों के बीच दबे तुम्हारे पुराने खतों को खोलकर पढऩे लगता हूं। उन्हें पढ़ते हुए इस अंधेरे में भी सहसा फैल जाती है, अपने छूटे हुए शहर की धूप। जिसके हाशिए में छोड़ जाता था, पोस्टमैन तुम्हारे खत। खत और धूप एकमएक लगते.बहरहाल, आज की इस मटमैली उदासी की धज्जियां उड़ाने के इरादे से मैंने तुम्हारे पिछले खत खोले, जिनमें छोटे वाक्य और बड़े पूर्ण विराम हैं. खोलकर बनिस्बत पहले से कुछ और अधिक ही उदास हो आया. खत पढ़ते हुए तुम्हारे तमाम लिखे गये शब्द, बोले गये बनने लगे. पूर्ण विरामों के बीच ऐसा लगा, जैसे तुम सांस लेने को ठिठकी हुई हो. एक ब्रीदिंग स्पेस है वहां. जहां तुम्हारी झिझक और तुम एक साथ हो. तुम्हारे द्वारा बोलने से रह गये शब्दों को सिर्फ मैं ही सुन सकता हूं. पहले और कई बीत गये दिनों में उठने वाली इच्छा इस समय फिर मेरे सामने है कि मैं तुम्हारी आवाज को सुनूं. पर यह तभी संभव हो सकता था जब फोन होता. सोचो तब क्या होगा, जब मैं फोन के इस छोर पर तथा दूसरे छोर पर तुम होओगी. कुछेक क्षणों तक तो हम आपस में ऐसी भाषा में बात करेंगे कि जो मौन में गिरती जायेगी. उसे कोई भी नहीं पढ़ पायेगा. न उपकरण और न उपकरण वाले लोग. यदि कोई उसे सुनकर लिखना चाहेगा भी, तो बताओ भला लिखेगा ही कैसे? कभी-कभी सोचता हूं, मैं तुम्हारे और अपने संबंधों पर लिखूं एक किताब, जिसमें एक भी हर्फ न हो. जब हम दोनों एक के बाद एक पढ़ेंगे वह किताब, तो उसके पारायण के बीच खाली हो जायेगा संसार. सिर्फ हम भर रह जायेंगे किताब को पढ़ते हुए. सिर्फ हमारी आवाज रह जायेगी अन्तरिक्ष में. एक-दूसरे को पहचानती हुई. एक-दूसरे में समाती हुई. अभी जब मैंने तुम्हारे लिखे गये को बोले गये की तरह सुना तो यही लगा. जैसे सिर्फ यह एक रेसोनेंस है, जिसकी तरफ मेरे कान खुल गये हैं. तुम्हारे खतों को पढ़ते हुए याद नहीं रहा कि मैं किस समय में हूं. ऑलमोस्ट लाइक पास्ट इन प्रेजेंट एंड प्रेजेंट इन पास्ट. एक अनवरत और गड्मगड्ड समय, जिसमें तुम्हारा होना भर रह गया है चारों तरफ.दरअसल, बारह दिनों की शदीद बारिश के बाद आज दस मिनट के लिए धूप खिली, पेड़ हंसे और मैं बेतरह उदास हो गया. इसलिए कि प्रकृति की इस खूबसूूरती को देखने के लिए इस जंगल से जान पडऩे वाले शहर में मैं अकेला था. कहीं कोई आंख नहीं, इस सुख को बांटने के लिए. तुम भी इतनी दूर और अमूर्त कि कहीं किसी किस्म के कोई संवाद की संभावना ही नहीं. पर धीरे-धीरे अब एक बेसब्री उतरती जा रही है, लगातार. तुमसे संवाद करने की. मगर चाहता हूं तुमसे संवाद सर्वश्रुत शब्दों में बिलकुल नहीं हों. कभी-कभी अकेले में सोचता हूं कि तुम्हारे पास भेज दूं अपने ढेर सारे शब्द जो मेरी आत्मा की आंच में लगातार तपते रहे हैं. तवील वक्फे से. ट्यून्ड ऑन लेटेंट हीट ऑफ माई ब्लड. ऐसे शब्द अचानक एक दिन किसी जुनून में भेज दूंगा, तुम्हारे पास. किसी दिन जब तुम काम करते-करते थक जाओगी, तो तुम्हारे पास अचानक पहुंचेंगे मेरे वे ढेर सारे शब्द. एक शब्द तुम्हारा चश्मा उतारकर रख देगा टेबल पर. एक शब्द भिड़ जायेगा चुपचाप तुम्हारा जूड़ा ठीक करने में, एक शब्द पोछने में लग जायेगा तुम्हारी उदासी. एक शब्द पोछेगा तुम्हारी बरौनियों को...और सुनो, एक शब्द गोता लगाकर तुम्हारी नम सांस के सहारे पहुंच जायेगा तुम्हारे भीतर. जहां जाने कितने दिनों से दबी पड़ी होगी तुम्हारी कुम्हलाई हंसी. हो सकता है वह शब्द उस हंसी के पास पहुंचकर वहीं उसी के साथ खिलखिलाता रह जाये. ऊपर और बाहर आये ही नहीं. पता नहीं चले, तुम्हारे होठों को कि वह शब्द भीतर रुका हुआ है. तुम्हारी हंसी से बात करता हुआ. और....सचमुच एक शब्द ऐसा भी होगा, जो तुम्हारी नब्ज के भीतर उतरेगा और कभी भी बाहर नहीं आयेगा. वहीं पड़ा रहेगा. जब तुम अपनी सौ साल की उम्र पूरी करने के बाद विदा लोगी इस संसार से. राख में चिता से फूल चुनते हुए अचानक तुम्हारे बेटे की अंगुली में कुछ अटक जायेगा. वह राख झाड़कर देखेगा. और विस्मय से भरकर सबको दिखाकर पूछेगा-ये क्या है? कोई उत्तर नहीं दे पायेगा उसके प्रश्न का. देह की धीमी आंच में सौ बरस तक तपते रहने वाला शब्द, चिता की लकडिय़ों की आग में इतना रूप बदल लेगा कि उसे किसी की भी आंख नहीं पहचान पायेगी. आकाश में से झांकता ईश्वर उदास होकर पछतायेगा अपने गूंगेपन पर. तब तुम हवा में अदेह सी चलती हुई जाओगी और अपनी चिता के पास ठिठककर कहोगी-प्रेम. बुझी चिता को घेरे खड़ी खामोश भीड़ में से किसी के भी कान नहीं सुन पायेंगे तुम्हारे द्वारा बोले गये उस शब्द को. मैं मृत्यु की तरफ देखकर मुस्कुराऊंगा और मृत्यु अपनी असफलता पर दांत पीसकर ईष्र्या के साथ कहेगी-प्रेम...., प्रेम...उफ्फ प्रेम...!
यही पत्र कल भी जारी....
5 comments:
उफ़ मोहब्बत से भरा और मोहब्बत में डूबा हुआ ख़त ...मैंने खुद को खो दिया पढ़ते हुए
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
ye pic patron ki rumaniyat ghata rahi hai..
अद्भुत प्रेम में दुबे हुए हैं इस पत्र के लफ्ज़ ..बहुत ही रूमानी .शुक्रिया
आपका ईमेल न होने की वजह से मैं अपनी यह लिंक आपको इस कमेंट के रूप में दे रहा हूं। मैंने हिंदी के सबसे बड़े पोर्टल पर अपने कॉलम ब्लॉग चर्चा में आपके ब्लॉग पर लिखा है। देखिएगा-
http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0904/16/1090416070_1.htm
शुभकामनाएं।
जिस दिल से मैंने अपनी दुनिया बसाई और सजाई थी, आपने उसके बारे में उसी दिल से महसूस करते हुए लिखा है रवींद्र जी. आपका तहेदिल से शुक्रिया!
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