Friday, October 9, 2020

लिखन बैठी जाकी छवि: कुछ भाव

- कंवलजीत कौर 

Hello Pratibha, 

मुझे चाव से मारीना की जीवनी पढ़ते देख कर हम्माद ने कहा इस पर कुछ लिख दो ,लिख दिया तो कहने लगे आप को भेज दूं सो भेज रही हूं अब आगे जैसा आप ठीक समझे , आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा । स्नेह और सम्मान के साथ -कंवल

1974 के एक टीवी इंटरव्यू में सोल्जेनितिसन ने मारीना को बीसवीं सदी के महान कवियों में शुमार किया है . मैंने मारीना को पहली बार पढ़ा और फ़िर देर तक अफ़सोस रहा कि अब तक क्यों न पढ़ा। डॉ . इंद्रजीत जी से प्रतिभा कटियार द्वारा लिखित मारीना की जीवनी उपहार में मिली यूँ ही पेज पलटा तो नज़र वहीं ठहर गई. लिखा था - " मेरे सामने समंदर है, मेरी आँखों में समंदर है , मैं दूर तक समंदर को देखती हूँ लेकिन महसूस करती हूँ कि नहीं ये मैं नहीं हूँ. समंदर की लहर हो जाना चाहती हूँ. क्यों यह संभव नहीं हो सकता ." 

थोड़ा और आगे बढ़ी तो लेखिका की स्वीकारोक्ति थी कि वह पापा के किताबों के खजाने से -'मारीना त्स्वेतायेवा : डायरी कुछ खत कुछ कविताएं ' कवर पर बनी मारीना की तस्वीर के आकर्षण में उसे अपनी फ्रॉक में छुपा कर ले आती हैं उस किताब का संग-साथ और आकर्षण ही उनकी इस किताब के सृजन का आधार बना .और जब मैंने जीवनी को पूरा पढ़ डाला तो यकीन हो गया कि लेखिका मारीना को अपना पहला प्यार क्यों मानती हैं.

हाँ, इस किताब को मैंने फ्रॉक में तो नहीं दिल में छुपा लिया. जिसे मैं निर्धन के धन की तरह धीरे-धीरे पलट-पलट कर पढ़ती और यूँ मारीना मेरे साथ मेरे घर में रहने लगी और गाहे-बगाहे मुझे निर्देशित भी करने लगी. लेखक की जीवनी पढ़ना यानी अपने अन्य प्रिय लेखकों के बारे में भी पढ़ना, उनको उनके लेखन के अतिरिक्त जानना -गोर्की , ब्लोक, रिल्के, पास्तरनाक , अख़्मातोव , मायकोवस्की, बूनिन. उन सब को एक ही पुस्तक की छत तले मिलना कितना अद्भुत है ! मारीना के जीवन को चार शब्दों में व्यक्त करना चाहूं तो वो शब्द , समंदर , प्रेम और कविता हैं. पर बचपन से ही उसमें मृत्यु के प्रति अदम्य आकर्षण का भाव है सम्भवतः इस का मुख्य कारण बचपन में ही माँ और सौतेले भाई की क्षय रोग से मृत्यु और पति का क्षय रोग से ग्रस्त होना था . वो अपने संस्मरणों में बार - बार मृत्यु की कल्पना करती है एक जगह वो लिखती हैं - " मैं चाहती हूँ की मुझे तारूसा के पुराने कब्रगाह में फूलों की झाड़ियों के नीचे दफनाया जाए ........ जहां सबसे मीठी स्ट्राबेरी फलती रहे ."
सुख के चरम पर ही वो मर जाना चाहती है ' गिव मी डेथ एट सेवेन्टीन ' में वो लिखती हैं -
आपने मुझे यादगार बचपन दिया
अब मैं चाहती हूँ मृत्यु
अपने सत्रहवें जन्मदिन पर .
कुछ और उदाहरण देखिये -
जीवन और मृत्यु की छुअन से जन्मी मेरी कविताएं
जो कब्रों में सोये हैं क्या वो सचमुच मर चुके हैं और जो कब्रों से बाहर हैं , क्या वो सचमुच जिन्दा हैं .
वो अपनी मृत्यु की कल्पना करती है और कहती है - मुझे अभी भी लगता है कि जब मैं मर रही हूँगी तो वह मेरे पास आएगा. (रिल्के)
मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं मर रही हूँ . एक दिन मैं खत्म हो जाउंगी और कोई मुझे नहीं ढूंढेगा. न ढूंढ पायेगा .
हो सकता है कई बरसों बाद कोई बेहतर कल हो लेकिन तब मैं नहीं रहूंगी.
इस जगह पर मुझे महसूस होता है जैसे कि मैं हूँ या नहीं हूँ. और फिर 31अगस्त 1941 के एक पहर हुआ यूँ कि ज़िंदगी के एक-एक लम्हे के लिए लड़ने वाली , जीवन और कविता में गहरी आसक्ति रखने वाली, कविताएं जिसके लिए जीवन का एक उत्सव थीं वो मरीना जीवन की दुश्वारियों के आगे हताश हो घुटने टेक देती है स्वयं को सब चिंताओं से मुक्त कर आगे बढ़ स्वयं मृत्यु का वरण करती है , पर अपने वतन की मिटटी में दफ़न होने को दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं होती किसी अनजान- अपरचित जगह में दफ़ना दी जाती है पर- 'तारूसा के कब्रगाह में नहीं जहां मीठी स्ट्राबेरी फलती हो ' बल्कि येलबुगा की किसी अनाम कब्रगाह मैं जिस के निशां उनकी बहन अनस्तासिया भी नहीं खोज पाई .


शब्दों की डोर से बंधी मारीना , शब्दों का जादू उसे छोटी उम्र में ही लुभाने लगा था उनकी बहन अनस्तासिया लिखती हैं -' उसके लिखे हुए को पढ़ना संगीत सुनने जैसा मालूम होता था .' जीवनी में एक पूरा युग धड़कता है. 
पढ़ी गई किताब कभी खत्म नहीं होती वो आपके व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाती है जो कई बार कई और दरीचे खोल देती है. मारीना को इतिहास व साहित्य से प्रेम था . उसके कमरे की दीवारों पर नेपोलियन की तस्वीरें लगी होती थीं जिसे वो अपने सपनों में देखती थी वो नेपोलियन के प्रेम में थी इसीलिए उसे पेरिस लुभाता था . पुश्किन की ' टू द सी' कविता पढ़कर उनकी कविताओं के सम्मोहन में बंधी मारीना का समंदर से एक रिश्ता जुड़ गया गया जो ताउम्र बना रहा . जिसे चाहती पूरे मन से चाहती वो प्रेम के समंदर से लबालब भरी थी उसके जीवन में 7 - 8 बार प्रेम ने दस्तक दी अपने पूरे वेग और रचनात्मकता के साथ वो सफर निलेन्द्र , सेर्गेई, कवि आसिप मांदेलश्ताम , निकोदिम , सेर्गेई वोलकोस्की , रिल्के , पास्तरनाक. पर इन सब के बावजूद मारीना ने जीवन के अंतिम क्षण तक सबसे अधिक अपने पति को प्रेम किया . मारीना अपनी कविता मैं लिखती है -
चुनौती की तरह
स्वीकार की मैंने उसकी अंगूठी
मैं पत्नी हूँ उसकी
सदा - सदा के लिए
पर रिल्के और पास्तरनाक के प्रति उसके प्रेम और दीवानगी को क्या नाम दूँ जिनसे वो कभी मिली ही नहीं , एक अपरिभाषित सा ,प्लुटोनिक रिश्ता हाँ मृत्यु से पूर्व पास्तरनाक से एक मुलाकात का ज़िक्र मिलता है . रिल्के मारीना के पहले पत्र का कितना खूबसूरत जवाब देते हैं - " मारीना त्स्वेतायेवा .... क्या सचमुच तुम हो ? क्या तुम यहां नहीं हो ? अगर तुम यहां हो तो मैं कहाँ हूँ ? "

बक़ौल लेखिका मारीना अंत तक रिल्के के एक - एक शब्द से प्रेम करती रही . रिल्के की मृत्यु के बाद 1930 में उसने एक जगह रिल्के को लेकर लिखा है - ' मुझे अभी भी यही लगता है जब मैं मर रही हूँगी तो वह मेरे पास आएगा, वह मेरा अनुवाद करेगा .'
मारीना लम्बे लम्बे ख़त लिखा करती थी 1922 में उसने पास्तरनाक को लिखा - , संवाद करने के लिए मेरे पास दो ही तरीके हैं एक ख्वाब में बात करना और दूसरा ख़त लिखना और जिन लोगों से उसने सपने में मुलाकात की उनमें सबसे ख़ास थे पास्तरनाक . वह अपने बेटे मूर को बोरिस पास्तरनाक के सम्मान में बोरिस के नाम से बुलाना चाहती थी , पर पति ने मना कर दिया . पास्तरनाक के बारे में लिखते हुए कहती हैं - ' मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए जिसे थाम कर मैं पूरी दुनिया को जी सकूँ .' उसके जीवन का एक दौर वह भी था जब उसका समस्त जीवन रिल्के और पास्तरनाक के इर्दगिर्द ही सिमट आया था. वो जब जिसके प्रेम में थी पूरी ईमानदारी से थी उनपर कभी पर्दादारी नहीं की उन पर लिखी कविताओं को जीवन और काव्य संग्राहों में शामिल किया .

मारीना की ज़िंदगी की स्लेट पर कोई सीधी रेखा थी ही नहीं सारा जीवन उतार चढ़ाव व संघर्ष से भरा रहा कविताओं की फ़ाख़्ता के पंख युद्ध, वर्षों पति का लापता होना, भूख, गरीबी, अभावों,अपनों को खो देने की असहनीय पीड़ा से झुलसते रहे पर कविता लेखन नहीं रुका वो प्राण पाती है उनसे न लिख पाने की पीड़ा उसे त्रस्त करती है . कई रातें, महीने उसने जागते काटे हैं अपनी पीड़ा को वह रिल्के को लिखे ख़त में साझा करती लिखती है - 'राइनेर, तुम्हें पता है, मैं सदियों से जाग रही हूँ . मानो नींद का और मेरा कोई रिश्ता ही न हो . बंद आँखों में भी जागती रहती हूँ. जाने क्यों लगता है राइनेर कि तुमसे मिलूंगी तो सदियों की नींद को ठिकाना मिलेगा . तुम्हारे कंधों पर अपन उम्र , अपना अकेलापन सब टिका दूंगी. तुम संभाल लोगे न सब , मेरे प्यारे राइनेर.बस मुझे वहीं सुला लेना .' इस पत्र का जवाब तो नहीं आता. पर ताबूत की आख़िरी कील सी रिल्के की मौत की ख़बर उस तक पहुंचती है इस दुःख से वह कभी उबर नहीं पाई .

मारीना एक समृद्ध और शिक्षित परिवार में जन्मी थी, पर फिर भी कैसा तक़लीफ़देह जीवन , निर्वासन , जगह - जगह भटकना, अनाथालय में छोटी बेटी की भूख से मृत्यु , खुद खाने को मोहताज़ ,फ़टे कपड़ों, नंगे पावों का बदहाल उनींदा सफ़र , एक भटकाव भरी दुखद जीवनयात्रा , उम्र भर एक सुरक्षित घर और छत की तलाश में भटकती रही . ये सब तब था जब सब मारीना के नाम और काम से परिचित थे , वह उस वक़्त के प्रतिष्ठित लोगों को जानती थी बहुत से दोस्तों ने सहायता भी की पर वो नाकाफ़ी थी . दूसरे विश्वयुद्ध में स्टालिन के दौर के असामान्य हालात में बरसों बाद मास्को लौटना भी उसकी दुश्वारियों को कम न कर सका ,ज़िंदगी ने हर कदम पर मारीना के कदमों और हौसलों की मजबूती नापी है 1939 में वह देश तो लौट आई पर ज़िंदगी को उस पर रहम नहीं आया इसी बीच मास्को को भी खाली करने के हालात पैदा होने पर वह एक और निर्वासन झेलने को अभिशप्त हो बेटे मूर के साथ येलबुगा पहुंचती है. भूख , गरीबी , संघर्ष और उस पर न लिख पाने की पीड़ा उसका हर कदम मानो मौत की तरफ़ बढ़ रहा था , उसकी खूबसूरत उदास आँखों में एक गहरे डर का भाव था ,अंत में हर पल अपने बेटे मूर का हाथ मजबूती से थामे रहने वाली मारीना ज़िंदगी का ही साथ छोड़ मौत के हाथों को थाम लेती है. मारीना का सारा जीवन खुली किताब सा है जो उसके उस दौर में लिखे गए लम्बे ख़तों , डायरी और कविताओं में झलकता है उसकी कविताएं मानो उसके जीवन का अक़्स हैं ।

ताज्जुब और फ़ख्र होता है लेखिका के हौसलों पर सच है प्यार की शिद्द्त जो न करवा दे, मारीना का बिखरा- उलझा जीवन जीवनी के रूप में हमारे सामने है जिसमें दोनों का एक रिश्ता सा बन जाता है पाठकों को हर अध्याय के अंत में आए बुकमार्क के पड़ाव का इंतज़ार सा रहता है जिसमें लेखिका और मारीना के बीच के सदियों के फ़ासले सिमट जाते हैं और अपनेपन का एक रिश्ता सा बन जाता है. हमारे सामने बीता वक़्त और मारीना की पूरी जीवन-यात्रा उभर आती है आरम्भ से अंत तक . मारीना का बचपन , युवावस्था , निर्वासन , मास्को वापसी से पुनः निर्वासन की पीड़ा येलबुगा की ओर , हताश जीवन के अंतिम लम्हे से मारीना के जीवन की मास्को में पुनर्स्थापना तक.
मारीना के जीवन को समेटने , उनकी कविताओं, गद्य , पत्रों के चयन में लेखिका की मेहनत स्पष्ट झलकती है सबको मानो एक सूत्र में पिरो दिया है . मारीना ने लम्बे ख़त और कविताएं लिखीं जिनको यहां लिखना सम्भव नहीं उसके लिए तो आपको जीवनी पढ़नी ही पड़ेगी . कविताओं और पत्रों की कुछ सतरें जो याद रहीं -
निंदा नहीं कर सकोगे तुम मेरी
होठों के लिए पानी है मेरा नाम .
जीवन और मृत्यु की छुअन से जन्मी मेरी कविताएं दरअसल मेरा न पढ़ा गया जीवन है .
मेरी कविताएं संभाल कर रखी गई सुरा की तरह हैं मैं जानती हूँ कि इनका भी वक़्त आएगा .
क्या करूं मैं अपने असीम का
सीमाओं के इस संसार में .
तुम्हारी आवाज़ किसी स्पर्श सी लगती है .
हर वह जगह, जहां इंसान को इंसान के तौर पर नहीं देखा जाता, वर्गों-नस्लों में बांट कर देखा जाता है, मेरे लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है .
जीवन जिया मैंने
जीवन जिया मैंने
कहूंगी नहीं यह मरते हुए .
यह वक़्त है मखमली बिछावन छोड़ने का
यह वक़्त है नए शब्दों को ढूँढने का
यह वक्त है नए दियों को फूंकने का
जीवन से दूर निकल जाने का .
अंत में एक बात, एक प्रश्न, एक शंका मन में उठती है कि मारीना के एकाधिक प्रेम प्रसंगों पर उनके पति की क्या प्रतिक्रिया रही लेखिका इस पर ख़ामोश क्यों रहीं, जीवनी पढ़ते हुए जब ठहर कर सोचने लगते हैं तो महसूस होता है कि मारीना अपनी निजी अंतरंग संसार में इतनी खोई है कि उसका अपने समाज और परिवेश से कोई जैविक नाता ही नहीं बन पाता. समाज की विसंगतियों, लोगों से उनके रिश्तों की कोई स्पष्ट तस्वीर भी नहीं उभरती.
संवेदनशील कवियत्री अपने समय की हलचलों और सामाजिक परिस्थितियों से निरपेक्ष कैसे रह सकती है उसकी तकलीफ़ों ,परेशानियों ,अभावों ,काली रातों का ज़िक्र है पर जिस क्रांति ,विश्वयुद्ध की वजह से एकाधिक बार निर्वासन झेलना पड़ा इस पर एक संवेदनशील कवयित्री तटस्थ,निरपेक्ष, ख़ामोश कैसे रह सकती है !! ये पक्ष भी उजागर होता तो उन की ज़िंदगी की एक मुक़्क़मल तस्वीर और समग्र जीवनगाथा उभर कर सामने आती. अगर प्रतिभा कटियार की नज़र इस तरफ़ भी गई होती तो हमारे सामने मारीना की ज़िंदगी का एक ओझल हिस्सा भी उसी शिद्द्त से सामने आता जैसे वॉनगॉग, दोस्तोवस्की, मुक्तिबोध की कई जीवनियां हैं. किताब में मारीना के जीवन से संबंधित कुछ चित्र भी होते तो उसकी दस्तावेज़ी अहमियत में और इज़ाफ़ा हो जाता . प्रतिभा कटियार मुबारकबाद की हक़दार निःसंदेह है।

1 comment:

kuldeep thakur said...


जय मां हाटेशवरी.......

आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
11/10/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......


अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद