- प्रतिभा कटियार
‘मम्मा, आज ऑफिस न जाओ. प्लीज़ मम्मा.’ बिस्तर में कुनमुनाते हुए विशु ने मंदिरा का हाथ पकड़ लिया. तेज़ी से घर के काम निपटाती मंदिरा एक पल को भरभरा के गिरने हुई जैसे. यार अब ये लास्ट मूमेंट इमोशनल क्राईसिस कैसे मैनेज करेगी वो. अभी और भी काम पड़े हैं घर के. विशु के लिए फ्रूट्स काटकर रखने हैं, अपना नाश्ता पैक करना है और हाँ बाल भी बनाने हैं अभी तो. उसने मन ही मन सोचा बालों को लपेटकर जूड़ा बना लेगी फिर ऑफिस के वाशरूम में ठीक से बना लेगी. नाश्ता भी चलो पैक कर लेगी टी ब्रेक में खा लेगी लेकिन अब विशु का वो क्या करे. अपनी तमाम अधीरता को समेटते हुए, ढेर सारा लाड़ आवाज़ में घोलते हुए उसने विशु के माथे को चूमना चाहा तो उसे उसका माथा तपता हुआ लगा. छूकर देखा तो उसे बुखार था.
मंदिरा वहीँ बैठ गयी. सब कुछ संभालने की जद्दोजहद ऐसे मौकों पर एकदम से ढह जाती है. ऑफिस की मीटिंग, उसका प्रेजेंटेशन सब फ्रीज़ हो गया एकदम से. नौ बरस के बच्चे को बुखार में छोड़कर कैसे जा सकती है वो. लेकिन एन वक्त पर ऑफिस से छुट्टी भी कैसे ले सकती है. दोनों ‘कैसे’ के बीच घड़ी की सुई मुंह चिढ़ाते हुए टिक टिक कर रही थी.
महेश को फोन मिलाया हालाँकि वो जानती है कि उसे फोन मिलाने से कोई फायदा नहीं होगा फिर भी उसने महेश का नम्बर डायल कर दिया. पहली कॉल महेश ने उठायी नहीं, दूसरी कॉल पर वो झल्ला पड़ा ‘यार सुबह से ही तुम क्यों परेशान करने लगती हो अभी ऑफिस पहुंचा हूँ, काम शुरू हुआ है. बाद में कॉल करना.’ कहकर महेश ने फोन काट दिया.
मंदिरा को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन अभी गुस्से का समय नहीं था क्राइसिस मैनेजमेंट का समय था. उसने फिर से फोन मिलाया, ‘विशु को बुखार है महेश उसे बुखार में मेड के सहारे छोड़कर नहीं जा सकती. तुम आज छुट्टी ले लो प्लीज़’ इस बार मंदिरा ने महेश को बोलने का कोई भी मौका दिए बिना अपनी बात कह दी.
‘अरे तो तुम छुट्टी ले लो न, मुझे क्यों कह रही हो’ महेश अब भी उसी चिढ़ी हुई आवाज़ में बात कर रहा था. ‘अगर ले सकती तो तुम्हें फोन नहीं करती. नहीं ले सकती छुट्टी मैं आज. मीटिंग है ऑफिस में. मेरा प्रेजेंटेशन है.’
‘तुम कहना क्या चाहती हो, तुम्हारी मीटिंग, तुम्हारा ऑफिस इम्पोर्टेंट है और मेरा नहीं.’ महेश की आवाज़ की तेजी और रूखापन बढ़ता जा रहा था.
‘मैंने ऐसा नहीं कहा, आज मेरे ऑफिस में ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं छुट्टी ले सकूं. मेरा होना जरूरी है वहां. हमेशा तो लेती ही हूँ.’ मंदिरा ने घर के बचे हुए कामों को तेज़ी से समेटते हुए कहा.
‘ओह हमेशा तुम छुट्टी लेती हो? यानी तुम ही सब करती हो. मैं कुछ नहीं करता? यार तुमको न ये हीरोइन बनने का कुछ ज्यादा ही शौक नहीं है. देखो मैं छुट्टी नहीं ले सकता. तुम मैनेज करो. और अब फोन मत करना.’ महेश ने फोन काट दिया लेकिन मंदिरा के पास महेश की बातों का बुरा मानने का वक्त ही नहीं था. उसने ऑफिस के ग्रुप में मैसेज किया कि बच्चे की तबियत ठीक नहीं थोड़ी देर से पहुंचेगी.
मुखर्जी आंटी को फोन लगाया, ‘आंटी आज मैं विशु को आपके यहाँ छोड़ सकती हूँ क्या? असल में उसे थोड़ा बुखार है और मैं छुट्टी नहीं ले सकती आज.’
मुखर्जी आंटी पापा के ऑफिस में काम करती थीं. अब रिटायर हो गयी हैं और अकेली रहती हैं. इस तरह के हालात में पहले भी कई बार वो काम आ चुकी हैं. मुखर्जी आंटी को उस रोज कहीं जाना था लेकिन उन्होंने मंदिरा की इमरजेंसी को देखते हुए अपना जाना स्थगित किया.
मंदिरा ने विशु को जल्दी से कपड़े बदलवाए, सामान के साथ विशु और मीना को गाड़ी में बिठाया और मुखर्जी आंटी के घर की ओर चल पड़ी. विशु को मुखर्जी आंटी के घर जाना पसंद नहीं है जानती है मंदिरा लेकिन अभी उसके पास कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था. उधर विशु लगातार रोये जा रहा था, शिकायत किये जा रहा था, ‘मम्मा आप बहुत गंदी हो. मैंने आपको बोला आप घर पर ही रुक जाओ और आप मुझे ही घर से बाहर लेकर जा रहे हो. मैं आपसे कभी बात नहीं करूंगा.’
मंदिरा के पास विशु की बात का बुरा मानने या उसे समझाने का न समय था, न ताकत.
मुखर्जी आंटी गेट पर ही मिल गयीं. सामान की तरह मंदिरा ने विशु का हाथ मुखर्जी आंटी के हाथ में थमाया और मीना से बोला आंटी को परेशान न करना. ध्यान रखना बेबी का. विशु आंटी को तंग नहीं करना. कहकर मंदिरा ने गाड़ी मोड़ी ऑफिस की तरफ.
पूरे एक घंटे देर से पहुंची वो ऑफिस. सबकी नजरों में उसे एक अजीब सा तंज़ दिखा जिसे उसने इग्नोर किया. ‘क्या हुआ विशु को’ भावना ने फुसफुसा कर पूछा. ‘बुखार है’ मंदिरा ने भी फुसफुसा कर ही जवाब दिया और प्रेजेंटेशन के लिए लैपटॉप खोलने लगी.
व्यस्तताओं के तूफ़ान में घिरी मंदिरा को पहली फुर्सत तब मिली जब उसे वाशरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. वाशरूम में पहुँचते ही उसे जोर से रोना आया. आईने में उसने अपनी शक्ल देखी तो याद आया कि उसने तो ठीक से बाल भी नहीं बनाये थे जूड़ा कसा था कि ऑफिस में ठीक से बनाएगी. तभी पेट में ऐंठन महसूस हुई. उसे ध्यान आया कि उसने ब्रेकफास्ट भी नहीं किया है. फोन देखा तो विशु के ढेर सारे कॉल पड़े थे. मुखर्जी आंटी के कॉल भी थे. उसने मुखर्जी आंटी को उसने फोन किया तो उन्होंने गुस्से में कहा, ‘बहुत लापरवाह हो मंदिरा तुम. तुमने विशु को खाली पेट ही दवा खिला दी थी. उसे उल्टियाँ हो रही हैं. कितना रो रहा है वो. और तुम फोन भी नहीं उठा रही.’ उन्होंने गुस्से में फोन काट दिया.
मंदिरा को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे संभाले सब कुछ. काश महेश छुट्टी ले लेता आज सोचते हुए उसे रोना आ गया. जब वो बच्चा प्लान कर रहे थे तो महेश हमेशा यही कहता था, ‘तुम चिंता मत करो एकदम. मैं पालूंगा बच्चे को. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. देखना कैसे सब सम्भाल लूँगा.’
मीटिंग का लंच ब्रेक होने को था उसने सोचा बोल देगी बॉस को कि बेटा बीमार है आज हाफ डे लेगी वो. हाफ डे का सोचते ही उसे जैसे सांस आई. सांस आते ही विशु के चेहरा घूम गया आँखों के सामने, ‘मम्मा आज ऑफिस मत जाओ’ की उसकी गुहार कानों में तैर गयी. उसकी गिल्ट गहरी होने लगी.
‘सर, मैं लंच के बाद मीटिंग में नहीं रह पाऊंगी. बेटे की तबियत ठीक नहीं जाना होगा मुझे.’ मंदिरा ने अश्विनी को बोला तो अश्विनी की त्योरियां चढ़ गयीं. ‘मंदिरा ऐसे कैसे चलेगा. तुम्हारे प्रेजेंटेशन पर बात होगी लंच के बाद और तुम ही नहीं होगी. बी प्रोफेशनल.’ अश्विनी का स्वर एकदम सख्त था.
सर, जाना पड़ेगा.’ मंदिरा ने दो टूक कहा और निकल गयी. रास्ते से ही उसने मुखर्जी आंटी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि उलटी होने के बाद थोड़ा हल्का महसूस कर रहा है विशु. अभी नाश्ता कराकर सुला दिया है उसे. मंदिरा सोचने लगी, जब विशु ने कहा, मम्मा आज ऑफिस मत जाओ तो उसके पास महसूस करने का वक़्त भी नहीं था. बुखार के कारण उपजी चिंताओं पर ध्यान ज्यादा था बुखार पर सबसे कम. कैसी हो गयी है वो. विशु करवट भी बदलता था तो भागकर पहुँचती थी वो उसके पास. क्या उसे नौकरी छोड़ देनी चाहिए? क्या वो एक करियर वुमन हो गयी है और लापरवाह माँ? उसके भीतर अपराधबोध बढ़ता जा रहा था तभी फोन घनघनाया. मीनल का फोन था.
‘यार, सिंगल पैरेंटिंग बहुत मुश्किल काम है. आज रिया के स्कूल में एक्सिबिशन थी और मैं वहां जा ही नहीं पायी. बड़ा बुरा लग रहा है.’ मीनल ने छूटते ही कहा. मंदिरा ने कहना चाहा कि सिंगल पैरेंटिंग से भी बुरे हालात हैं उसके. सिंगल हो तो कम से कम पता होता है कि सब आपको ही करना है कोई आपको तानों की बौछार से भिगोता नहीं है. लेकिन मंदिरा चुप रही. मीनल और मंदिरा बचपन के दोस्त हैं हर सुख दुःख के साथी. उसने मीनल से इतना ही कहा, ‘हो सके तो टाइम निकालकर हो लेना एग्जिबिशन में वरना गिल्ट से मर जाओगी.’
‘हाँ यार हर वक्त गिल्ट ही तो रहती है साथ. कभी यह भी लगता है कि शुभम से अलग न होती तो ठीक होता शायद.’ मंदिरा ने धीमे से बस इतना कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है.’
गाड़ी मुखर्जी आंटी के घर के सामने आ गयी थी उसने मीनल से कहा, ‘यार बाद में बात करती हूँ’
विशु का बुखार उतर चुका था. वो सो रहा था. मंदिरा ने उसके माथे पर हाथ फेरा तो उसने आँखें खोल दीं, ‘मम्मा, अब आप नहीं जाओगी न?’ मंदिरा ने कहा ‘हाँ बेटा अब मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी. तुम आराम से सो जाओ, मम्मा यहीं है. थोड़ी देर में हम घर चलेंगे फिर.’ दवा का असर माँ के स्पर्श के साथ मिलकर अच्छी नींद में बदल गया और विशु फिर से सो गया लेकिन इस बार उसकी नन्ही हथेलियों ने माँ की हथेलियों को थामा हुआ था.
मुखर्जी आंटी ने मंदिरा को उसे इशारे से बुलाया और कॉफ़ी दी.
शाम के तीन बजे दिन की पहली कॉफ़ी पीते हुए मंदिरा का शरीर बिखरने को हुआ हो जैसे. आंटी कुछ खाने को दीजिये साथ में सुबह से कुछ खाया नहीं है. शायद मीना ने सुन लिया था मंदिरा को कहते हुए वो टिफिन में रखे पराठे गर्म करके ले आई थी.
‘सोच रही हूँ नौकरी छोड़ दूं?’ पराठे का पहला टुकड़ा मुंह में धकेलते हुए मंदिरा ने कहा.
‘नहीं, ऐसा हरगिज मत करना’ मुखर्जी आंटी ने उसे कहा तो मीना भी बोल पड़ी, ‘दीदी आप मुझे समझाती हो कि औरतों को काम जरूर करना चाहिए और खुद ऐसी बात कर ही हो.’ कभी कभी होता है न ऐसा तो, मैं और आंटी जी संभाल लेंगे. लेकिन आप नौकरी मत छोड़ना वरना बड़े होकर यही बच्चे कहेंगे कि तुमने कुछ किया क्यों नहीं.’ मुखर्जी आंटी मीना को प्रशंसा भरी नज़रों से देख रही थीं.
‘लेकिन आंटी बहुत गिल्ट होता है, बच्चे के पास होना चाहिए था मुझे और मैं कहाँ थी.’
‘बच्चे के पास तो महेश को भी होना चाहिए था, वो कहाँ है. उसे गिल्ट है क्या?’ मुखर्जी आंटी ने कहा तो मंदिरा चुप हो गयी.
घर आकर मंदिरा ने अगले दिन की भी छुट्टी लगाईं और विशु के बगल में आकर लेट गयी.
‘मम्मा, आप जॉब मत छोड़ना. मैं आपको परेशान नहीं करूँगा’ विशु ने मंदिरा के सीने में दुबकते हुए कहा तो दिन भर के भरे हुए उदास बादल मंदिरा की आँखों से छलक पड़े.
(14 जनवरी को नवजीवन में प्रकाशित)
7 comments:
सहनशीलता की पराकाष्ठा
सादर
कहानी अच्छी है। तुम अच्छा तो लिखती ही हो लेकिन सोच रहा हूँ कि महेश के कोण से लिखी जाए तो यह कहानी कैसी बनेगी? 1970 के दशक में कुछ कहानियाँ लिखी गईं जो एकल पिता की दृष्टि से थी। धर्मयुग में पानू खोलिया की एक कहानी थी ऐसी, नाम याद नहीं आ रहा।
यथार्थपरक कहानी।
इस कहानी में कुछ भी नहीं है। ऐसा जो निरर्थक हो। ठूंसा गया हो। कसावट इतनी है कि पाठक एकदम से इसके अंत तक जाना चाहता है। आपका जो कुछ मैंने पढ़ा है उसमें ये अलहदा है। ये अमूमन हर ऐसे पाठक को उद्देलित करती है जो पति है या पत्नी ! काम काजी हों या गृहिणी भी । मैं इस कहानी का मंचन होता हुआ देखना चाहता हूँ । मंदिरा , महेश , मुखर्जी आंटी का चरित्र तेजी से उभरता है । लेकिन अंत में विशु के चरित्र के साथ बेलौस न्याय हुआ है। शानदार !
जीवन इतना आसान नहीं होता। हर औरत के जीवन में ‘मुखर्जी आंटी’ नहीं होती। महानगर में maids के सहारे कब तक बच्चे को छोड़कर १० घंटे की नौकरी की जा सकती है। सालों जल्दी जल्दी चाय बिस्कुट के सहारे, नौकरी, घर, बच्चा सम्भाला, promotion छोड़ा, फिर एक दिन बच्चे की ज़िद पर नौकरी छोड़ी। बहुत सुकून मिला। धीरे धीरे घर वालों का रवैया बदला। full time maid हटी । जो सास ससुर हमारे घर आने से कतराते थे (कहीं बच्चा न सम्भालना पड़े) हमारे साथ shift कर गये। फिर शुरू हुई एक नयी दौड़। घर में सब कुछ उनके हिसाब से चलने लगा। बेटा college गया तो मुझे फिर से नौकरी शुरू करने को कहा गया। मैं बहुत पीछे छूट गयी थी। शादी के २५ साल बाद मैं बैरंग अपनी माँ के पास वापस पहुँच गयी थी, ख़ाली हाथ…
ब्लॉग पर हर कमेन्ट के रिप्लाई का ऑप्शन नहीं है लेकिन इस कहानी पर मैं सबके कमेन्ट पर लगातार विचार कर रही हूँ. नवीन जोशी जी के कमेन्ट पर, मनोहर चमोली जी की टिप्पणी पर. यशोदा अग्रवाल, राजेश पाल जी के कमेन्ट पर. सबसे ज्यादा Anonymous कमेन्ट पर. सच कहूँ वह कमेन्ट नहीं एक कहानी ही है. सच में सबके जीवन में मुखर्जी आंटी नहीं होतीं. एक तरफ नवीन जोशी जी कहानी को महेश के एंगल से देखने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ एक स्त्री अपनी जीवन की कहानी दर्ज कर रही है कि मुखर्जी आंटी न होतीं तो क्या होता. क्या हो रहा है? और ये मुखर्जी आंटी अगर हैं भी कहीं तो इतनी सुलझी हुई ही होंगी कौन जाने...जीवन निष्ठुर है बहुत. और अब भी सारा दारोमदार स्त्रियों पर ही है. यही तो त्रासदी है.
आप सबके कमेंट्स के लिए धन्यवाद!
घर, बच्चे और आफिस की जद्दोजहद से जूझती औरत सिंगल पेरेंट हो या दोनों साथ-साथ इस बात से कोई फरक नहीं पड़ता। यह कहानी यह मिथ बस्ट करने में सक्षम साबित हुई है।
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