Tuesday, January 11, 2022

जीवन बहुत कीमती है

देवयानी भारद्वाज ने बहुत प्रेम से यह ख़त पढ़ा है- 

अरसे बाद सुबहों को सुन पा रही हूँ. शामों में जो एक धुन होती है न शांत सी, मीठी सी उसे गुनगुना पा रही हूँ. चाय की मिठास में पंछियों की चहचहाहट घुल रही है. वक़्त के पीछे भागते-भागते शायद हम वक्त को जीना भूलने लगे थे. आज वक्त मिला है खुद को समझने का. अपने आप से बात करने का. सोचने का कि मशीन की तरह यह जो हम भागते जा रहे थे, उसके मानी क्या थे आखिर.

जीवन बहुत कीमती है. इसे प्यार करना, लम्हों को युगों की तरह जीना, लोगों को अपने होने से बेहतर महसूस करवा सकना और क्या? यह मुश्किल वक़्त हमसे कुछ कहने आया है. इतना विनाशकारी वायरस भी हमें कुछ सिखा रहा है कि वो हमें सिर्फ मनुष्य के तौर पर पहचानता है. उसके लिए इस बात के कोई मायने नहीं कि आप किस देश के, किस राज्य के, धर्म के, जाति हैं. कौन से ओहदे पर हैं और क्या सामाजिक, आर्थिक हैसियत है आपकी? उसके लिए हमारा मनुष्य होना ही काफी है. और हम न जाने कितने खांचों में बंटे हैं. एक पिघलन सी महसूस हो रही है भीतर. जी चाहता है अपने सब जानने वालों से जोर-जोर से बोलूं कि उनसे प्यार है. सबसे माफी मांगूं कि कभी दिल दुखाया हो शायद मैंने. कहूँ कि देखो न आज गले भी नहीं मिल सकते और गले मिलने के वो सारे लम्हे जब पास थे, हमने उन लम्हों को झगड़ों में गँवा दिया.

यह वक़्त हमें वो सिखाने आया है जो सीखने को लोग न जाने कितने पुस्तकालयों की ख़ाक छानते रहे, कितने वृक्षों के नीचे धूनी जमाने को भटकते रहे. मनुष्यता का पाठ. अभी कुछ ही दिन पहले हमने दंगों की आग देखी है, बर्बर हिंसा देखी है. हिंसा बाहर बाद में आती है पहले वो भीतर जन्म लेती है. वो किसी भी बहाने बाहर फूट पड़ने को व्याकुल होती है. यह समय अपने भीतर की उस हिंसा को समझने का है, उसे खत्म करने का है. यह वक़्त गुज़र जाएगा. यक़ीनन हम वापस अपनी ज़िन्दगियों में लौट आयेंगे. सब पहले जैसा हो जायेगा. लेकिन क्या हमें सब पहले जैसा ही चाहिए? क्या हमें पहले से बेहतर दुनिया नहीं चाहिए. बाबुषा कहती है आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ, और हम एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है. सच ही तो कहती है वह. यह वक़्त अपने भीतर नमी को सहेज लेने का है, उन सबके प्रति प्रेम से भर उठने का जिनके प्रति कभी भी जरा भी रोष रहा हो. क्या होगा इस हिसाब-किताब का कि किसने क्या कहा, किसने क्या किया. अपने भीतर के विनम्रता के पौधे को, मनुष्यता के पौधे को खूब खाद पानी देने का समय है. जी भर कर रो लेने का, प्यार से भर उठने का समय है. यक़ीनन इस बार हम पहले से बेहतर मनुष्य होकर मिलेंगे. है न?

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