जो जला रही है
मजदूर से मजलूम बना दिए गए लोगों को
साइकल के पैडल बन
सोख लेना हूँ सारी थकान
कि बेटियाँ बिना थके पहुंचा सकें
पिताओं को घर
और पिता अपने बच्चों को
सारे सांप गले में लपेट लेना चाहती हूँ
सारे बिच्छुओं से कह देना चाहती हूँ
कि आओ मुझे डसो
कवारन्तीन सेंटर का रास्ता भूल जाओ कुछ दिन
रेल होना चाहती हूँ
कि जहाँ सोये हों मजदूर
बदल सकूँ उधर से गुजरने का इरादा
पानी होना चाहती हूँ
कि हर प्यास तक पहुँच सकूं
पुकार से पहले
रोटी होना चाहती हूँ
कि भूख से मरने न दूं
धरती पर किसी को भी
चीख बन गुंजा देना चाहती हूँ समूची धरती को
कि दुःख अब सहा नहीं जाता
आग बन भस्म कर देना चाहती हूँ
कायर, मक्कार धूर्त राजनीति को
मीडिया को, चाटुकारों को
संवेदना और समझ बन उतर जाना चाहती हूँ
हर बेहूदा तर्क के गर्भ में
बच्चों की आँखों में खिलना चाहती हूँ
गुलमोहर की तरह
अमलताश बन सोख लेना चाहती हूँ
मुरझाये, पीले पड़े चेहरों की उदासी
शिव की भांति गटक जाना चाहती हूँ
धरती पर फैलाई गयी नफरत का तमाम विष
बहुमत होना चाहती हूँ
कि पलट सकूँ
मगरूर, हत्यारी सत्ता को अभी इसी पल
मुझे कविता होने में कोई दिलचस्पी नहीं
इरेजर होना चाहती हूँ जो
'सभ्यता' के पहले गहराते जा रहे 'अ' को
मिटा सके पूरी तरह से.
14 comments:
प्रखर रचना
सादर नमस्कार,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (29-05-2020) को
"घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं" (चर्चा अंक-3716) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
काश कि ऐसा हो पाये तो मुझे भी रोटी बनना है,धूप पीनी है किसी के काम आ सकूँ कुछ होकर तो.जन्म सफल हो।
उत्कृष्ट सृजन,आदरणीया।
सादर।
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
अच्छा विश्लेषण है।
सादर प्रणाम
सोच को सलाम
काश पूरी हो पाती
वाह !लाजवाब... मनोकामना फले फूले.
सादर
बहुत खूबसूरत सृजन👌👌👌
इरेजर होना चाहती हूँ ...वाह!काश ऐसा हो सके ।
बहुत खूब !!
अद्भुत लेखन
तो फिर देर किस बात की है .. आइए .. आप भी निकल पड़िये घर से .. जाने-अन्जाने तो आपने अन्ततः एक कविता ही तो रच डाली .. बस ! .. काश ! ...
बहुत खूब लिखा है आपने ... 👌👌
कोमल भावसिक्त भावपूर्णं अभिव्यक्ति
उच्च भावों को व्यक्त करती कोमल सार्थक कविता ।
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