कल सारा दिन जररररर्र से निकल गया. किया क्या कुछ याद नहीं. लेकिन बेजारी सी रही हर वक्त. इतनी बेजारी कि कुछ लिखने का भी जी न किया. यूँ बेजारी तो रहती ही है इन दिनों हरदम. सारी दुनिया मजदूर दिवस मना रही थी सिवाय मजदूरों के. कहीं से कोई खबर न आई कि आज मजदूरों ने पेटभर खाया और इस तरह दिन सेलिब्रेट किया. कहीं से कोई खबर न आई कि आज मजदूरों का भी सम्मान होना जरूरी है ऐसा कहा सुना गया हो कहीं. शायद मैंने ही न पढ़ा हो. शायद हुआ हो और मेरी नजर न पहुंची हो. यह 'शायद' शब्द है न यह मुझे जिन्दा रखता है. इसमें उम्मीद का पूरा संसार छिपा है. विशाल संसार. मैं इसी शायद में गोते लगाती रहती हूँ.
मैं हमेशा सोचती हूँ कि जब एक मजदूर पिता अपने बच्चे के सामने पिटता है या गाली खाता है तब उसे कैसा लगता है. मैं सोचती हूँ कि जब एक माँ अपने बच्चों के सामने रोज पिटती है तो उसे कैसा लगता है, बच्चे जब कहीं भी पीट दिए जाते हैं माँ, बाप, जाति, समुदाय और गरीबी की गाली खाकर तो उन्हें कैसा लगता होगा. शायद सम्मान शब्द ने उन तक पहुँचने की यात्रा नहीं की अब तक. आप उन्हें कुछ भी कह लो बस उन्हें बस उनकी रोजी न छीनो. रोजी यानी रोटी, सर छुपाने को एक छत. शिक्षा, स्वास्थ्य तो उनके लिए बहुत बाद की बाते हैं. सम्मान तो शायद सबसे आखिरी बात.
हमारे पास शब्द हैं. हम पेट की भूख को मिटाने के बाद जेहन की भूख मिटाने बैठ जाते हैं. जो कवितायेँ हम उनके लिए लिखते हैं वो उन्हें देखते तक नहीं, जो लेख हम उनके लिए लिखते हैं वो उन्हें नहीं पढ़ते, जो भाषण हम उनके लिए देते हैं उनमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं. यह सब हम भरे पेट लोगों की जुगाली है. उन्हें सिर्फ सरकारी घोषणाओं से फर्क पड़ता है जिसमें हो उनके खाने और रोजगार की बात. उनके लिए सबसे अच्छी कविता है उन योजनाओं का कागजों से उतरकर उनके जीवन तक पहुँचना.
आप उनसे बहुत प्यार और सम्मान से बात करते हैं लेकिन उनका पेट अगर खाली है तो वो आपका दिया सम्मान छोड़कर आगे बढ़ जायेंगे. एक खबर पढ़ी थी कुछ दिन पहले एक विकलांग व्यक्ति ने मुफ्त में दान का राशन लेने से मना कर दिया. वो काम करके कमाना चाहता था,,,उसे सम्मान की समझ हो गयी थी शायद. एक जगह स्कूल में रह रहे मजदूरों ने स्कूल की पुताई कर दी कि मुफ्त में बैठे-बैठे खाना उन्हें रास नहीं आ रहा था. फिर भी हम मध्यवर्ग के लोग इन्हें मक्कार, कामचोर और धूर्त कहने में किसी भी घटना में इन पर शक करने में और इनके सर पर ठीकरा फोड़ने से बाज नहीं आता.
तुम सच ही कहते हो कितने बेवजह की बातें चलती हैं मेरे जेहन में. भेजा शोर करता है टाइप. इस शोर की शांति नींद में ही है और इन दिनों नींद भी कम ही है. अजीब थका-थका सा रहता है मन भी शरीर भी. पैरों में दर्द रहता है काफी दिनों से.
पंछियों की आमद इन दिनों थोड़ा सुकून है...
2 comments:
मजदूर के दर्द को आपने बखूबी से बया किया।
संवेदना का बहुत सुंदर पहलू चिंतन परक सामायिक लेख स्तरीय के करीब।
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