Sunday, January 16, 2022
नागरिक समाज- बसंत त्रिपाठी का कविता संग्रह
इस इतवार की तैयारी कल शाम ही हो गयी थी. तीन नयी किताबें सिरहाने रखकर सोई जो थी. इन्हें पढ़ने का मोह इस कदर था कि सुबह नींद जल्दी खुल गयी. पहली चाय के साथ अख़बार को पांच मिनट में उलट-पुलट कर रखकर सैर पर चली गयी. लेकिन कुछ था घर में जो पुकार रहा था. सैर से लौटते ही एक चाय और चढ़ाई और ‘नागरिक समाज’ उठा ली. सच कहती हूँ, अरसे बाद लगा कि कुछ मन का पढ़ा है. कुछ ऐसा जो मुझे झकझोर रहा है. कविताओं के सैलाब से गुजरते हुए शायद खो गया था ये स्वाद. मित्र कवि बसंत त्रिपाठी का यह संग्रह ज़ेहन की भूख मिटाता भी है और बढ़ाता भी है. ये कवितायें आईना हैं देश का, समाज का और हमारा. मुझे मालूम नहीं कि जैसा मैं महसूस कर रही हूँ उसे कैसे लिखूं, शायद नहीं लिख पाऊंगी, अभी सीखना बाकी है जस का तस अभिव्यक्त कर पाना.
इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि होना कितनी पीड़ा, कितनी बेचैनी में होना है. और यह पीड़ा यह बेचैनी उस समय और समाज को लेकर है जिससे असल में निज की निर्मिति होती है. बिना सतर्क नज़र और साफ़ नज़रिये के आप कुछ भी हो सकते हैं कवि नहीं. इन कविताओं को पढ़ते हुए अपने उस निज की पड़ताल होती है जो सुविधाभोगी घेरे में मतलब भर की वैचारिकी (जिसमें जोखिम न हो) के साथ बहस, आन्दोलन कर लेता है. ये कवितायेँ आपका हाथ पकड़कर समाज के उन स्याह कोनों, वहां के लोगों के जीवन तक ले जाती हैं जिनकी बात किये बगैर नहीं है अर्थ किसी बात का. ये कवितायेँ बार-बार पढ़े जाने वाली कवितायेँ हैं. सेतु प्रकाशन से प्रकाशित यह कविता संग्रह बसंत त्रिपाठी का चौथा कविता संग्रह है.
इन्हें पढ़ते हुए आपको सुख नहीं होगा, बल्कि आपके कम्फर्ट में खलल पड़ेगा फिर भी मैं कहूँगी कि इन कविताओं को पढ़ा जाना जरूरी है. इसी संग्रह की अलग-अलग कविताओं से कुछ पंक्तियाँ-
केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
यह सदी दर्ज हो रही है इतिहास में
इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं
इतिहास में शामिल होने
और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
आप जान सकते हैं इस सदी को....
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लड़ना तो दूर
कहीं जगह ही नहीं थी मेरी
क्यों न खुद को खत्म कर लूं
बस इस ख्याल का आना था
कि यमदूतों ने अपने भालों की नोक चुभोयी-
‘तुम्हारा समय अभी नहीं आया है मि बसंत
तुम्हें इस देश में अपने हिस्से की जिल्लत
पूरी-पूरी झेलनी है.’
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बोलना जरूरी है
कभी-कभी चीखना और झुंझलाना भी
लेकिन सिर्फ बोलने और चीखने और झुंझलाने से
ईमानदार नहीं हो जाता हर कोई
ढोल संगत देने के लिये ही नहीं
अपनी पोल छुपाने के लिए भी
बजता है कई बार
ढडंग... ढडंग...
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देशभक्त आजकल देश से गिरकर
भक्त पर अटके हुए हैं
और बाबाओं की तो अब रहने दें
वे जब तब धर्म की गंधाती व्यापारिक नाली में
गिरते ही रहते हैं
अब तो क्रांतिकारिता भी फेसबुक पर लाइक की आस में
हर सुबह गिर पड़ती है
गिरने का कारोबार उठान पर है अब
जो जितना गिरता है
उसकी आभा उतनी ही निखरती है.
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मुख्यमंत्री के चरित्र के गिरने का ग्राफ
प्रधानमंत्री जैसा नहीं होता
न उनके सचिव एक जैसे गिरते हैं
और मंत्रियों का तो कहना ही क्या
उनका चेहरा क़दमों पर इतना गिरा होता
कि मंत्रित्व काल में
कभी ठीक से दिखाई नहीं पड़ता पूरा...
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3 comments:
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-01-2022 ) को 'आने वाला देश में, अब फिर से ऋतुराज' (चर्चा अंक 4312) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
खूबसूरत पँक्तियाँ।
वाकई समाज और राजनीति का सच्चा चेहरा दिखाती ये कविताएं बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं, सुंदर समीक्षा
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