Saturday, April 18, 2020

ये मेरे शहर की धूप है


चाय पीना बढ़ गया है इन दिनों. यह सोचना बढ़ने की निशानी है. बस एक ही बात ठीक है इन दिनों कि नींद आ जाती है लेकिन इसमें एक बात बुरी भी है कि नींद में सपने बहुत भयावह आते हैं. सपनों में तुम क्यों नहीं आते?

वैसे अच्छा है तुम नहीं आते. वरना तुम सपने में भी हम लड़ते ही. ऐसा लगता है तुम्हें मुझसे प्यार है, तुम्हें मेरी फ़िक्र है यह जताने का एक ही तरीका सीखा है तुमने 'डांटना'. इसमें भी तुम्हरा पुरुषोचित अहंकार ही होगा.

इतना अहंकार कहाँ से आता है पुरुषों में. इतने बरसों का साथ है या कोई दमित इच्छा कि अब तुम्हारा यह अहंकार बुरा नहीं लगता. सोचती हूँ कितनी ताकत लगानी पड़ती होगी तुम्हें खुद को रोकने के लिए यह कहने से कि तुमको प्यार है...

प्यार कहाँ नहीं था. कब नहीं था का हिसाब लिखने बैठती हूँ तो चारों तरफ बुलबुले से उड़ने लगते हैं जैसे फिल्मों में होता है न ड्रीम सीक्वेंस में...हंसो मत. सुनो, धूप सरककर करीब आ गयी है. इस वक्त जब मैं तुमसे बात कर रही हूँ धूप लैपटॉप में झाँक रही है मानो कह रही हो 'मेरे बारे में भी लिखो न...' धूप तुम्हें याद कर रही है. यह मेरे शहर की धूप है, यह तुम्हें जलाएगी नहीं, ठंडक देगी. उदासी पोछेगी तुम्हारी.

देर तक सोना बंद करोगे न जिस दिन उस दिन तुम्हारी सुबह की धूप से दोस्ती कराऊंगी. इस धूप में हल्की सी ठंडक है. कल रात बारिश हुई थी, पत्तों पर बीती रात की बारिश के निशान हैं ठीक वैसे ही जैसे मेरे चेहरे पर होते हैं निशान तुम्हारी स्मृति के.

कभी-कभी सोचती हूँ स्मृति न हो तो क्या हो....फिर डर जाती हूँ. सोचना मुश्किल हो जाता है. इन स्मृतियों ने ही तो संभाल रखा है. क्या स्मृतियाँ सबको संभाल लेती हैं. क्या प्रेम सब कुछ ठीक कर देता है? क्या प्रेम भूख से लड़ सकता है, गरीबी से लड़ सकता है? जिन्हें रोटी चाहिए उन्हें अगर प्रेम से चूम लिया जाय तो क्या उनकी भूख कुछ कम होगी? क्या उस बच्चे को उसकी माँ ने बार-बार चूमा नहीं होगा जिसने भूख से दम तोड़ दिया. क्या उस पिता ने अपने बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए प्रेम से नहला न दिया होगा जो दर्द से तडप रहा था और जिसके इलाज का कोई इंतजाम नहीं था पिता के पास, क्या उस पुत्र ने अपने बीमार पिता को कम प्यार किया होगा जिसे ऑटो
वाले ने किसी वायरस के डर से बीच सडक पर उतार दिया था और बेटा पीठ पर लादकर पिता को अस्पताल लेकर दौड़ा होगा...?

नवाज़ुद्दीन की फिल्म याद है जो हमने साथ में देखी थी' salt and pepper'. प्रेम सचमुच भूख के बाद आता है, बीमारी से बचने के बाद आता है, रोजगार पाने के बाद आता है, और अक्सर इन सबमें भटकता हुआ खो भी जाता है. लेकिन ऐसे ही वक़्त में प्रेम सबसे ज्यादा याद आता है कि सदियों से भरी गयी नफरत को अगर हरा पाए होते तो हालत इतने बुरे न होते. काश कि हम प्रेम से भरे मनुष्य होते पहले बाकी कुछ भी बाद में...

दोस्त मोहन गोडबोले ने बांसुरी एक टुकड़ा भेजा है उदास मौसम से लड़ने के लिए...तुम्हें भी भेज रही हूँ...

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत खूब

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

अजय कुमार झा said...

प्रेम लिखना कोई आपसे सीखे। एक एक शब्द एक एक लम्हा इश्क में पोर पोर भीगा डूबा हुआ। लिखते जाइये हम पढ़ते रहेंगे

ANHAD NAAD said...

beautifully written