- संज्ञा उपाध्याय
2020 में जब हम तरह-तरह की क़ैद में जा रहे थे, उन दिनों में उसने दोस्तों की ही नहीं, सबकी ख़ैरियत पूछने का एक नायाब ढंग निकाला। वह ख़त लिखने लगी। फ़ेसबुक पर। और फिर एक दिन इनबॉक्स में बताया कि ये ख़त इकट्ठे होकर किताब के रूप में आ रहे हैं, तुम एक टिप्पणी लिख दो इनके लिए।
आज वह किताब आयी। आज यहाँ कई दिन की बरसात के बाद धूप खिली है।
मैंने जो लिखा था, वह किताब में तो है ही, यहाँ भी साझा कर रही हूँ :
ऐसा समय, जब सामने दिखते दोस्त से उमगकर गले नहीं मिल सकते। हुलसकर हाथ बढ़ा देने वाली पड़ोस की बच्ची को गोद में नहीं उठा सकते। घर पहुँचने की उम्मीद में सड़कों पर सैकड़ों मील पैदल चले जा रहे मजदूरों को कोई दिलासा नहीं दे सकते। अघटित घट जाने के ख़याल को चले आने से चाहकर भी रोक नहीं सकते...
ऐसे बुरे समय को काटने के क्या तरीके हो सकते हैं? बीते दिनों की सुंदर यादों में खोये आहें भरते रहें। या आने वाले बेहतर समय के उम्मीद भरे ख़्वाब सँजोयें। याद और ख़्वाब दोनों के ही सिलसिले आज के उस बुरे वक़्त से शुरू होते हैं। अब आप इधर चले जायें या उधर।
लेकिन रचनात्मक मन कुछ और करता है। प्रतिभा ने वक़्त की इस कटाई में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों की महीन कताई से ख़त बुने हैं। और धागा है प्रेम का।
ज़िंदगी हरदम तालों की चाबी खोजती है। नहीं मिलती, तो बना लेती है। बंद घर की एक खिड़की खुली हो, तो आसमान दिखता है। आसमान, जो हमेशा खुला ही होता है। तालेबंदी वाले दिनों में ये प्रेमपत्र लिखती प्रतिभा ने अपनी उसी खिड़की पर बैठ चाय पीते हुए बिलकुल नज़दीक खिड़की के पल्ले पर बैठी धूप सेंकती तितली को, उससे ज़रा आगे पंछी को डाल पर झुलाते पेड़ को, उससे कुछ आगे पहाड़ में खो जाती सर्पिल नदी को, और उससे बहुत आगे धरती के कान में गुनगुनाते आसमान को देखा है। इस देखने में ही ख़ुद से होकर कहीं दूर किसी सड़क पर अपने बच्चे को बगल में उठाये, सिर पर पोटली धरे चली जाती एक अजनबी उदास स्त्री तक की यात्रा तय की है. बरसे तो सुख सबके आँगन बरसे की दुआ पढ़ी है।
प्रतिभा की दुनिया प्रेम की दुनिया है। मनुष्य, परिंदे, चरिंदे, पेड़, हवा, फूल, नदी, बारिश, संगीत, किताब, फिल्म, चाय...सबसे प्रेम की दुनिया। लेकिन सिर्फ सुख-सपनों में डूबे प्रेम की नहीं। इसमें दुख है। उदासी है। करुणा है। रुदन है। प्रतीक्षा है। शिकायत है। तकलीफ है। साहस है। विचार है। यह प्रेम उलाहने का बाना छोड़ निजता की पगडंडी से होता राजमार्गों की अनगिन भीड़ के बीच सवाल बन व्यवस्था के सामने जा पहुँचता है।
ये प्रेम पत्र किसे लिखे गये हैं? एक पत्र पढ़ते हुए लगेगा—हमें ही! और अगला पत्र पढ़ते ही लगेगा कि अरे, यह पत्र तो हम लिख रहे हैं! अपने उसी प्रिय को, जिससे हम बेझिझक मैगी खाने की अपनी इच्छा जैसी दिनचर्या की हर सामान्य बात से लेकर अपने ही देश के नागरिकों के विरुद्ध जंग छेड़ देने जैसी अमानुषिकता तक किसी भी मसले पर संवाद कर सकते हैं।
इन खुले ख़तों को पढ़ते-पढ़ते हमारे भीतर के न जाने कितने-कितने बंद खुल जाते हैं।
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प्यारी प्रतिभा, इन ख़तों को इस सुंदर लिफ़ाफ़े में हम तक पहुँचाने का शुक्रिया
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