Saturday, October 24, 2020

इस्मत चुगताई – स्मृतियों का ताना बाना


- प्रतिभा कटियार
इस्मत आपा...आपकी याद की हुड़क सी लगी है. आपको भूल पाना यूँ तो नामुमकिन है लेकिन यूँ हुड़क उठने का भी अलग ही सुख है. इस हुड़क में आपके गले लगने की मासूम ख्वाहिश भी है. कुछ शिकायतें भी हैं. आप होतीं तो जरूर मेरी यह बात सुनकर हंसती और कहतीं ‘अरे, कोई नयी बात करो लाडो, मुझसे शिकायतें तो जमाने भर को रहीं. इतनी शिकायतें की मुकदमेबाजियां भी कम न हुईं.’ और यह सुनकर मैं अपनी नन्ही शिकायतों को शायद अपनी मुठ्ठियों में कसकर बाँध लेती.

कभी-कभी लगता है कि अगर आपसे मिलती तो क्या करती? क्या बातें करते हम. जाने आप मुझे कितनी स्पेस देतीं. पहला ख़याल डर का आ रहा है कि इत्ती बड़ी लेखिका जिसके लिखे की रौशनी में दुनिया रोशन हुई उसके आगे मेरी बोलती ही बंद हो जाती. फिर मैं बात बदलते हुए पूछती, ‘आपा आप चाय पियेंगी? मैं बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ.?’ आप मुस्कुराकर पढ़ी जा रही किताब से सर उठाकर मेरी तरफ देखतीं, आपका नाक पर आया चश्मा आपके खूबसूरत चेहरे को और भी खूबसूरत बना देता उस वक्त. आप कहतीं ‘हाँ, बना लो चाय..’’ मैं सरपट रसोई में भागती. न मुझे चीनी मिलती जगह पर, न पत्ती, न भगोनी. ‘क्या हो रहा है ये सब’ मैं बुदबुदाती. ‘मैं इतनी नर्वस क्यों हूँ,’ खुद से पूछती.

प्यार है न इसलिए. प्यार भरी मुलाकातों में ऐसा होना लाज़िमी है.’ खुद को समझाती. धीरे-धीरे भगोनी, चीनी, पत्ती, अदरक, इलायची सब नजर आने लगते. ‘जी, चाय.’ चाय लेकर लौटती हूँ आप कहीं नहीं हैं. हाँ पढ़ी जा रही एक किताब है ‘अजब आज़ाद मर्द था मंटो’ और पास में रखा है एक चश्मा. आपने दो कप चाय बनवा ली और यूँ चली गयीं उठकर मैं मुस्कुराई, अब दोनों को चाय मुझे ही पीनी होगी.

23 अक्टूबर की सुबह है और देहरादून के डालनवाला वाले मेरे घर में मीठी धूप गुलाबों पर हाथ फेरते हुए मेरे करीब आकर बैठ गयी है. चुपचाप. वो देर तक चुप नहीं रहेगी जानती हूँ. सुबह की धूप, चाय और मेरी बेखयाली के किस्सों का साथ बड़ा गाढ़ा है. कुछ रोज पहले इसी जगह चाय के साथ कुर्तुल-एन-हैदर थीं. वो डालानवाला के किस्से बयान कर रही थी. और आज हैं इस्मत आपा जो चुपचाप पूरे घर में, जेहन में चहलकदमी कर रही हैं.
क्या यह 1991 की 23 अक्टूबर है? और मैं इंटरमीडिएट के इम्तिहान की तैयारियों के बीच इस्मत आपा की कहानियों को कोर्स की किताब में छुपाकर पढ़ रही हूँ? लिहाफ, चौथी का जोड़ा, बिच्छू फूपी, जवानी, हिंदुस्तान छोड़ दो, जड़े, अपना खून बेडियां, ये बच्चे पढ़ते हुए मैं इम्तिहानों की तैयारी कर रही हूँ? जिन्दगी के इम्तिहान या स्कूल के? यूँ पढ़ना है क्या आखिर? छोड़ो न ये फलसफे मुझे बस इत्ता बता दो न आपा कि आपने ‘भंगन कहीं की’ और ‘चमारों जैसी’ क्यों लिखा अपनी कहानी में. इतना ही समझ सकी हूँ कि उस वक़्त भी किस कदर हाशिये बढ़े हुए थे समाज में जातियों के रुतबे के फासलों का आर-पार न था. उसी को आइना दिखाया होगा आपने, है न?
अच्छा बताओ न आपा अफ़साने लिखते-लिखते फिल्मों में लिखने की कैसी सूझी. मजा तो आया होगा न खूब? आरज़ू, गर्म हवा, जुनून, जिद्दी, फरेब और सोने की चिड़िया फ़िल्में लिखने के अनुभवों को जानना है आपसे और एक फिल्म में अभिनय भी किया न आपने?

पता है मुझे आपकी दोस्तियों पर भी रश्क होता है. क्या मजे करते थे जब आप मंटो और कृशन चन्दर गप्प लगाते थे. जिसमें कभी राजिन्दर बेदी साहब भी आ मिलते. उन दोस्तियों की खुशबू अब तक समूचे साहित्य जगत को महका रही है. मंटो को आपने जो खत लाहौर से लिखा था न उसे पढ़ सच में आंसू आ गये थे. मंटो भी फिर मंटो ही थे जैसे कोई जिद्दी धुन.

‘मेरा दोस्त मेरा दुश्मन’ में आपने दोस्तियों के किस्से दर्ज भी तो किये. मंटो जो आपको बहन मानते थे और किसी भी हाल में जब किसी की नहीं सुनते थे तब आपकी ही सुनते थे. देवेन्द्र सत्यार्थी और कृशन चन्दर से मंटो की दोस्तियों वाली लड़ाईयां होतीं तब सिर्फ आप ही तो थीं जो मुआमले को संभालती थीं. आपने लिखा है न, ‘मैं और मंटो अगर पांच मिनट के इरादे से भी मिलते थे तो पांच घंटे का प्रोग्राम हो जाता. मंटो से बहस करके ऐसा मालूम होता जैसे जेहनी कुव्वतों पर धार रखी जा रही है. जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग में झाड़ू सी दी जा रही है...’
आपा, जैसा आपने मंटो से बात करते हुए महसूस किया न वैसा ही हमने आपको पढ़ते हुए महसूस किया. यकीनन मंटो को पढ़ते हुए भी. और आपके तमाम दोस्तों को भी. जैसे दिमाग के जले साफ़ हो रहे हों, जैसे चीरा लगाकर सड़ी-गली सोच को बहाया जा रहा हो.

एक बात बताऊँ, मंटो फिल्म में जब आप नमूदार हुईं (इस्मत की भूमिका में) तो जी चाहा कूदकर गले लग जाऊं आपसे. मुझे यह बात इतनी मजे की लगती है कि लिटरेचर के असल मानी तो आप लोगों ने ही जिए. शब्दों के शिलालेख बना-बनाकर खड़े कर देना कहाँ होता है लिखना. कैसे समाज की सडी-गली रवायतों के परखच्चे उड़ाती थी आपकी लेखनी. आज इत्ते बरस बाद जो स्त्रियों के मुद्दे समाज के मुद्दे मुख्य धार में आते-आते रह से जाते हैं अक्सर या कहीं किसी और दिशा में बहने लगते हैं. आपने तब उन मुद्दों को खींचकर सामने रख दिया. सजा दो या प्यार कोई परवाह नहीं, लिखना वही जो लिखना जरूरी था. वो जो तब की जरूरत थी और आज की भी है. समय के साथ भी समय के आगे भी नजर रखते हुए आप जिस साहस से लिखा करती थीं वह कमाल था. जीना और लिखना दो फांक नहीं रहा आपके दौर के लोगों में.

23 अक्टूबर 2020 की सुबह में आपकी याद घुली तो दिन महकता रहा. यकीन मानिए आपकी ‘ये बच्चे’ पढ़ते हुए लोटपोट हुआ जाता था मन. अभी आपके अफसानों में डुबकियाँ लगाते हुए आपसे बतकही का सिलसिला शुरू ही हुआ था कि दिन बीतने को आया. और ये क्या हुआ कि दिन बीतते-बीतते कैलेंडर ऐसे पलटा कि तारीख तो आगे बढ़ी लेकिन सन पीछे लौट गया. कैलेंडर पर 24 अक्टूबर 1991 की मनहूस तारीख लटकी हुई है.

न, मुझे अख़बार नहीं खोलना, रेडियो पर नहीं सुनना कोई न्यूज़ बुलेटिन. मुझे मानना ही नहीं कि आप जिन्दगी के तमाम मुकदमों को ख़ारिज करके जा चुकी हैं. लोग इस तारीख को पुण्यतिथि का नाम देते हैं मैं कहती हूँ स्मृति दिवस. यूँ स्मृति तो हर रोज ही साथ होती है वो तारीखों की मुन्तजिर कब होती है लेकिन कभी-कभी तारीखें स्मृति को लौ को बढ़ा देती है. यह ऐसा ही दिन है.

इस्मत आपा आपसे प्यार है, रहेगा. आपके लिखे को जिस रोज जमाना ठीक-ठीक पढ़ लेगा, समझ लेगा यकीनन तमाम मसायल हल हो जायेंगे. तमाम सवाल बदलने लगेंगे लेकिन आप तो जानती ही हैं कि पढ़ना भी एक शऊर है और अभी वो हम सब सीख ही रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे जीवन जीने का शऊर सीख रहे हैं.