ओ ईश्वर,
मन है तुमसे बातें करने का
जानने का तुम्हारे मन का हाल
कैसे हो तुम
कैसा लगता है तुम्हें
जब तुम्हारे नाम पर
होती हैं हत्याएं
मचती है मार काट
क्या बीतती है तुम पर
जब मंदिरों के भीतर
और मस्जिदों के साये में
अंजाम लेते हैं अपराध
कैसे रोकते हो तुम अपने आंसू
जब नन्ही बच्चियां तुम्हारा नाम पुकारते हुए
रौंद दी जाती हैं
किसके काँधे पर सर टिकाकर
तुम फफक ही पड़ते हो
जयकारों के साथ गालियाँ सुनते हुए
अच्छी सी चाय बनाना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए
जानती हूँ भूखे हो सदियों से
कुन्टलों चढ़ते भोग से निर्विकार हो तुम
क्योंकि मुठ्ठी भर अनाज के इंतजार में
दम तोड़ देते लोगों की भूख ही तुम्हारी भूख है
कितने बच्चे, स्त्रियाँ, बूढ़े, जवान
कभी न खत्म होने वाले सफर पर
चलते ही जा रहे हैं
लाठियां और गालियाँ खाते हुए
तुम्हारे पाँव खूब दुःख रहे होंगे न?
सोये नहीं हो न तुम अरसे से
कैसे सो सकता है कोई इन हालात में
कि कर्मकाण्ड की होड़ में
इंसानियत से ही दूर चा चुके भक्त
भला कहाँ सोने देते हैं पल भर भी
कितने अकेले पड़ गए हो
अज़ान, घंटे, घडियालों की आवाज के बीच
बहुत उदास हो न तुम?
ओ ईश्वर मैं समझती हूँ तुम्हारा दुःख
आओ बैठो यहाँ मेरे पास
यह उदास मौसम है...
1 comment:
सुन्दर रचना
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