Wednesday, May 25, 2022

ख़ामोशी की संगत पर शब्द और रंग


-प्रतिभा कटियार 

रंग में जो आवाज़ होती है वो बहुत मध्धम सुर में बात करती है. कभी रंगों के क़रीब जाना तो सारा शोर उतार के जाना. शब्दों में जो रंग, जो मौसम, जो नमी होती है वो पंचम सुर के भीतर रहती है. वही पंचम जो प्यार से बनता है. शब्दों के भीतर रखे उस मौसम की डाल उठानी हो तो बहुत आहिस्ता जाना, शब्दों के कांधे से सटकर बैठ जाना. अर्थ के जंगल में मत भटकना बस पंचम के सुर में गोते लगाना और फिर एक नया संसार खुलेगा, एक नयी खुशबू घेरने लगेगी. ऐसे ही जादुई एहसासों से गुजरना हुआ इंदौर में उस शाम 14 मई को जब हम पहुंचे रवीन्द्र व्यास जी की शब्द चित्र प्रदर्शनी देखने.

रवीन्द्र जी से उनके काम के जरिये परिचय बहुत पुराना है. ब्लॉग के ज़माने से. उनका हरे रंग के प्रति प्रेम मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है. उनके चित्रों के करीब कुछ देर ठहरने का जी चाहता है. लेकिन वो सब महसूस किया हुआ अनकहा ही रहा. शायद इस कहन को अब इस प्रदर्शनी के जरिये आना था.

प्रदर्शनी में कुल 26 चित्र हैं और 17 कविताएँ. ये सभी चित्र और कविताएँ मानवीयता का ऐसा इन्द्रधनुष रचते हैं कि आप इनके असर में आये बगैर नहीं रह सकते. ऐसी कोमल अभिव्यक्तियाँ जैसे रंग जाकर शब्दों में जा बैठे हों और शब्दों ने धारण कर लिया हो रंगों का बाना.

एक अनाम तारा
करवट लेती स्त्री को
देखता रहता है अपलक

एक दिन
वह तारा टूट कर गिरता है
और कवि की आंख में
ठहर जाता है

कवि जानता है
करवट लेती स्त्री का दु:ख
और कह नहीं पाता...
(कविता अंश )

सबसे पहले मैं जिस चित्र के सामने खड़ी हुई मैंने अपनी त्वचा पर कुछ पनीला सा रेंगता महसूस किया. जैसे पानी ने छू लिया हो वो पानी जो हरे के भीतर समाया है. उस छुअन के बारे में लिख पाना मुमकिन नहीं. बस कि कोई शब्द हीन सा जादू था साथ. यह जो हरा है न यह धरती की वो ओढ़नी है जिसने हम सबके भीतर की नमी को बचा रखा है. इन चित्रों की उंगली थाम आप किसी जंगल की यात्रा पर निकल सकते हैं. झप्प से गिरता हराआँखों पर सुकून के फाहे रखता है. हरे रंग की सीढ़ियों पर चढ़कर आप हरे आसमान तक पहुँच सकते हैं, एक तिनका हरा थाम आप हरे समन्दर में गोते लगाने को निकल सकते हैं.

एक रंग के अंदर होते हैं न जाने कितने रंग बस कि उनकी संगत में जरा गुम हो जाने भर की देर है. मैं सच कहती हूँ रवीन्द्र जी की कलाकृतियों ने मेरे भीतर की गुम गयी ख़ामोशी को ढूंढकर मुझे थमा दिया था. मैं इन चित्रों के साथ घंटों रह सकती थी. बल्कि सच यह है कि चित्रों की उपस्थिति जरा देर को भी गुम नहीं हुई जेहन से अब तक. इन रंगों के साथ जो कवितायें रवीन्द्र जी ने प्रदर्शनी में सजाई थीं वो कैनवास पर उभरे रंगों को और मीठा बना रहे थीं.

रात के तीसरे पहर में
एक स्त्री की नींद टूटती है
और वह हड़बड़ाकर बैठ जाती है
जिस दिवाल से वह
पीठ टिकाकर बैठती है
उस पर मकड़ी अपना जाला बुनती रहती है
आधी रात को
वह स्त्री अपने खुले बालों को झटकती है
और जूड़ा बांध लेती है.
(कविता अंश)

मैं जब भी घर से निकलता हूं
मां मुझे ऐसे देखती है
कि अब मैं कभी लौटूंगा नहीं

दहलीज़ पार करते ही
मैं अपनी पीठ के पीछे
मां के धम्म से
बैठने की आवाज़ सुनता हूं...
(कविता अंश)

रंग और शब्दों की इस दुनिया से गुजरना एक खूबसूरत एहसास था जिसका असर अब तक बना हुआ है. 

4 comments:

Akshay Singh said...

Behad behtreen...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-05-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4442 में दिया जाएगा| चर्चा मंच पर आपकी उपस्थित चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क

अनीता सैनी said...

बहुत ही बढ़िया चित्र और काव्यांश।
सादर

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही बढ़िया