Thursday, December 31, 2020

प्रस्तर मारीना- अनीता दुबे


कुछ जीवनियों को पढ़कर लगता है कि जैसे हम भी वहीं खड़े थे और दृश्य घटित हो रहे थे ।कभी लगता है कि जीवन किसी महान व्यक्ति का उतना सरल कभी नहीं हुआ। जो सफल दिखाई देते रहें हैं ।मारीना कवयित्री की कविताएँ चाहे जो कहती हो उसने भी स्त्री जीवन की हर मुश्किल का सामना किया । वो मुक्त हुई मगर सौगात ही देकर गई ।

उस कठिन समय की कवयित्री की जीवनी प्रतिभा तुमने बखूबी लिखा। मैं पढ़ते हुए कई बार बैचैन भी हुई ।
मगर तुमसे वादा था ।आज साल के आखिर दिन प्रस्तर से तुम्हारी मारीना ।
किसी जीवन को अपने लिए समझने के लिए "मारीना" को ज़रूर पढ़ा जाये ।

Thursday, December 24, 2020

अंतिमा- मध्य में होने का सुख


ख़्वाब भरी आँखें अगर एकदम से खाली हो जायें और वो भी यूँ कि आँखों में बसने वाले ख़्वाब एक दिन कूद कर बाहर आ जाएँ और आसपास चहलकदमी करने लगें तो क्या हो? सिर्फ आँखों की कोरों को छूकर लौट जाने की बजाय एक चमकीली गीली लकीर हथेलियों पर उतर आये तो क्या हो? क्या हो कि वर्तमान के सुख में अतीत की पीड़ा का तिलिस्म (वो पीड़ा जिसकी किसी नशे की तरह हमें आदत लग चुकी थी) आकर बैठ जाए? क्या हो कि एक लम्बी गहरी चुप्पी के बीच मिल जाए कोई खोया हुआ वाक्य, कोई शब्द कोई उम्मीद जिसकी राह देखते हुए हम थक चुके थे और हमने इंतजार छोड़ दिया था? 

अंतिमा पढ़ते हुए ऐसा ही महसूस हो रहा है. इसे पढ़ते हुए जैसे अतीत, और भविष्य खिसककर वर्तमान की ओर उत्देुता भरी आँखों से देख रहे हों. भीतर की किसी भूख को जैसे एक बड़ा सा टुकड़ा मिल मिल गया हो देर तक चुभलाने को और लम्बे समय बाद भूख मिटने के सुख में एक नयी भूख जाग उठने की बेचैनी शामिल होती जा रही हो .

मैं खाना धीमे खाती हूँ, चाय और भी धीरे पीती हूँ लेकिन पढ़ती तेजी से हूँ. आमतौर पर इसका सुख हुआ है लेकिन कभी-कभी उलझन भी. आज पीठ के दर्द के चलते दिन आराम के नाम था और ऐसे में अपनी पसंद की किताब पढने से अच्छा भला और क्या हो सकता था. दोपहर तक अंतिमा के ठीक बीच में पहुँच चुकने के बाद खुद को रोक लिया. सारी किताबें ऐसी नहीं होतीं कि उन्हें गति से पढ़ा जाय. मानव को पढ़ते हुए ऐसा अक्सरहां महसूस होता है. किताब को सरकाकर खुद से दूर कर दिया. उसे न पढने के लिए तमाम उपक्रम किये. अंतिमा को दूर से देखते हुए कुछ दोस्तों को फोन किए, एक बेकार सी सीरीज देखी, कई बार चाय पी, एक्सरसाइज़ की लेकिन नजर अंतिमा से हटी नहीं.

इस बीच कामू, बोर्खेस, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को फिर से पढने की इच्छा भी सामने आ खड़ी हुई. लेकिन मैंने रोहित, पवन, अरु के संवादों और चुप्पियों के बीच किसी को फ़िलहाल आने नहीं दिया.
कहे जा चुके शब्द अपना अस्तित्व धीरे-धीरे ग्रहण करते हैं. जब लगता है वो कहे जा चुके हैं तब असल वो उगना शुरू करते हैं. और जब हम पन्नों से गुजर चुके होते हैं तब पढ़े जा चुके संवाद, पढ़े जाने में घटित हुए दृश्य हमारे करीब आकर बैठ जाते हैं.

फ़िलहाल उन दृश्यों के मध्य होने का सुख है. चाहती तो आज पूरी पढ़ी जा सकती थी यह किताब लेकिन बीच में रुकना सुख दे रहा है. मानव बेहद आसान लेखक हैं दिल में जगह बनाने के लिहाज से लेकिन वो अपने लिखे से अपने पाठक का हाथ पकडकर जिस दुनिया में ले जाते हैं वहाँ जाना आसान नहीं है. इस लिहाज से मानव को लोकप्रिय लेखक के तौर पर देखना संतोष से भरता है.

अंतिमा निश्चित ही मानव के पुराने पाठकों को पसंद आएगी और नए पाठक भी बनाएगी. फ़िलहाल किसी किताब के मध्य में होना यात्रा के मध्य में होने या जीवन यात्रा के मध्य में होने जैसा ही मालूम हो रहा है. आधा जिया/पढ़ा जा चुका है और आधा जिया/पढ़ा जाना बाकी है. जो बाकी है वह अनिश्चितता से भरा है... अनिश्चितता उत्सुकता बनाये हुए है..

Sunday, December 20, 2020

धूप जो सहेली है




 और यह साल बीतने को आया आखिर. आखिरी से ठीक पहले वाले इतवार के पायदान पर खड़े होकर इस पूरे बरस को देख रही हूँ.

आंदोलनों की आंच तब भी धधक रही थी देश में जब जनाब 2020 ने इंट्री ली. और आंदोलनों की आंच अब भी धधक रही है. इस बीच कोविड ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, इसे कहते हैं, पूरी दुनिया का एक सूत्र में बंधना.' कितना कुछ खोया हमने इस बरस. कितनों को खोया. ऐसे झटके से गए लोग कि अभी हैं, और बस अभी नहीं हैं. 

सोचती हूँ यह बरस आत्मावलोकन का बहुत ज्यादा समय लेकर भी आया था. यह जो सर पर सवार रहता है न हर वक़्त 'मेरा' ''मैं' कितना बेमानी है यह सब क्योंकि नजीर अकबराबादी के अल्फाजों में कहें तो सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा.'

जीवन बस जिया गया पल ही है इससे न रत्ती भर कम न रत्ती भर ज्यादा. फिर भी रोइए जार जार क्यों कीजिए हाय हाय क्यों. बीतते बरस के आखिरी से पहले वाले इतवार की धूप मेरे पैरों के आसपास टहल रही है. वो मेरा ध्यान खींच रही है. हँसते हुए कह रही है जो नहीं करना है वो बताने के लिए भी वही तो कर रही हो...छोड़ो सब. आओ, मेरे साथ खेलो और हवा में घुलकर धूप का एक टुकड़ा मेरे चेहरे को ढांप चुका है.

मैं इस धूप की, इस हवा की, सामने मुस्कुराते फूलों की शुक्रगुजार हूँ कि इन्होंने मुझे संभाले रखा इस समय में. इस बरस भी फोन करने, बात करने, मैसेज करने,किये गए मैसेज के जवाब देने को लेकर आलस बढ़ता ही रहा. और इस बरस भी दोस्तों ने इस आलस का बुरा नहीं माना.

मैंने धूप से कहा, 'तुम जानती हो तुम मेरी कौन हो?' धूप ने मुस्कुराकर कहा 'हाँ, सहेली'
अब मुस्कुराने की बारी मेरी है. मैं धूप में अपने पाँव पसारे हुए चाय के प्याले को दोनों हथेलियों से थामे हुए सोच रही हूँ इस बरस मैंने क्या-क्या किया. सोचा था इस बरस पढूंगी कि पिछले कई बरसों से पढने का सिलसिला छूटा हुआ था. और थोड़ा संतोष है कि इस बरस पढ़ पाने का सिलसिला शुरू हुआ. पढ़ी गयी किताबों को दोबारा भी पढ़ा गया, नयी किताबें, नए लेखक पढ़े, पंछियों की बोली सीखने की कोशिश की और नये घर में आने वाले पंछियों से पक्की वाली दोस्ती की. जाना फिर बार वही कि महसूस किये हुए को व्यक्त कर पाना कितना मुश्किल होता है.

Wednesday, December 9, 2020

जूही महारानी


बित्ते भर की थीं जूही महारानी जब स्कूटर पर आगे चढ़कर घर आई थीं बरस भर पहले. फिर अरमानों की बेल सी चढ़ती गयीं...कूद फांद करते हुए आगे बढ़ने की ऐसी चाह थी इन्हें कि इनके आस पास जो भी आया उसके काँधे पर सवार होती गयीं...अब यूँ है कि सुबह खिड़की खोलते ही खिलखिलाते हुए मिलती हैं. आसपास की धरती फूलों से भर उठी है. खुशबू हमेशा तारी रहती है...शरारत इतनी पसंद है इन्हें कि मेरे बालों में टंक जाने भर से जी नहीं भरता काँधे पर चढकर मेरे साथ घूमती फिरती हैं. कोई करीब से निकले और इनकी खुशबू से तर ब तर न हो उठे ऐसा कहाँ हो सकता है भला. न सिर्फ खुशबू ये तो पास आने वाले के काँधे पर टप्प से टपक जाने का सुख भी लेने में माहिर हैं. एक रोज मैंने देखा, शाम की सैर करने वाली सारी ही आंटियों के कंधे पर सवार थीं जूही महारानी. इतने चुपचाप कि उन्हें खुद भी खबर नहीं थी. बिलकुल प्रेम की तरह कि जैसे वो चुपचाप जीवन में आकर बैठ जाता है जीवन को महकाने लगता है और हमें खबर ही नहीं होती कि अचानक हुआ क्या...क्यों बदलने लगी दुनिया. 

इन्हें आते हैं सब ढब अपने पास बुलाने के और हाथ थाम के अपने पास रोके रहने के...पास खिले गुलाब भी इनकी शरारतों पर मुग्ध रहते हैं.


Sunday, December 6, 2020

उपक्रम




कोलाहल और शान्ति सब भीतर है 
हम रचते हैं उसे तलाशने का उपक्रम बाहर...

Monday, November 30, 2020

सत्रहवें जन्मदिन पर...


आसमान सरककर दो इंच और ऊंचा हो जाए
ताकि तुम्हारे डैने तैयार हों और ऊंची उड़ान को

समन्दर पुकारते हुए आये तुम्हारे पास 
तुम्हारा बोसा लेने को उचककर कांधों तक आये 
और तुम्हारे चुम्बन के मध्धम स्पर्श से 
शांत होकर देखने लगे तुम्हें टुकुर-टुकुर 

ईश्वर सिंहासन से उतरे 
और तुम्हारे संग खेलने को आतुर हो उठे 
तुमसे हारकर लूडो में 
वह महसूस करे जीत से मीठा स्वाद 

तुम्हारे सत्रहवें जन्मदिन पर 
ख़्वाबों का कोई सैलाब घेर ले तुम्हें 
और पंछियों का कोलाहल निबद्ध हो उठे 
राग भैरवी में 
फूलों पर मंडराते भंवरे, तितलियाँ 
तुमसे सुनना चाहें सितारों की कहानियां 

शरद मुस्कुराए, आये और रुक जाए 
तुम्हारी हथेलियों पर रख दे 
बेहतर दुनिया बनाने का हौसला  

सूर्य मजबूत बनाये तुम्हारे कंधे  
कि मनुष्यता को बचाए रखने उम्मीद 
को सहेज सको तुम 

पीले फूलों की कतारों से गूंजने लगे 
बधाई के गान 

तुम्हारी मुस्कुराहट ही हो कुदरत को 
तुम्हारा दिया रिटर्न गिफ्ट 

सत्रहवें जन्मदिन पर 
तुम ले सको अपने तमाम ख्वाबों की बागडोर 
खुद अपने हाथ में.

Sunday, November 29, 2020

जन्मना हर लम्हा...



जब पहली बार दुनिया में आँख खुली तब का कुछ पता नहीं लेकिन माँ बनने के बाद जब पहली बार आँख खुली तो एक नया जीवन सामने थे. एकदम सलोना जीवन. एक ऐसा जीवन जिसके बारे में देखा सुना पढ़ा खूब था लेकिन जिसे देखा नहीं था. और जब वह जीवन अपनी नन्ही नन्ही कोमल अँगुलियों में मेरी अंगुली को थाम रहा था तो मेरे भीतर एक विशाल झरना फूट पड़ा. यह सुख का झरना था. आँखें भरी हुई थीं. स्तन भी. यह पहली बार था जब रुदन का सुख पसरा हुआ था. यह आज ही के दिन की लेकिन सत्रह बरस पहले की बात है. 

माँ बनना सिर्फ जैविक प्रक्रिया नहीं है. यह एक सृष्टि को जन्म देने की प्रक्रिया है. कि समूचा जीवन किस तरह अपने भीतर साँस लेता है, किस तरह हाथ पाँव मारता है दिल ख़ुशी से झूम उठता है. 

जन्म देने से बड़ी बात है जन्म देने को महसूस करना. गर्भ धारण का सौन्दर्य अद्भुत है. इतना अद्भुत कि इसे महसूस करने को नौकरी चाकरी सब छोड़ दिन भर गर्भस्थ शिशु से बातें करती थी. आज यह गर्भस्थ शिशु मेरी बगल में सोया है. मेरे कद के बराबर हो चला है. लेकिन उसकी अँगुलियों में वही निश्छलता है. उसकी आँखों में वही जीवन. 

अब जब वह वयस्कता की पहली सीढ़ी चढने से सिर्फ एक पादान पहले है मुझे उसकी आँखों में सुंदर दुनिया बनाने का ख़्वाब दिखने लगा है. गलत के खिलाफ उसकी मुठ्ठियाँ भिंचने लगी हैं. Treat People with Kindness...उसका फेवरेट कोट है. मुझे लगता है उसके साथ ने मुझे बेहतर मनुष्य होना सिखाया. धडकनों को गौर से सुनना सिखाया. देर तक ढाई अक्षर के टूटे फूटे शब्दों में उचारे गए 'मम्मा....' में सातों सुरों को एक साथ सधते देखने का सुख दिया. 
उसके सवालों ने मुझे सवाल करना सिखाया, उसके होने ने सिखाया जीना और जीने के लिए संघर्ष करना. 

मैं आज सत्रह बरस की माँ हुई हूँ लगता है इतना ही जीवन है. इन नन्ही अँगुलियों में अगर दुनिया को थमा दें तो दुनिया कितनी मासूम हो जायेगी. इन नन्ही उँगलियों में बची रहे यही मासूमियत तो दुनिया कितनी सुंदर हो उठेगी. बच्चे हमें कितना सिखाते हैं और हम हैं कि इस दर्प से मुक्त ही नहीं होते कि हमने उन्हें पाला है, हमने उन्हें जन्म दिया है जबकि सच यह है कि उन्होंने हमें जन्म दिया है, उन्होंने हमें सिखाया है मनुष्य होना, 

जन्म देना भर जन्म देना नहीं होता...जन्मना होता है हर लम्हे में कुछ नयेपन के साथ, कुछ अनजाने एहसासों के साथ.

Friday, November 20, 2020

यूं मिलती हूँ मैं मारीना से- नीरा त्यागी

-नीरा त्यागी 
होली से एक दिन पहले, हिचकिचाती हुई पहली मंजिल के फ़्लैट में प्रवेश करती हूँ कमरे में किसी को न पाकर वापस दरवाजे पर लौटकर घंटी बजाती हूँ प्रतिभा किचन से निकलते हुए मेरा स्वागत करती है मैं आपके फोन का इंतज़ार कर रही थी. किचन से उड़ती खाने की महक भरे पेट में भूख जगा देती है. तभी हंसी के फव्वारों, होली के रंगो से सरोबर तूफ़ान (ख़्वाहिश और उसके दोस्त) ड्राइंगरूम पर कब्ज़ा कर लेते हैं. वो अपनी चहेती आंटी के साथ होली खेलते हैं फिर उन्हें दरी बिछा कर ज़मीन पर बैठाया जाता है ताकि उनके पेट उनकी फेवरेट आंटी के बनाये खाने पर धावा बोल सकें। बच्ची की छेड़छाड़, उनकी हंसी, खिखिलाहट, प्लेट में चम्मचों की खटपट और रसोई में चकला-बेलन की तालमेल ड्राइंगरूम में ही नहीं मेरे भीतर के सन्नाटों में भी संगीत भर देती है. खुश रहना तो सिर्फ बच्चों से ही सीखा जा सकता है. प्रतिभा दो चाय के प्याले लिए मेरे पास बैठी है और शुरू होता है हमारी बातों का सिलसिला. हम ड्राइंगरूम से शुरुआत करते हैं, फिर छत पर मसूरी के पहाड़ों की पहचान करते हुए, फागुन की गुनगुनी धूंप में नहाते हुए, अंगूर के दाने फांकते हुए, वापस ड्राइंगरूम में और फिर नीचे गलियारे में फ्लैटों का चक्कर लगाते हुए दोपहर से शाम के अँधेरे तक बात करते हैं। लौटने का समय आया और प्रतिभा ने कह कर टाल दिया कुछ घंटे और रात के अंधेरों में अकेले सफर करने से मुझे आज भी डर लगता है प्रतिभा का आग्रह और एक और प्याली साथ पीने का लालच मेरे डर को उलटे पाँव भगा देते हैं. बारी आती है मरीना को छूने की, हाथ में पकड़ने की, सूंघने की. दो प्रति थामे मैं भारी दिल से विदा लेती हूँ. घर लौट कर एक प्रति पापा को भेंट करती हुँ जिसे वह दो दिन में पढ़ कर समाप्त कर देते हैं वो ज्यादा शब्दों में कहने के आदी नहीं हैं वो सिर्फ इतना कहते हैं " बड़े रोचक और सुन्दर शब्दों से गढ़ी अलग किस्म की किताब है. इसे रचने में काफी मेहनत की गई है." मरीना की दूसरी प्रति मेरे साथ लम्बी यात्रा करती है.
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प्रतिभा की किताब मरीना कहने को जीवनी है पर पढ़कर ऐसा लगता है जैसे दो अलग-अलग युग में पैदा हुई औरतों की तपस्या की कहानी है. मरीना त्स्वेतायेवा जो एक संभ्रात परिवार में पैदा होकर, राजनैतिक उठापटक की वजह से कभी रूस के शहरों में, कभी बर्लिन, प्राग, पेरिस में भटकती है, तमाम उम्र अपने परिवार का पेट भरने और उनके लिए छत जुटाने के संघर्ष से झूझती रही. इस सब के बावजूद अपनी कलम के प्रति वफादार रही. दूसरी और इस युग की प्रतिभा है जिसकी तपस्या मरीना पर किताब लिखना था. लिखने के लिए पहले शोध, मरीना के बारे में मेटीरियल इकट्ठा करना, लोगों से मिलना, जेएनयू में रहना और फिर लिखना. यह एक साधना की तरह है जिसे प्रतिभा ने बखूबी निभाया है. प्रतिभा को मरीना की कविताओं की किताब अपने पिता के घर में बचपन में मिली और एक नन्ही बच्ची मरीना की तस्वीर और कविताओं पर मर मिटी. बरसों बाद प्रतिभा ने अपने पहले प्यार को इस किताब के रूप में अंजाम दिया. 

लेखिका ने मरीना की ज़िंदगी में आये परिचितों, दोस्तों, प्रेमियों को उसके द्वारा लिखे खतों के जरिये जाना है, किताब के हर कोने से हर उस स्त्री की वेदना और विवशता की अनुगूँज है जिन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक परिस्थितियां कविता लिखने से दूर करती हैं किस प्रकार मरीना असंभव हालात में भी कविता लिखने की भूख का पोषण करती नज़र आती है. यह किताब उन सभी औरतों के लिए पथ प्रदर्शक है जो अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए छटपटाती रहती हैं क्योंकि माँ और पत्नी की जिम्मेदारियां, घर की सफाई, चौका-बर्तन, राशन जुटाने की जद्दोजहद, बच्चो की परवरिश में अपनी सारी ऊर्जा झोंकने के बाद अपनी कला के लिए ऊर्जा न जुटा पाने को अभिशप्त हैं. मरीना का चरित्र किताब में इस तरह उतर कर आता है कि वो बार- बार पाठक को याद दिलाता है किस प्रकार मरीना विपरीत परिस्थितियों में भी अपने कलात्मक रुझान के प्रति वफादार रही. मरीना ने जागते हुए लिखा, नींद में लिखा, दौड़ते-भागते लिखा, बग्घी में, ट्रेन में लिखा, कमरे में रखी मेज पर लिखा, रसोईघर में खाना बनाते हुए लिखा पीढ़े पर बैठ कर लिखा, उसने अपनी बेटी की मौत पर लिखा. मरीना ने कवितायें लिखी, लेख, संस्करण, डायरी और पत्र लिखे, उसने लोककाव्य, नाटक और बच्चो के लिए कहानियां लिखी. उसने प्रेम में और प्रेम की टूटन में लिखा. यह किताब मरीना के लिखने की ताकत का हर मुमकिन और नामुमकिन हालात में विजयी होने का जीता-जागता सबूत है.

अध्याय के बाद बुकमार्क है जिसमें लेखिका और मरीना के बीच छोटे-छोटे संवाद है यह संवाद देह और आत्मा के अंतर को समाप्त करता नज़र आता है वह दोनों मुखौटे उतार एक दूसरे के सामने होती हैं बात करती हैं प्रश्न पूछती हैं इकट्ठे चाय पीती हैं उन दोनों के बीच का संवाद पाठक को उस धरातल पर ले चलता है जहां मरीना कौन है और प्रतिभा कौन दोनों का अंतर समाप्त हो जाता है.

इस किताब को पढ़ने में जो सबसे ज्यादा आँखों में अटकते है वो हैं रूसी नाम, उस नाम से जुड़े चरित्र को याद रखना और चरित्र का मरीना से रिश्ते को याद रखना कठिन हो जाता है लेकिन फिर भी बहुत से परिचित नाम भी हैं जो मरीना की ज़िंदगी में आये, मरीना का रिल्के और गोर्की, से उसका पत्राचार रहा. मरीना पर लिखी किताब जीवनी होते हुए भी जीवनी नहीं है और अनुवाद होते हुए भी अनुवाद नहीं है यह जीवनी और अनुवाद दोनों से कुछ हटकर और कुछ बढ़कर है. लेखिका मरीना की ज़िंदगी की टोह उसके द्वारा लिखे गए खतों से लेती हैं जो मरीना ने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को लिखे. मरीना अपनी आर्थिक समस्याओं और मुश्किल हालात के प्रति काफी पारदर्शी थी यह उनके खतों से जाहिर है. मरीना के संघर्ष, उनकी गरीबी, बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा की कवायद, बेहरत जीवन और सुरक्षित छत की तलाश में एक देश से दूसरे देश में भटकने को प्रतिभा ने मरीना के खतों के मार्फ़त इस किताब में लिखा है. इसके अलावा लिखने के प्रति मरीना की जिजीविषा और तड़पन को प्रतिभा ने खुद जिया है तभी तो वह इस तड़प की नब्ज़ को पाठकों की अँगुलियों पर रख देती है.

Thursday, November 19, 2020

बेहतर विद्यार्थी होना सीख रही हूँ...


अजीब सी उलझनों वाले दिन थे वो. हर वक्त उलझन रहती थी, सोने ही नहीं देती थी. बेचैनी रहा करती थी. जिस प्रोफेशन को बहुत मोहब्बत से खुद के लिए चुना था, जिसे प्रोफेशन की तरह नहीं पैशन की तरह जिया हरदम वही अब तकलीफ दे रहा था. यूँ लगता था कि पत्रकारिता में इतने हाथ पैर बांधकर भला कैसे सांस ली जा सकती है. जिस कलम को समाज के आखिरी व्यक्ति के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े होना था, जिस कलम को बीन लेने थे राहगीरों की राह के कांटे, किसानों के साथ खड़ी धूप में खड़ा होना था वो कैसे पेज थ्री कॉलम, सेलिब्रिटी खबरों और कुछ ख़ास ख़बरों को सजाने, अच्छी हेडिंग लगाने में जाया होने लगी. न्यूज़रूम में रोज लड़ती थी, भीतर उससे ज्यादा लड़ा करती थी. एक टर्म हुआ करता था ‘डाउनमार्केट’. कोई समझ सकता है क्या कि इस टर्म का इस्तेमाल न्यूजरूम में होता हो और खूब होता हो तो कैसा लगता है. ये खबर डाउनमार्केट है, ये तस्वीर डाउनमार्केट है...इसे अंदर के पन्नों पर फेंको, इसमें ग्लैमर है इसे थोडा और बड़ा करो...पेज वन पर लाओ.

हम पत्रकारिता में नौकरी करने नहीं गये थे, हम तो पत्रकारिता को समझे थे मजलूमों के हक में खड़े होने वालों की जमात. शुरूआती दिनों में यह था भी. कि हमने अच्छी वाली पत्रकारिता के जाते हुए दिनों की पीठ भर देखी है. फिर पत्रकार को प्रोडक्ट की तरह देखा, सुना और पढ़ा जाने लगा. जाहिर है पैशन ब्रेक होना था, कब तक अड़े कोई कितना लड़े कोई. एक रोज तय कर लिया अब और नहीं...हालाँकि लड़ाई छोडकर चल देना मुझे अब भी ठीक नहीं लगता. हर इन्सान जो जहाँ है अपने हिस्से का बदलाव करने के लिए जूझता रहे तो भी कुछ न कुछ हो ही सकता है. लेकिन मैं अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते लड़ते थकने लगी थी...सैचुरेशन की इंतिहा हो गयी थी, नकारात्मकता घेरे रहती थी. और एक रोज रिश्ता तोड़ लिया अख़बारों की दुनिया से, नहीं शायद यह कहना ठीक होगा कि अख़बारों की नौकरी करने से रिश्ता तोड़ा.

आजाद होकर वैसा ही लग रहा था जैसा आज़ाद होकर लगता है. सुकून और बेचैनी का कॉकटेल हो रखा था जेहन में. सुकून कि अब मैं आजाद थी, बेचैनी कि आगे क्या?

लिखने के सिवा तो कुछ आया ही नहीं, हालाँकि लिखना भी कितना आया यह भी पता नहीं. फिर कुछ अख़बारों और पत्रिकाओं से आये नयी नौकरियों के प्रस्ताव पर्स में डालकर चली गयी गोवा घूमने. सोचा कुछ दिन कोई नौकरी नहीं. वहीँ गोवा में एक मित्र का फोन आया कि अपना सीवी भेजो, मैंने दोस्तों से कभी पलटकर क्यों, क्या आदि पूछा नहीं. खुद पर ज्यादा भरोसा करने से ज्यादा भरोसा करने लायक दोस्तों का जिन्दगी में होना शायद इसका कारण होगा. तो गोवा से चला वो एक पेज का सीवी आ पहुंचा अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन जहाँ मैं पिछले 8 बरसों से हूँ. एक पेज के सीवी की कहानी भी अजीब है कि बचपन में पोलिश कवियत्री विस्साव शिम्बोर्स्का की कविता पढ़ ली थी बायोडाटा जिसमें वो लिखती हैं कि जीवन कितना भी बड़ा हो/बायोडाटा छोटा ही होना चाहिए. वैसे मेरा तो जीवन भी छोटा ही था. क्या लिखती मैं. और बायोडाटा बनाया भी पहली बार ही था कि इसके पहले बायोडाटा बनाने की जरूरत पड़ी नहीं थी. तो वो एक पेज का पुर्जा जिस पर बायोडाटा लिखा था भेज दिया गया.

मैंने बस नाम भर सुना था अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन का और यह भी कि एजुकेशन में काम करता है. क्या काम, कैसे काम करता है कुछ पता नहीं था. सच में कुछ भी नहीं. और जब इंटरवियु के लिए कॉल आई तो कुछ लोगों ने वेबसाईट की लिंक भेज दी कि पढ़ लो, जान लो संस्था के बारे में. मैंने सोचा पढकर जाना तो क्या जाना, जायेंगे, मिलकर जानेंगे. शिक्षा के बारे में मेरी समझ उतनी ही थी जो मेरे स्कूल कॉलेज के अनुभव थे और अख़बारों में काम करने के दौरान आने वाली ख़बरें. जाहिर है यह बेहद नाकाफी था. हाँ, मुझे यह जरूर पता था कि यह जो सिस्टम है न शिक्षा का बहुत बुरा है. ये सीखने के मौके कम देता है, न जानने वालों को अपमानित करने के तरीके ज्यादा जानता है.

सरकारी स्कूलों में पढने से लेकर शहर के बेहतरीन कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक में पढ़ने के अलग-अलग अनुभवों में यह बात एक सी ही थी कि कुछ बेस्ट स्टूडेंटस ही शिक्षा व्यस्व्स्था के परचम को लहराते हैं. चाहे वो अख़बारों में टापर्स की तस्वीरों का छपना हो या खुलेआम कुछ बच्चों को कम जानने पर अपमानित किया जाना.

मेरे सामने एक ऐसी संस्था थी जो मुझसे पूछ रही थी कि इस शिक्षा व्यवस्था को लेकर मेरी राय क्या है. सच कहूँ मेरा मन कसैला ही था. कक्षा 1 और 2 में पढ़ाने वाले गोपी सर के अलावा कोई शिक्षक याद नहीं जिसने मेरी शिक्षा को बेहतर बनाया हो. गोपी सर भी पढ़ाने के लिए कहाँ याद हैं, वो याद हैं कि वो मेरी चुप्पी को समझते थे और सर पर हाथ रखते हुए हौसला देते थे.

मैंने एक बात जानी है अपने जीने से कि ईमानदारी और सच्चाई के लिए आपको कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती. आप जैसे हैं वैसे ही खुद को रख दीजिये...बस. यही मैंने हमेशा किया. यह संस्था अजीब ही थी/है. यह आपसे सवाल नहीं करती आपके सवालों को रिसीव करती है. मैंने सिर्फ इतना कहा था कि मुझे खुद से सिर्फ लिखना ही आता है थोड़ा बहुत, अगर शिक्षा में बदलाव के इस बड़े काम में मेरा यह काम किसी तरह कोई भूमिका निभा सके तो मुझे ख़ुशी होगी.

ऐसी संस्थाएं या ऐसे लोग मैंने नहीं देखे जो आपको आपके जानने से जायदा आपकी मंशा को परखते हैं. मुझे काफी समय लगा संस्था को समझने में, शिक्षा के मुद्दों को समझने में, दिक्कत कहाँ है, कैसे दूर हो सकती है. मेरे लिए हर दिन कुछ नया सीखने का दिन था. हर दिन एक नयी चुनौती से टकराने का. जैसे कक्षा 1 में फिर से दाखिला लिया हो. उजबक की तरह सबको सुनती थी, समझती थी, हाँ लिखने पढने को लेकर मेरी पिछली भूमिकाओं को देखते हुए संसथान ने मुझे प्रकाशन जिम्मेदारी जरूर दे दी थी. मैंने शिक्षकों की कहानियों को करीब से जाकर देखा, सुना महसूस किया. यह मेरे भीतर के पत्रकार को भरपेट मिलने वाली खुराक जैसा था. इन कहानियों को देश भर के अख़बारों में पत्रिकाओं में प्रकाशित होने भेजना शुरू किया. अपने अनुभवों को लिखना शुरू किया. और शुरू किया एक नया सफर न जाने हुए को जानने का. दूर-दराज के शिक्षकों से मिलती उनकी जर्नी को समझती, बच्चों से मिलती सब कुछ बदल रहा था. मैं बदल रही थी. हर दिन मेरा विद्यार्थी होना निखर रहा था.

अब समझ में आना लगा था कि असल में शिक्षा ही है बदलाव का असल टूल. और शिक्षा को डिग्री समझना बड़ी भूल है. शिक्षा में वो क्या और क्यों मिसिंग है जो एकेडमिक ग्रोथ की तरह धकेलते हुए ह्यूमन होने से दूर कर देता है. वो क्या है जो काम्पटीशन और होड़ बनाकर रख देता है शिक्षा को. समाज में यह जो असमानता, भेदभाव है क्या इसका कारण अशिक्षा है या ठीक शिक्षा का न होना है? दिमाग में हलचल होने लगी थी. मैं शिक्षा के उन डाक्यूमेंट्स को पढ़ रही थी जिनके नाम सुनकर शुरू शुरू में डर लगता था. उन शिक्षाविदों को पढ़ रही थी जिनके भारी भरकम नाम डराया करते थे.

मैं उन चिंतकों और फिलॉसफर्स को अब नए पर्सपेक्टिव से पढ़ रही थी जिन्हें पॉलटिकल साइंस की स्टूडेंट होने के नाते और अपनी इच्छा के चलते भी अलग पर्सपेक्तिव से पढ़ा था. पढ़ना मुझे हमेशा से पसंद था. राजनीति और साहित्य मेरे प्रिय विषय रहे. अब मैं नए जानर में प्रवेश कर रही थी. गिजुभाई, फ्रेरे को एक साथ पढ़ने के अनुभव थे. वाय्गोसकी, को दोस्तोवस्की को साथ में पढ़ रही थी. कृष्ण चंदर और कृष्ण कुमार को पढ़ रही थी. मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था एक अवेयर लर्नर होना. जिस पर कोई प्रेशर नहीं था कुछ पढने का इम्तिहान देने का, कहीं खुद को साबित करने का. लेकिन अगर आप चाहें तो पूरे मौके थे पढने के समझने के. अनुभव करने के लिए स्कूलों की, गांवों की यात्राएँ थीं और उन सब कामों को फील्ड के साथियों के अनुभवों को सहेजने के लिए हमारे पास दो पत्रिकाएं थीं, उम्मीद जगाते शिक्षक और प्रवाह.

कोई भी काम आपको कितना ही अच्छा लगता हो और आप उसे कितने ही बेहतर ढंग से करते हों एक दिन आप उससे ऊब ही जाते हैं. लेकिन इस संस्था में आपको लगातार खुद को एक्सप्लोर करने का, नया सीखने का अवसर मिलता रहता है. मैंने यहाँ भाषा में काम करना शुरू किया. पढ़ना कैसे बेहतर होता है और पढ़ाना कैसे बेहतर होता है इसको लेकर समझ को विकसित करना और जुड़ना स्कूलों से. हर दिन कोई नयी ऊर्जा लिए घर लौटना होता था. कई बार मेरी आँखें पनीली हो जाती थीं, जब कोई शिक्षक यह कहता वो जो आपने बताया था न मैंने वैसे किया और बच्चों को बहुत अच्छा लगा. इतना सुख होता है जब स्कूल में आया देख बच्चे ख़ुशी से चहक उठते.

ये नयी दुनिया मेरी दुनिया बदलने लगी. जब कोई आप पर भरोसा करता है न तब वह उस भरोसे के लायक बनने की जिम्मेदारी भी थमा देता है. भाषा में को-डेव की प्रक्रिया ने बहुत सिखाया. सब मुझसे ज्यादा जानते थे, जानते ही हैं मैं सबसे सीख रही थी. मेरे पास वो सवाल थे जो बच्चों को सीखने के बीच खड़े थे, वो सवाल थे जो शिक्षकों के सिखाने के बीच खड़े थे. अपने से मेरे तईं हमेशा सवाल ही रहे हैं मैं उन सवालों को लेकर घूमती, जो मिलता उससे पूछती, किताबें पलटती रही. यह यात्रा अभी चल रही है. भाषा में काम करने के दौरान डायरी और यात्रा विधा पर काम करना बहुत समृद्ध करने वाला अनुभव रहा. डायरियां पढ़ी खूब थीं, यात्राएँ करने का शौक रहा है लेकिन इनका पढने-लिखने से जुडाव देख पाना और उस जुडाव को कक्षा में करके देख पाना एक अलग ही अनुभव था. बच्चे जब स्कूल में डायरी लिखने लगे, पत्र लिखने लगे और फिर वो जब बताते उन्हें कैसा लगा तो लगता कि लिखने को लेकर जो गांठें हैं खुल रही हैं. यही शिक्षकों के संग भी हुआ. बहुत सारे शिक्षक साथियों ने डायरियां लिखनी शुरू की, पढने-लिखने की संस्कृति के तहत ढेर सारे शिक्षक साथियों ने अपने अनुभव साझा किये कि किस तरह पढ़ना व्यक्ति के तौर पर समृद्ध करता है और जाहिर है शिक्षक के तौर पर भी और जिसका सीधा जुड़ाव कक्षा शिक्षण से होता ही है.

रेखा चमोली की डायरी इसका एक बड़ा प्रमाण बन चुकी है. शिक्षक साथियों और अपने फाउन्डेशन के साथियों में भी लिखने को लेकर जो संकोच था उसे तोड़ने की कोशिश की. इसलिए नहीं कि किसी को लेखक बनाना उद्देश्य था, या सबको लेखक ही बन जाना चाहिए. नहीं, बल्कि इसलिए कि अनुभवों को सहेजा जाना जरूरी है. शिक्षकों का अपने शिक्षकीय अनुभवों को लिखना वैसा ही है जैसे किसान का लिखना अपने खेत की मिट्टी और फसल के बारे में लिखना. मुझे पुश्किन हमेशा ऐसे मौकों पर याद आते हैं, जब वो कहते हैं, ‘अच्छा शास्त्रीय और सधा हुआ लिखना आसान है, ऊबड़ खाबड़ और सच्चा लिखना कठिन.’ मैं सबको सच्चे और ऊबड़-खाबड़ की ओर जाने को कहती. मैं भी तो उसी राह पर हूँ अच्छे लिखे की किताबों से तो दुनिया भर के पुस्तकालय भरे ही हैं. शिक्षक साथियों की हिचक टूटने लगी, फाउन्डेशन के साथियों की भी. उनके सच्चे सरल अनुभवों से शिक्षा जगत में सकारात्मकता की रौशनी जल उठी है.

इधर शिक्षक साथी कलम से दोस्ती करने लगे हैं उधर मेरा सीखने की इच्छा से रिश्ता लगातार गाढ़ा हो रहा है. इसमें लगातार कुछ नयापन जुड़ रहा है. इन दिनों गणित की दुनिया के दरवाजे खुले हैं. जिन नम्बरों को देखकर डर लगा करता था अब उनसे दोस्ती होने लगी है. किसी भी सीखने की शुरुआत की पहली सीढ़ी उस अजाने से दोस्ती होना ही तो है.

सीखने का यह सफर चल रहा है. हम सब को-लर्नर के तौर पर एक साथ जुड़े हैं और हाथ थामकर चल रहे हैं. इस हाथ थामने की खूबी यह है कि किसी को कुछ ज्यादा आता होगा किसी को कुछ कम लेकिन को-लर्नर होते ही वो जानना और कम जानना सबका साझा होने लगता है. जानने का कोई अहंकार नहीं होता, न जानने की कोई गिल्ट नहीं होती यह सफर हर किसी को समृद्ध करता रहता है...

मैं एक बेहतर विद्यार्थी होना सीख रही हूँ.



Sunday, November 8, 2020

जब मिलेंगे तो खिलेंगे



जब सुबह आयेगी
तब नहीं आयेगी सुबह
वो आयेगी जब
तुम्हारे शहर से होकर आयेगी
जब बारिश आयेगी
तब कहाँ आयेगी बारिश
वो तो तब आयेगी
जब साथ बिताये पलों की स्मृतियों से
तर ब-ब-तर हो उठोगे तुम
धूप ठिठकी रहेगी देहरी पर
बस कहने को जरा सी बात
कि तुम्हें छूकर नहीं आ सकी आज
तुम सोये रहे देर तक
और काम पर निकलना था
धूप को
उदास थी वह
उदास दिनों की
उदास कलियो ने
कान में फुसफुसा कर कहा
जब सब बिछड़े लोग मिलेंगे अपनों से
तब हम खिलेंगे संग-संग

Saturday, November 7, 2020

कहाँ जाते होंगे वो ख्वाब ...



वो नदी क्या सोचती होगी
जिसमें लहराती मिली थी धानी चुनर
उस किशोरी की
जिसने 15 की उम्र में किया था प्रेम

वो पेड़ कैसा महसूस करता होगा
जिसकी फलों और फूलों से लदी शाख पर
झूल गयी थी वो लड़की
जिसकी नाजुक कलाइयों में
गुलाबी चूड़ियाँ पहनाई थीं
इसी पेड़ के नीचे एक रोज
उसने जिसने प्रेम का नाम लेकर
निचोड़ लिया था उसकी देह को

उस पंखे को कैसा लगता होगा
जिसे ठंडी हवा देने के लिए टांगा गया था
और जिस पर झूल गयी
हरदम मुस्कुराने वाली गृहिणी
जो चौथी बार गर्भ से थी
और नहीं तैयार थी गर्भपात को

वो रेल कैसा महसूस करती होगी
मुसाफिरों को उनके ठीहे पर पहुंचाते हुए
उसके सामने फेंक दिया गया था
एक प्रेमी जोड़ा

नींद की उन गोलियों का क्या
जिन्हें सिर्फ कुछ घंटों को सोने की रियायत
थाम रखी थी अपने भीतर
और ढेर सारी गोलियां निगल कर
हमेशा के लिए सो गयी थी
बेटे के इंतजार से थक गयी बूढी माँ

क्या बातें करते होंगे पेड़, नदी, रेल,
नींद की गोलियां जब मिलते होंगे
कहाँ जाते होंगे वो ख्वाब
जो देखे जाने से पहले रौंद दिए जाते हैं.

Saturday, October 24, 2020

इस्मत चुगताई – स्मृतियों का ताना बाना


- प्रतिभा कटियार
इस्मत आपा...आपकी याद की हुड़क सी लगी है. आपको भूल पाना यूँ तो नामुमकिन है लेकिन यूँ हुड़क उठने का भी अलग ही सुख है. इस हुड़क में आपके गले लगने की मासूम ख्वाहिश भी है. कुछ शिकायतें भी हैं. आप होतीं तो जरूर मेरी यह बात सुनकर हंसती और कहतीं ‘अरे, कोई नयी बात करो लाडो, मुझसे शिकायतें तो जमाने भर को रहीं. इतनी शिकायतें की मुकदमेबाजियां भी कम न हुईं.’ और यह सुनकर मैं अपनी नन्ही शिकायतों को शायद अपनी मुठ्ठियों में कसकर बाँध लेती.

कभी-कभी लगता है कि अगर आपसे मिलती तो क्या करती? क्या बातें करते हम. जाने आप मुझे कितनी स्पेस देतीं. पहला ख़याल डर का आ रहा है कि इत्ती बड़ी लेखिका जिसके लिखे की रौशनी में दुनिया रोशन हुई उसके आगे मेरी बोलती ही बंद हो जाती. फिर मैं बात बदलते हुए पूछती, ‘आपा आप चाय पियेंगी? मैं बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ.?’ आप मुस्कुराकर पढ़ी जा रही किताब से सर उठाकर मेरी तरफ देखतीं, आपका नाक पर आया चश्मा आपके खूबसूरत चेहरे को और भी खूबसूरत बना देता उस वक्त. आप कहतीं ‘हाँ, बना लो चाय..’’ मैं सरपट रसोई में भागती. न मुझे चीनी मिलती जगह पर, न पत्ती, न भगोनी. ‘क्या हो रहा है ये सब’ मैं बुदबुदाती. ‘मैं इतनी नर्वस क्यों हूँ,’ खुद से पूछती.

प्यार है न इसलिए. प्यार भरी मुलाकातों में ऐसा होना लाज़िमी है.’ खुद को समझाती. धीरे-धीरे भगोनी, चीनी, पत्ती, अदरक, इलायची सब नजर आने लगते. ‘जी, चाय.’ चाय लेकर लौटती हूँ आप कहीं नहीं हैं. हाँ पढ़ी जा रही एक किताब है ‘अजब आज़ाद मर्द था मंटो’ और पास में रखा है एक चश्मा. आपने दो कप चाय बनवा ली और यूँ चली गयीं उठकर मैं मुस्कुराई, अब दोनों को चाय मुझे ही पीनी होगी.

23 अक्टूबर की सुबह है और देहरादून के डालनवाला वाले मेरे घर में मीठी धूप गुलाबों पर हाथ फेरते हुए मेरे करीब आकर बैठ गयी है. चुपचाप. वो देर तक चुप नहीं रहेगी जानती हूँ. सुबह की धूप, चाय और मेरी बेखयाली के किस्सों का साथ बड़ा गाढ़ा है. कुछ रोज पहले इसी जगह चाय के साथ कुर्तुल-एन-हैदर थीं. वो डालानवाला के किस्से बयान कर रही थी. और आज हैं इस्मत आपा जो चुपचाप पूरे घर में, जेहन में चहलकदमी कर रही हैं.
क्या यह 1991 की 23 अक्टूबर है? और मैं इंटरमीडिएट के इम्तिहान की तैयारियों के बीच इस्मत आपा की कहानियों को कोर्स की किताब में छुपाकर पढ़ रही हूँ? लिहाफ, चौथी का जोड़ा, बिच्छू फूपी, जवानी, हिंदुस्तान छोड़ दो, जड़े, अपना खून बेडियां, ये बच्चे पढ़ते हुए मैं इम्तिहानों की तैयारी कर रही हूँ? जिन्दगी के इम्तिहान या स्कूल के? यूँ पढ़ना है क्या आखिर? छोड़ो न ये फलसफे मुझे बस इत्ता बता दो न आपा कि आपने ‘भंगन कहीं की’ और ‘चमारों जैसी’ क्यों लिखा अपनी कहानी में. इतना ही समझ सकी हूँ कि उस वक़्त भी किस कदर हाशिये बढ़े हुए थे समाज में जातियों के रुतबे के फासलों का आर-पार न था. उसी को आइना दिखाया होगा आपने, है न?
अच्छा बताओ न आपा अफ़साने लिखते-लिखते फिल्मों में लिखने की कैसी सूझी. मजा तो आया होगा न खूब? आरज़ू, गर्म हवा, जुनून, जिद्दी, फरेब और सोने की चिड़िया फ़िल्में लिखने के अनुभवों को जानना है आपसे और एक फिल्म में अभिनय भी किया न आपने?

पता है मुझे आपकी दोस्तियों पर भी रश्क होता है. क्या मजे करते थे जब आप मंटो और कृशन चन्दर गप्प लगाते थे. जिसमें कभी राजिन्दर बेदी साहब भी आ मिलते. उन दोस्तियों की खुशबू अब तक समूचे साहित्य जगत को महका रही है. मंटो को आपने जो खत लाहौर से लिखा था न उसे पढ़ सच में आंसू आ गये थे. मंटो भी फिर मंटो ही थे जैसे कोई जिद्दी धुन.

‘मेरा दोस्त मेरा दुश्मन’ में आपने दोस्तियों के किस्से दर्ज भी तो किये. मंटो जो आपको बहन मानते थे और किसी भी हाल में जब किसी की नहीं सुनते थे तब आपकी ही सुनते थे. देवेन्द्र सत्यार्थी और कृशन चन्दर से मंटो की दोस्तियों वाली लड़ाईयां होतीं तब सिर्फ आप ही तो थीं जो मुआमले को संभालती थीं. आपने लिखा है न, ‘मैं और मंटो अगर पांच मिनट के इरादे से भी मिलते थे तो पांच घंटे का प्रोग्राम हो जाता. मंटो से बहस करके ऐसा मालूम होता जैसे जेहनी कुव्वतों पर धार रखी जा रही है. जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग में झाड़ू सी दी जा रही है...’
आपा, जैसा आपने मंटो से बात करते हुए महसूस किया न वैसा ही हमने आपको पढ़ते हुए महसूस किया. यकीनन मंटो को पढ़ते हुए भी. और आपके तमाम दोस्तों को भी. जैसे दिमाग के जले साफ़ हो रहे हों, जैसे चीरा लगाकर सड़ी-गली सोच को बहाया जा रहा हो.

एक बात बताऊँ, मंटो फिल्म में जब आप नमूदार हुईं (इस्मत की भूमिका में) तो जी चाहा कूदकर गले लग जाऊं आपसे. मुझे यह बात इतनी मजे की लगती है कि लिटरेचर के असल मानी तो आप लोगों ने ही जिए. शब्दों के शिलालेख बना-बनाकर खड़े कर देना कहाँ होता है लिखना. कैसे समाज की सडी-गली रवायतों के परखच्चे उड़ाती थी आपकी लेखनी. आज इत्ते बरस बाद जो स्त्रियों के मुद्दे समाज के मुद्दे मुख्य धार में आते-आते रह से जाते हैं अक्सर या कहीं किसी और दिशा में बहने लगते हैं. आपने तब उन मुद्दों को खींचकर सामने रख दिया. सजा दो या प्यार कोई परवाह नहीं, लिखना वही जो लिखना जरूरी था. वो जो तब की जरूरत थी और आज की भी है. समय के साथ भी समय के आगे भी नजर रखते हुए आप जिस साहस से लिखा करती थीं वह कमाल था. जीना और लिखना दो फांक नहीं रहा आपके दौर के लोगों में.

23 अक्टूबर 2020 की सुबह में आपकी याद घुली तो दिन महकता रहा. यकीन मानिए आपकी ‘ये बच्चे’ पढ़ते हुए लोटपोट हुआ जाता था मन. अभी आपके अफसानों में डुबकियाँ लगाते हुए आपसे बतकही का सिलसिला शुरू ही हुआ था कि दिन बीतने को आया. और ये क्या हुआ कि दिन बीतते-बीतते कैलेंडर ऐसे पलटा कि तारीख तो आगे बढ़ी लेकिन सन पीछे लौट गया. कैलेंडर पर 24 अक्टूबर 1991 की मनहूस तारीख लटकी हुई है.

न, मुझे अख़बार नहीं खोलना, रेडियो पर नहीं सुनना कोई न्यूज़ बुलेटिन. मुझे मानना ही नहीं कि आप जिन्दगी के तमाम मुकदमों को ख़ारिज करके जा चुकी हैं. लोग इस तारीख को पुण्यतिथि का नाम देते हैं मैं कहती हूँ स्मृति दिवस. यूँ स्मृति तो हर रोज ही साथ होती है वो तारीखों की मुन्तजिर कब होती है लेकिन कभी-कभी तारीखें स्मृति को लौ को बढ़ा देती है. यह ऐसा ही दिन है.

इस्मत आपा आपसे प्यार है, रहेगा. आपके लिखे को जिस रोज जमाना ठीक-ठीक पढ़ लेगा, समझ लेगा यकीनन तमाम मसायल हल हो जायेंगे. तमाम सवाल बदलने लगेंगे लेकिन आप तो जानती ही हैं कि पढ़ना भी एक शऊर है और अभी वो हम सब सीख ही रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे जीवन जीने का शऊर सीख रहे हैं.

Tuesday, October 20, 2020

‘पर मैं फेमिनिस्ट नहीं हूँ’

- मृदुला गर्ग 

हिंदुस्तान में फेमिनिस्ट शब्द का इस्तेमाल एक गाली की तरह किया जाता है. महिलाओं पर हो रहे अत्याचार या अनाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली धाकड़ से धाकड़ औरत यह कहती नजर आती है, ‘पर मैं फेमिनिस्ट नहीं हूँ’.

तात्पर्य यह कि फेमिनिस्ट शब्द का जो अर्थ आप लगाते हैं, उस अर्थ में फेमिनिस्ट नहीं हूँ. वह अर्थ क्या है, ठीक से कोई नहीं जानता. वैसे बुध्धिजीवी या प्रबुद्ध कहलाये जाने वाले स्त्री पुरुष, इसके तीन चार मतलब लगाते हैं. पुरुषों से घृणा करने वाली औरत. भदेस वेशभूषा में सज्जित स्त्री. मुंहफट, तेज तर्रार पश्चिम का अनुकरण करने वाली महिला. आप फेमिनिस्ट हुए बिना ये सब कुछ हों या ये सब होते हुए भी फेमिनिस्ट न हों यह बात उनके गले नहीं उतरती.और यह बात तो बिलकुल ही नहीं कि कि फेमिनिज्म का अर्थ है इतिहस और मौजूदा व्यवस्था को परखने-समझने की एक भिन्न जीवनदृष्टि या विश्वदृष्टि.तो देखें कि आखिर हमारे अपने माहौल में फेमिनिस्ट किस शै का नाम है.

मैं समझती हूँ कि फेमिनिज्म का मतलब नारी मुक्ति नहीं, सोच की मुक्ति है. अगर स्त्री मौजूदा राजनितिक आर्थिक नीति और इतिहास को उन मानदंडों के अनुसार परख सकती है, जो उसने खुद ईजाद किये हैं तो वह फेमिनिस्ट है. जरूरी नहीं है कि दुनिया को स्त्री के नजरिये से देखने का काम स्त्री ही करे. पुरुष भी कर सकता है, यानी पुरुष भी फेमिनिस्ट हो सकता है. और यह भी हो सकता है कि पुरुष से हर तरह बराबरी करने वाली महिला फेमिनिस्ट न हो.

मध्य वर्ग की शिक्षित महिलायें पुरुषों के साथ पुरुष बहुल क्षेत्रों में पुरुषों द्वारा मान्यता प्राप्त मूल्यों के अनुरूप काम करने से नहीं डरतीं. वे डरती हैं मुक्त चिन्तन से. नए मूल्यों की स्थापना से. पारम्परिक सोच के सहारे को छोड़कर उन्मुक्त खड़े होने से.

मैं फेमिनिस्ट नहीं हूँ कहने की बजाय अगर हमारी प्रबुद्ध महिलाएं यह कहें कि ‘हाँ मैं फेमिनिस्ट हूँ पर देसी’ तो बेहतर होगा. उसका मतलब होगा कि उनकी दिलचस्पी कामकाजी औरतों में, पर्यावरण में भागीदारी सीखने में, देश की नीति में परिवर्तन लाने में है, जो पर्यावरण का स्थायी और संतुलित रूप से रहने पोषण कर सकें.

मैं समझती हूँ, फेमिनिस्ट होने को नारी मुक्ति के रूप में न देखकर नारी दृष्टि के रूप में देखना चाहिए.

(सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'चुकते नहीं सवाल' के एक आलेख देसी फेमिनिस्ट के कुछ फुटकर अंश...)

Tuesday, October 13, 2020

कोपलों की स्मृति



ये जो झरे हैं पेड़ों से
ये जिए जा चुके लम्हे हैं
इनमें कोपलों की स्मृति है
बारिश में झूमने के पलों की
महक है
इनमें पंछियों की
शरारतों का किस्सा है
इनके पीलेपन में बाकी हैं
जी जा चुकी हरियाली के निशान
इनमें जिन्दगी की पूरी दास्तान है....

Saturday, October 10, 2020

कि तुमसे प्यार है...



1 अक्टूबर दोपहर दो बजे(ऑफिस)

कैसे कहूँ गुलनार से कि शुक्रगुजार हूँ उसकी खुशबू के लिए...पाब्लो नेरुदा
जो कहा नहीं जाता वो कितना ज्यादा कहा जाता है न प्रिय. तुमसे बात करती हूँ तब शायद बोलती या सुनती भर हूँ लेकिन...जब बात खत्म करके फोन रख चुके होते हैं उसके बाद शुरू होता है असल बातचीत का सिलसिला. मेरे जेहन में इस वक्त उन महकते संवादों की खुशबू है. तुमने कहा कि कुछ लिखूं तुम्हारे लिए...वो कुछ क्या हो भला. ऐसा क्या लिख पाऊंगी कभी कि अपना पूरा का पूरा महसूसना पिरो कर शब्दों में भेज सकूँ तुम्हें तोहफे में. आज अभी इस वक्त दफ्तर में लंच ब्रेक में सुनते हुए फायाकुन पढ़ते हुए पाब्लो नेरूदा और देखते हुए खूबसूरत पहाड़ डुबकियाँ लगाते हुए अपने भीतर की नदी में तुम्हारा ख्याल साथ है. यूँ ही अचानक पाब्लो नेरूदा करीब आ बैठे हैं उन्हीं सवालों के साथ जिन सवालों की गठरी लिए हम सब फिर रहे हैं.

यह किताब सवालों की बाबत है. रेयाज उल हक ने बहुत मीठा सा अनुवाद किया है इन सवालों का. हर सवाल कविता सा है. हर कविता किसी सवाल सी. लहरें मुझसे वही सवाल क्यों करती हैं जो मैं उनसे करता हूँ...सोचो न रैना तुम्हारे मुझसे किये जाने वाले सवालों की बाबत भी नहीं है यह बात. तुम्हारा हर सवाल मेरा भी सवाल तो है और उन सवालों के जवाब देने की मेरी असफल कच्ची सी कोशिश मुझे हमेशा शर्मिंदगी से भर देती है. लेकिन एक रौशनी सी उगती है. तुम्हारे सवालों की रौशनी.

बेचैन होना जीने की तलब होना ही तो है. सवालों का होना जो है उसे वैसा का वैसा स्वीकार न करने जैसा ही तो है. कुछ अपने हिसाब से, अपने लिए अपने मन के लम्हों को जी लेने की बेचैनी कमाने में सदियाँ लगाई हैं हमने. कीमत भी चुकाई है. चुका ही रहे हैं. 

जैसे जैसे बढ़ते हैं हम उम्र में नहीं मनुष्य होने की ओर सवाल बढ़ते हैं. सवाल ज्यादा शार्प होते हैं. और इ वक्त के बाद हमें सवालों के जवाब का इंतजार भी नहीं रहता बस हम खुश हो जाते हैं अपने भीतर के सवालों से मिलत जुलती शक्ल वाले सवालों से मिलकर.

तुमने कभी दो सवालों को गले लगकर रोते हुए देखा है? इस वक्त काश तुम मुझे देख पाती. पाब्लो नेरूदा के सवालों की किताब पढ़ती जा रही हूँ और अपने सवालों की खुशबू में डूबती जा रही हूँ. इस वक्त मेरे लैपटॉप पर प्यारा सा गुलाबी फूल रखा मुस्कुरा रहा है. वो तुम्हें याद कर रहा है. ये फूल मुझे घास के भीतर उगी किसी जंगली बेल में लगा मिला. पास में कुछ पीले और बैंगनी फूल भी खिले हुए थे. लोग इन फूलों को देखते तक नहीं लेकिन ह=इन फूलों ने मुझे रोक लिया. देर तक गुलाबी, पीले और बैंगनी फूलों से बात करती रही. बैंगनी जब झरता होगा तो क्या फिर से बैंगनी होकर उगता होगा. या वो गुलाबी हो जाता होगा. ये बेहद मामूली से जंगली फूल जो अक्सर अनजाने पांवों तले कुचल दिए जाते हैं, जो कभी पूजा के लिए तोड़े नहीं जाते, जिन्हें बच्चे तोडकर अपनी स्कूल की मैडम के लिए नहीं ले जाते वो क्या सोचते होंगे गुलाब. मोगरे, रजनीगन्धा के बारे में? मेरे बालों में इस वक़्त फूलों की कोई कतार खिल उठी है. वो कतार तुम्हें याद करती है.

प्यारी रैना, उदास बदरियों से घिरे दिनों में तुम्हारा होना मेरे लिए क्या था यह मैं कभी बता नहीं सकूंगी तुम्हें. बस कि उन अँधेरे दिनों में तुम रौशनी सी थीं. उदास दिनों में बहुत पानी होता है वो हमेशा जीवन को भिगोये रखता है.

2 अक्टूबर रात 9 बजे (घर- मेरा कमरा)


कल अचानक संवाद टूट गया था. कोई काम आ गया था दफ्तर में. आज छुट्टी थी. दिन भर सोने और किताबें पलटने में बीता. जानती हो इन दिनों एक अजीब सी मनस्थिति है. शब्दहीनता की. यह बहुत आकर्षित कर रही है. बाहर का बोलना तो कम हो ही गया था इन दिनों महसूस कर पाती हूँ कि भीतर के संवाद भी घटे हैं. एक आधी पीली और आधी हरी पत्ती को टहनी पर टंगे हुए घंटों देख सकती हूँ. देखती रहती हूँ. चलना बढ़ा है. भीतर की ओर का चलना. आज इस भीतर की ओर चलने में मैं बेहद खूबसूरत, बेहद आकर्षक पीले फूलों से भरे रास्ते से गुजरी. गुजरते हुए मैं फूलों पर पाँव न पड़ जाए की कोशिश में एक नृत्य की सी मुद्रा में आने लगी थी. मुझे बहुत हंसी आई. तभी मैंने महसूस किया कि कुछ पीले फूल मेरे काँधे पर भी आ बैठे हैं, कुछ सर पर. कुछ फूल मुझ पर बरस रहे हैं कुछ फूल मुझसे बरस रहे हैं. रौशनी की कोई लकीर उस रास्ते को देदीप्यमान कर रही थी. सब कुछ इतना सुखद था कि मेरी आँखें छलक उठीं.

जब हम भीतर की यात्रा पर निकलना सीखने लगते हैं बाहर के रास्ते और विशाल और खूबसूरत होने लगते हैं.रास्तों का होना जीवन का होना है. इन रास्तों पर भटकते हुए सही रास्तों तक पहुँचने की कोशिश जीवन यात्रा है. तुमने अपने मन के कुछ सवालों की बाबत पूछा था. मैं क्या बताऊँ, मैं खुद साईं सवालों की तलाश में हूँ. जो मैं करती हूँ वो तुमसे साझा करती हूँ एक दोस्त की तरह, कि मैं अपने सवालों को घुमा घुमा के देखती हूँ हर तरफ से घुमा के. फिर उसे किनारे रख देती हूँ. फिर दुसरे सवाल को उठाती हूँ. फिर उसे भी रख देती हूँ. फिर सवाल खत्म हो जाते हैं और मैं बहुत हल्का महसूस करने लगती हूँ. ऐसा लगता है सवालों को अपने लिए जवाब नहीं वक्त चाहिये. हर सवाल चाहता है उसके साथ थोडा वक़्त बिताओ. वक्त बिताते ही वो शांत हो जाता है. हम अपने सवालों को वक़्त नहीं देते. उनके बारे में बात करते हैं उनसे बात नहीं करते. मैंने इस प्रक्रिया में बहुत सारे दिक् करने वाले सवालों को मुस्कुराते हुए देखा है. बहुत से सवालों को पीले फूलों में बदलते देखा है. सवालों से बात करने से हम समझ पाते हैं कि जिस सवाल को इतना भाव दिए जा रहे थे वो तो बहुत नन्ही सी बात थी ठीक से सवाल बना भी नहीं था वो.

इस बाबत मैं तुम्हें वो किताब जरूर भेजूंगी सवालों की किताब. पाब्लो नेरुदा की कवितायेँ हैं वो. लेकिन तुम उसे कविता की तरह नहीं अपने मन की तरह पढ़ोगी. हर पंक्ति को पढ़ते हुए तुम्हे लगेगा अरे ये तो मेरी ही बात है.

शब्दहीनता का जादू मुझे पुकार रहा है. मेज पर रखे ढेर सारे शब्दों को समेट दिया है. तुम मेरे पास हो...मुस्कुरातो हुई.

3 अक्टूबर रात 9 बजे
अगर शब्दों को खंगालते हुए उँगलियाँ गीली मिट्टी से टकरा जाएँ या जड़ों में उलझ जाए अंगूठी तो समझ लेना चाहिए कि लेखक ने बड़े सुभीते से बोये थे बीज. उदासी के बादलों ने ठीकठाक बारिश की और उम्मीद की धूप ने अच्छे से सहेजा शब्द बीजों को. कि पाठकों के दिल में उतरने की उनके जेहन को उथल पुथल से भर देने में समर्थ होगी यह फसल और कुछ हद तक मिटा पाएगी ज़ेहनी भूख.

बिलकुल ऐसा ही महसूस हो रहा है इन दिनों 'सवालों की किताब' से गुजरते हुए. पन्ना दर पन्ना सवाल खुलते हैं, खुलते ही जाते हैं. पाब्लो नेरुदा को पढना यूँ भला किसी अच्छा न लगता होगा लेकिन उनका यह सवालिया ढब अलग ही ढंग से असर करता है. दिल के, ज़ेहन के तमाम कोनों की तलाशी लेती ये कवितायें हमारे भीतर के जन्मे-अजन्मे तमाम सवालों को सामने लाकर पटक देती हैं...और हम खुद को खाली होता महसूस करते हैं...

किताब गार्गी प्रकाशन से 2018 में आई है और सुंदर अनुवाद किया है रेयाज-उल-हक ने. मैं तुम्हें यह किताब भेजना चाहती हूँ. मैं तुम्हें और भी बहुत सी किताबें भेजना चाहती हूँ. वो चाहने की इच्छा और पहुँच जाने के सुख के बीच कहीं अटकी हुई हैं. निकलेंगी जरूर...तब तक किताब के कुछ अंश देखो तो.

बारिश में भीगती हुई ट्रेन से भी उदास
क्या कुछ है इस दुनिया में?
पत्तियां जब पीला महसूस करती हैं
तब क्यों कर लेती हैं वो खुदकुशी?
जो आंसू अभी बहे न हों
क्या वे एक छोटी सी झील का इंतजार करते हैं?
क्या यह सच है कि मंडराता है रातों में
मेरे मुल्क पर एक काला गिध्ध?
शायद शर्म से मर जाती होंगी
अपनी राह भूल गयी रेलें?
क्या ये सच है कि उदासी गाढ़ी होती है
और नाउम्मीदी पतली?
धरती से क्या सीखते हैं पेड़
कि कर सकें आसमान से बातें?
कौन है सबसे ज्यादा बदनसीब, जो इंतजार करता है
या जिसने नहीं किया कभी किसी का इंतजार?
किन सितारों से बातें करती हैं वो नदिया
जो नहीं पहुँच पातीं समन्दर तक?
(यह तुम्हारे नाम का ख़त ही है जो सार्वजनिक किया. जिसका मकसद सिर्फ इतना था कि इसे पढ़ते हुए जो सुख मुझे महसूस हुआ ई उसे खूब सारे दोस्तों से बाँट सकूँ.)

4 अक्टूबर सुबह 10 बजे 

आज इतवार वाली सुबह है. इतवार वाली रात में और सुबह में एक अलग सा आलस घुला होता है जिसमें राहत की मात्र थोड़ी बढ़ी होती है. सुबह नौ बजे सोकर उठी हूँ. थोड़ा सा योग करने के बाद चाय पीते हुए तुमसे बातें कर रही हूँ. मेरे लगाये तमाम पौधे जब मुस्कुराते हैं तो ऐसा लगता है जी लूं हूँ थोड़ा सा और. सुबह सबसे पीला ये पौधे ही मुझे गुड मॉर्निंग कहते हैं. पता है मेरे मन में इन्हें देखकर वात्सल्य भाव आता है. छोटे से थे जब आये थे अब देखो कैसे हाथ पाँव फैला कर ढेर सारी जगह बटोर रहे हैं. जूही और हरसिंगार में होड़ है जल्दी बढ़ने की. दोनों आपस में उलझते भी रहते हैं. इसकी शाख उसमें उसकी इसमें. मजेदार है यह दृश्य. पीली चोंच वाली चिड़िया जूही के करीब बैठी है मुझे मालूम है हरसिंगार को जलन हो रही होगी. सोच रही हूँ मधुमालती भी ले आऊँ. थोड़ी और शरारतें बढ़ें.

देखो न रैना, जीवन कितना सुंदर है. और हम इसे देख ही नहीं पाते. हमारे प्रश्न जीवन की इस सुन्दरता के सम्मुख कितने बौने हैं. तब नेरुदा की बात कितनी सही लगती है कि पेड़ धरती से कैसे सीखते होंगे आकाश से बातें करना? सवाल कैसे होने चाहिए और हमारे सवाल कैसे हैं...इसके बीच एक अन्तराल है. हमें इस अन्तराल को भरना सीखना होगा. अपने जीवन को अपने जन्म से अलग करके देखना होगा. हमारे जन्म में हमारी कोई भूमिका नहीं, न हमारी शक्ल, रंग या उस जात्ति कुल धर्म आदि में जिसका अभिमान या क्षुद्रता का बोध हमारे जीवन को ढंक लेता है. जबकि जीवन जन्म से एकदम अलग है. हमारा जीवन हमारा है हम उसे वैसा ही जी सकते हैं जैसा हम उसे जीना चाहते हैं लेकिन समाज की संरचना ऐसा कभी नहीं होने देना चाहती. समाज की संरचना चाहती है कि हम दुनियावी निरर्थक सवालों में उलझे रहे हैं. असल में हम सवालों में उलझे ही अहिं दी गयी भूमिकाओं. (दी गयी, हालाँकि हमें यह भ्रम होता है कि यह भूमिकाएं हमने चुनी हैं) को निभाते हुए सुखी रहें. 

रैना मेरे मन में बहुत से सवाल हैं, बहुत से. लेकिन उन सवालों पर फिर कभी बात करूंगी. अभी तो सिर्फ इतना ही कि अपने जन्मदिन को अपने जन्म का दिन बनाओ और केक काटने, गिफ्ट लेने के बाद सोचो कि कैसे इस जन्म को जीवन बनाया जाए. पति, परिवार, नौकरी शाम की चाय, टीवी, पार्टी समारोह, सजना संवरना, खुश होना या खुश दिखना यह भूमिकाएं हैं जीवन नहीं. जीवन कहीं और है, जीवन कुछ और है. मैं कामना करती हूँ कि तुम नए सवालों से भर जाओ. जीवन को ढूंढना शुरू करो. जीवन मिले न मिले लेकिन इस ढूँढने में तुम्हें सुख होगा. थोड़ी बेचैनी भी होगी, लेकिन भूमिकाओं में कैद होने पर जो बेचैनी थी यह उससे अलग होगी.

खुश रहो.

6 अक्टूबर दोपहर 1 बजे ऑफिस में
इस वक़्त मेरी टेबल पर तीन किताबें रखी हैं. पीछे पीले फूल खिले हैं. कचनार के पेड़ अभी पौधे ही हैं. लेकिन मैं उनकी शाखों पर गुलाबी फूलों के गुच्छे अभी से देख पा रही हूँ. कभी कभी लगता है वो फूल मेरे बालों में आकर टंक गये हों. फिर ध्यान आता है कि बालों में मुस्कुरा रहा है एक छोटा सा पीला फूल. 

मुझे फूलों को देखते रहने से सुंदर कुछ नहीं लगता. यहाँ फूलों को विस्तार में समझना. इस विस्तार में दूब घास से लेकर दिन में रात का सा भान देने वाले जंगल भी शामिल हैं. ये सब लिखते हुए ऐसा नहीं कि मैं तुम्हारी उन अनकही समस्याओं के बारे में जानती नहीं, या उन पर बात करना नहीं चाहती. लेकिन हाल ही में मैंने यह जाना है कि बात करने से कुछ नहीं होता. कहना और सुनना बात करना नहीं होता. लिखना और उसे पढना भी बात करना नहीं होता. बात होती है जब हम तमाम आवाजों से पीछा छुडा पाते हैं. आवाजों का अर्थ शब्द नहीं. यह मैं पहले भी कह चुकी हूँ. फिर फिर कहूँगी. शब्दहीनता एक जादू है. मौन में सुख है. समस्या कहाँ है जब तक वो देह तक छूकर गुजर रही है. देह से होकर गुजरती यातनाओं का जिक्र सिहरन से भर देता है. हम आँखें नहीं बंद कर सकते, जातीयता दीमक की तरह लगी है मनुष्यता में. नफरत, हिंसा, क्रूरता और उसमें सुख ढूँढने वालों को कैसे कोई इन्सान कह सकता है. हम इतना तो कर ही सकते हैं कि खुद को उस तूफानी रेले में अंधड़ में फंसने से बचा सकें. अपने बच्चों को एक ऐसा कल दें जिसमें जाति धर्म नहीं प्रेम, संवेदना पहचान बने.

क्या हो अगर कोई जादू हो और हम सब अपने अपने धर्म और जाति भूल जाएँ....सोचो?

अभी यहीं रोकती हूँ. कल इस खत को पोस्ट करूंगी इस उम्मीद में कि यह पहुंचेगा तुम तक समय पर. कबूतर होता तो उसके पाँव में बाँध कर उड़ा देती. उसके पाँव में घुँघरू भी बाँध देती. छम छम करके पहुँचती यह चिठ्ठी तुम तक.
खूब खुश रहा करो....तुम्हारी मुस्कुराहट प्यारी है. तुम भी.

प्यार

10 अक्टूबर दोपहर 12 बजे छुट्टी के दिन घर में 
मेरी प्यारी सी रैना जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो. तुम्हारी प्यारी सी मुस्कान पूरी दुनिया को रोशन करती रहे. तुम्हारा गिफ्ट भेजा जा चुका है. या पहुँच गया होगा या पहुँचने वाला होगा. तुम्हारे लिए पात्र लिखना मेरे लिए बहुत सुख रहा. जैसे हम दोनों गार्डन में टहलते हुए बात कर रहे हों या साथ में उतरती शाम को देखते हुए चाय पी रहे हों. तुम्हारे लिए कायनात की सारी खुशियों को पैक करके कूरियर करने का मन है. मुझे प्रकृति जिस रूप में है उसी रूप में बहुत पसंद है इसलिए आज के दिन इस धरती पर खिले सारे फूल तुम्हारे...हमेशा महकती रहो, खुशियों से छलकती रहो. मन नर्म है तुम्हारा थोड़ी ज्यादा केयर करना इसका.
बहुत ढेर सारा प्यारा
प्रतिभा 

Friday, October 9, 2020

लिखन बैठी जाकी छवि: कुछ भाव

- कंवलजीत कौर 

Hello Pratibha, 

मुझे चाव से मारीना की जीवनी पढ़ते देख कर हम्माद ने कहा इस पर कुछ लिख दो ,लिख दिया तो कहने लगे आप को भेज दूं सो भेज रही हूं अब आगे जैसा आप ठीक समझे , आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा । स्नेह और सम्मान के साथ -कंवल

1974 के एक टीवी इंटरव्यू में सोल्जेनितिसन ने मारीना को बीसवीं सदी के महान कवियों में शुमार किया है . मैंने मारीना को पहली बार पढ़ा और फ़िर देर तक अफ़सोस रहा कि अब तक क्यों न पढ़ा। डॉ . इंद्रजीत जी से प्रतिभा कटियार द्वारा लिखित मारीना की जीवनी उपहार में मिली यूँ ही पेज पलटा तो नज़र वहीं ठहर गई. लिखा था - " मेरे सामने समंदर है, मेरी आँखों में समंदर है , मैं दूर तक समंदर को देखती हूँ लेकिन महसूस करती हूँ कि नहीं ये मैं नहीं हूँ. समंदर की लहर हो जाना चाहती हूँ. क्यों यह संभव नहीं हो सकता ." 

थोड़ा और आगे बढ़ी तो लेखिका की स्वीकारोक्ति थी कि वह पापा के किताबों के खजाने से -'मारीना त्स्वेतायेवा : डायरी कुछ खत कुछ कविताएं ' कवर पर बनी मारीना की तस्वीर के आकर्षण में उसे अपनी फ्रॉक में छुपा कर ले आती हैं उस किताब का संग-साथ और आकर्षण ही उनकी इस किताब के सृजन का आधार बना .और जब मैंने जीवनी को पूरा पढ़ डाला तो यकीन हो गया कि लेखिका मारीना को अपना पहला प्यार क्यों मानती हैं.

हाँ, इस किताब को मैंने फ्रॉक में तो नहीं दिल में छुपा लिया. जिसे मैं निर्धन के धन की तरह धीरे-धीरे पलट-पलट कर पढ़ती और यूँ मारीना मेरे साथ मेरे घर में रहने लगी और गाहे-बगाहे मुझे निर्देशित भी करने लगी. लेखक की जीवनी पढ़ना यानी अपने अन्य प्रिय लेखकों के बारे में भी पढ़ना, उनको उनके लेखन के अतिरिक्त जानना -गोर्की , ब्लोक, रिल्के, पास्तरनाक , अख़्मातोव , मायकोवस्की, बूनिन. उन सब को एक ही पुस्तक की छत तले मिलना कितना अद्भुत है ! मारीना के जीवन को चार शब्दों में व्यक्त करना चाहूं तो वो शब्द , समंदर , प्रेम और कविता हैं. पर बचपन से ही उसमें मृत्यु के प्रति अदम्य आकर्षण का भाव है सम्भवतः इस का मुख्य कारण बचपन में ही माँ और सौतेले भाई की क्षय रोग से मृत्यु और पति का क्षय रोग से ग्रस्त होना था . वो अपने संस्मरणों में बार - बार मृत्यु की कल्पना करती है एक जगह वो लिखती हैं - " मैं चाहती हूँ की मुझे तारूसा के पुराने कब्रगाह में फूलों की झाड़ियों के नीचे दफनाया जाए ........ जहां सबसे मीठी स्ट्राबेरी फलती रहे ."
सुख के चरम पर ही वो मर जाना चाहती है ' गिव मी डेथ एट सेवेन्टीन ' में वो लिखती हैं -
आपने मुझे यादगार बचपन दिया
अब मैं चाहती हूँ मृत्यु
अपने सत्रहवें जन्मदिन पर .
कुछ और उदाहरण देखिये -
जीवन और मृत्यु की छुअन से जन्मी मेरी कविताएं
जो कब्रों में सोये हैं क्या वो सचमुच मर चुके हैं और जो कब्रों से बाहर हैं , क्या वो सचमुच जिन्दा हैं .
वो अपनी मृत्यु की कल्पना करती है और कहती है - मुझे अभी भी लगता है कि जब मैं मर रही हूँगी तो वह मेरे पास आएगा. (रिल्के)
मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं मर रही हूँ . एक दिन मैं खत्म हो जाउंगी और कोई मुझे नहीं ढूंढेगा. न ढूंढ पायेगा .
हो सकता है कई बरसों बाद कोई बेहतर कल हो लेकिन तब मैं नहीं रहूंगी.
इस जगह पर मुझे महसूस होता है जैसे कि मैं हूँ या नहीं हूँ. और फिर 31अगस्त 1941 के एक पहर हुआ यूँ कि ज़िंदगी के एक-एक लम्हे के लिए लड़ने वाली , जीवन और कविता में गहरी आसक्ति रखने वाली, कविताएं जिसके लिए जीवन का एक उत्सव थीं वो मरीना जीवन की दुश्वारियों के आगे हताश हो घुटने टेक देती है स्वयं को सब चिंताओं से मुक्त कर आगे बढ़ स्वयं मृत्यु का वरण करती है , पर अपने वतन की मिटटी में दफ़न होने को दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं होती किसी अनजान- अपरचित जगह में दफ़ना दी जाती है पर- 'तारूसा के कब्रगाह में नहीं जहां मीठी स्ट्राबेरी फलती हो ' बल्कि येलबुगा की किसी अनाम कब्रगाह मैं जिस के निशां उनकी बहन अनस्तासिया भी नहीं खोज पाई .


शब्दों की डोर से बंधी मारीना , शब्दों का जादू उसे छोटी उम्र में ही लुभाने लगा था उनकी बहन अनस्तासिया लिखती हैं -' उसके लिखे हुए को पढ़ना संगीत सुनने जैसा मालूम होता था .' जीवनी में एक पूरा युग धड़कता है. 
पढ़ी गई किताब कभी खत्म नहीं होती वो आपके व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाती है जो कई बार कई और दरीचे खोल देती है. मारीना को इतिहास व साहित्य से प्रेम था . उसके कमरे की दीवारों पर नेपोलियन की तस्वीरें लगी होती थीं जिसे वो अपने सपनों में देखती थी वो नेपोलियन के प्रेम में थी इसीलिए उसे पेरिस लुभाता था . पुश्किन की ' टू द सी' कविता पढ़कर उनकी कविताओं के सम्मोहन में बंधी मारीना का समंदर से एक रिश्ता जुड़ गया गया जो ताउम्र बना रहा . जिसे चाहती पूरे मन से चाहती वो प्रेम के समंदर से लबालब भरी थी उसके जीवन में 7 - 8 बार प्रेम ने दस्तक दी अपने पूरे वेग और रचनात्मकता के साथ वो सफर निलेन्द्र , सेर्गेई, कवि आसिप मांदेलश्ताम , निकोदिम , सेर्गेई वोलकोस्की , रिल्के , पास्तरनाक. पर इन सब के बावजूद मारीना ने जीवन के अंतिम क्षण तक सबसे अधिक अपने पति को प्रेम किया . मारीना अपनी कविता मैं लिखती है -
चुनौती की तरह
स्वीकार की मैंने उसकी अंगूठी
मैं पत्नी हूँ उसकी
सदा - सदा के लिए
पर रिल्के और पास्तरनाक के प्रति उसके प्रेम और दीवानगी को क्या नाम दूँ जिनसे वो कभी मिली ही नहीं , एक अपरिभाषित सा ,प्लुटोनिक रिश्ता हाँ मृत्यु से पूर्व पास्तरनाक से एक मुलाकात का ज़िक्र मिलता है . रिल्के मारीना के पहले पत्र का कितना खूबसूरत जवाब देते हैं - " मारीना त्स्वेतायेवा .... क्या सचमुच तुम हो ? क्या तुम यहां नहीं हो ? अगर तुम यहां हो तो मैं कहाँ हूँ ? "

बक़ौल लेखिका मारीना अंत तक रिल्के के एक - एक शब्द से प्रेम करती रही . रिल्के की मृत्यु के बाद 1930 में उसने एक जगह रिल्के को लेकर लिखा है - ' मुझे अभी भी यही लगता है जब मैं मर रही हूँगी तो वह मेरे पास आएगा, वह मेरा अनुवाद करेगा .'
मारीना लम्बे लम्बे ख़त लिखा करती थी 1922 में उसने पास्तरनाक को लिखा - , संवाद करने के लिए मेरे पास दो ही तरीके हैं एक ख्वाब में बात करना और दूसरा ख़त लिखना और जिन लोगों से उसने सपने में मुलाकात की उनमें सबसे ख़ास थे पास्तरनाक . वह अपने बेटे मूर को बोरिस पास्तरनाक के सम्मान में बोरिस के नाम से बुलाना चाहती थी , पर पति ने मना कर दिया . पास्तरनाक के बारे में लिखते हुए कहती हैं - ' मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए जिसे थाम कर मैं पूरी दुनिया को जी सकूँ .' उसके जीवन का एक दौर वह भी था जब उसका समस्त जीवन रिल्के और पास्तरनाक के इर्दगिर्द ही सिमट आया था. वो जब जिसके प्रेम में थी पूरी ईमानदारी से थी उनपर कभी पर्दादारी नहीं की उन पर लिखी कविताओं को जीवन और काव्य संग्राहों में शामिल किया .

मारीना की ज़िंदगी की स्लेट पर कोई सीधी रेखा थी ही नहीं सारा जीवन उतार चढ़ाव व संघर्ष से भरा रहा कविताओं की फ़ाख़्ता के पंख युद्ध, वर्षों पति का लापता होना, भूख, गरीबी, अभावों,अपनों को खो देने की असहनीय पीड़ा से झुलसते रहे पर कविता लेखन नहीं रुका वो प्राण पाती है उनसे न लिख पाने की पीड़ा उसे त्रस्त करती है . कई रातें, महीने उसने जागते काटे हैं अपनी पीड़ा को वह रिल्के को लिखे ख़त में साझा करती लिखती है - 'राइनेर, तुम्हें पता है, मैं सदियों से जाग रही हूँ . मानो नींद का और मेरा कोई रिश्ता ही न हो . बंद आँखों में भी जागती रहती हूँ. जाने क्यों लगता है राइनेर कि तुमसे मिलूंगी तो सदियों की नींद को ठिकाना मिलेगा . तुम्हारे कंधों पर अपन उम्र , अपना अकेलापन सब टिका दूंगी. तुम संभाल लोगे न सब , मेरे प्यारे राइनेर.बस मुझे वहीं सुला लेना .' इस पत्र का जवाब तो नहीं आता. पर ताबूत की आख़िरी कील सी रिल्के की मौत की ख़बर उस तक पहुंचती है इस दुःख से वह कभी उबर नहीं पाई .

मारीना एक समृद्ध और शिक्षित परिवार में जन्मी थी, पर फिर भी कैसा तक़लीफ़देह जीवन , निर्वासन , जगह - जगह भटकना, अनाथालय में छोटी बेटी की भूख से मृत्यु , खुद खाने को मोहताज़ ,फ़टे कपड़ों, नंगे पावों का बदहाल उनींदा सफ़र , एक भटकाव भरी दुखद जीवनयात्रा , उम्र भर एक सुरक्षित घर और छत की तलाश में भटकती रही . ये सब तब था जब सब मारीना के नाम और काम से परिचित थे , वह उस वक़्त के प्रतिष्ठित लोगों को जानती थी बहुत से दोस्तों ने सहायता भी की पर वो नाकाफ़ी थी . दूसरे विश्वयुद्ध में स्टालिन के दौर के असामान्य हालात में बरसों बाद मास्को लौटना भी उसकी दुश्वारियों को कम न कर सका ,ज़िंदगी ने हर कदम पर मारीना के कदमों और हौसलों की मजबूती नापी है 1939 में वह देश तो लौट आई पर ज़िंदगी को उस पर रहम नहीं आया इसी बीच मास्को को भी खाली करने के हालात पैदा होने पर वह एक और निर्वासन झेलने को अभिशप्त हो बेटे मूर के साथ येलबुगा पहुंचती है. भूख , गरीबी , संघर्ष और उस पर न लिख पाने की पीड़ा उसका हर कदम मानो मौत की तरफ़ बढ़ रहा था , उसकी खूबसूरत उदास आँखों में एक गहरे डर का भाव था ,अंत में हर पल अपने बेटे मूर का हाथ मजबूती से थामे रहने वाली मारीना ज़िंदगी का ही साथ छोड़ मौत के हाथों को थाम लेती है. मारीना का सारा जीवन खुली किताब सा है जो उसके उस दौर में लिखे गए लम्बे ख़तों , डायरी और कविताओं में झलकता है उसकी कविताएं मानो उसके जीवन का अक़्स हैं ।

ताज्जुब और फ़ख्र होता है लेखिका के हौसलों पर सच है प्यार की शिद्द्त जो न करवा दे, मारीना का बिखरा- उलझा जीवन जीवनी के रूप में हमारे सामने है जिसमें दोनों का एक रिश्ता सा बन जाता है पाठकों को हर अध्याय के अंत में आए बुकमार्क के पड़ाव का इंतज़ार सा रहता है जिसमें लेखिका और मारीना के बीच के सदियों के फ़ासले सिमट जाते हैं और अपनेपन का एक रिश्ता सा बन जाता है. हमारे सामने बीता वक़्त और मारीना की पूरी जीवन-यात्रा उभर आती है आरम्भ से अंत तक . मारीना का बचपन , युवावस्था , निर्वासन , मास्को वापसी से पुनः निर्वासन की पीड़ा येलबुगा की ओर , हताश जीवन के अंतिम लम्हे से मारीना के जीवन की मास्को में पुनर्स्थापना तक.
मारीना के जीवन को समेटने , उनकी कविताओं, गद्य , पत्रों के चयन में लेखिका की मेहनत स्पष्ट झलकती है सबको मानो एक सूत्र में पिरो दिया है . मारीना ने लम्बे ख़त और कविताएं लिखीं जिनको यहां लिखना सम्भव नहीं उसके लिए तो आपको जीवनी पढ़नी ही पड़ेगी . कविताओं और पत्रों की कुछ सतरें जो याद रहीं -
निंदा नहीं कर सकोगे तुम मेरी
होठों के लिए पानी है मेरा नाम .
जीवन और मृत्यु की छुअन से जन्मी मेरी कविताएं दरअसल मेरा न पढ़ा गया जीवन है .
मेरी कविताएं संभाल कर रखी गई सुरा की तरह हैं मैं जानती हूँ कि इनका भी वक़्त आएगा .
क्या करूं मैं अपने असीम का
सीमाओं के इस संसार में .
तुम्हारी आवाज़ किसी स्पर्श सी लगती है .
हर वह जगह, जहां इंसान को इंसान के तौर पर नहीं देखा जाता, वर्गों-नस्लों में बांट कर देखा जाता है, मेरे लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है .
जीवन जिया मैंने
जीवन जिया मैंने
कहूंगी नहीं यह मरते हुए .
यह वक़्त है मखमली बिछावन छोड़ने का
यह वक़्त है नए शब्दों को ढूँढने का
यह वक्त है नए दियों को फूंकने का
जीवन से दूर निकल जाने का .
अंत में एक बात, एक प्रश्न, एक शंका मन में उठती है कि मारीना के एकाधिक प्रेम प्रसंगों पर उनके पति की क्या प्रतिक्रिया रही लेखिका इस पर ख़ामोश क्यों रहीं, जीवनी पढ़ते हुए जब ठहर कर सोचने लगते हैं तो महसूस होता है कि मारीना अपनी निजी अंतरंग संसार में इतनी खोई है कि उसका अपने समाज और परिवेश से कोई जैविक नाता ही नहीं बन पाता. समाज की विसंगतियों, लोगों से उनके रिश्तों की कोई स्पष्ट तस्वीर भी नहीं उभरती.
संवेदनशील कवियत्री अपने समय की हलचलों और सामाजिक परिस्थितियों से निरपेक्ष कैसे रह सकती है उसकी तकलीफ़ों ,परेशानियों ,अभावों ,काली रातों का ज़िक्र है पर जिस क्रांति ,विश्वयुद्ध की वजह से एकाधिक बार निर्वासन झेलना पड़ा इस पर एक संवेदनशील कवयित्री तटस्थ,निरपेक्ष, ख़ामोश कैसे रह सकती है !! ये पक्ष भी उजागर होता तो उन की ज़िंदगी की एक मुक़्क़मल तस्वीर और समग्र जीवनगाथा उभर कर सामने आती. अगर प्रतिभा कटियार की नज़र इस तरफ़ भी गई होती तो हमारे सामने मारीना की ज़िंदगी का एक ओझल हिस्सा भी उसी शिद्द्त से सामने आता जैसे वॉनगॉग, दोस्तोवस्की, मुक्तिबोध की कई जीवनियां हैं. किताब में मारीना के जीवन से संबंधित कुछ चित्र भी होते तो उसकी दस्तावेज़ी अहमियत में और इज़ाफ़ा हो जाता . प्रतिभा कटियार मुबारकबाद की हक़दार निःसंदेह है।

प्रतिभा की ‘मारीना’

नवीन जी मेरे पहले सम्पादक हैं. पहली नौकरी शुरू की नवीन जी के साथ भी और उन्हीं की वजह से. पत्रकारिता में मेरा आना भी उन्हीं की वजह से हुआ कि पत्रकारिता का चस्का जो लगा दिया उन्होंने. काम करने का सुख, हर रोज कुछ नया सीखने का सुख मिलने लगा था. सिविल सर्विस में जाने का सपना जो पापा का था धीरे-धीरे मेरे खुद के सपने में तब्दील होने लगा और मुझे पक्का यकीन हो गया कि यही काम मैं करना चाहती हूँ. इसी में मन लगता है. इसी से सामाजिक बदलाव की कोई राह भी खुले शायद. नवीन जी ने मेरी पहली किताब पर स्नेहासिक्त सा कुछ लिखा. उसे पढ़ते हुए मन 22 बरस पुरानी गलियों में विचरने लगा. यह भावुक पल है मेरे लिए. नवीन जी को पढ़ते हुए लिखना सीखने की कोशिश किया करते थे. जाहिर है उनके द्वारा लिखी यह टिप्पणी मेरे लिए किसी अनमोल खजाने से कम नहीं. थैंक यू सो मच सर. आपके पहाड़ों से आपको शुक्रिया भेज रही हूँ.- प्रतिभा 

- नवीन जोशी 
किताब तो जनवरी में दिल्ली के पुस्तक मेले से खरीद लाया था लेकिन तत्काल पढ़ना हो नहीं पाया। फिर अपना उपन्यास पूरा करने में लग गया। उससे मुक्त हुआ तो ‘मारीना’ प्रतीक्षा कर रही थी। प्रतिभा कटियार की किताब है और उसकी पहली ही है, इसलिए पढ़ना ही था। पुस्तक अच्छी होगी, यह उम्मीद प्रतिभा को जानने के कारण थी ही लेकिन ‘मारीना’ इतनी अच्छी निकली कि लगा जिस प्रतिभा को जानता था, वह उससे बहुत आगे निकल गई है। शाबाश, प्रतिभा।

वे 1996-98 के दिन थे। ‘स्वतंत्र भारत’ पत्रकारिता की अपनी सम्पन्न विरासत खो चुका था तो भी हम कुछ लोग उसकी स्मृतियां पकड़े हुए वहां अटके हुए थे। उन्हीं दिनों प्रतिभा कटियार नाम की लड़की कभी-कभार फीचर या लेख लेकर आती। प्रकाशन के साथ-साथ उसका आग्रह यह बताए जाने का होता था कि इसे और अच्छा कैसे बनाया जाए या और क्या अच्छा लिखा जा सकता है। उसकी लगन देखकर हमने उसे अपनी टीम में शामिल किया। क्रमश: विपन्न होते अखबार के एक दड़बे में फीचर की छोटी-सी टीम थी। अनुभवी विनोद श्रीवास्तव के अलावा हमारा ‘वीर बालक’ था- गज़लगो विवेक भटनागर। उसी में प्रतिभा भी शामिल हुई। उसके आगे-पीछे अनुजा शुक्ला आई। रचनात्मक ऊर्जा और सपनों से भरे युवा। प्रतिभा में सीखने और निरंतर अच्छा करने की ललक थी। कभी वह गुलजार का इंटरव्यू कर लाती, कभी जावेद अख्तर की शायरी पर लिखती। वह बड़ा आत्मीय और रचनात्मक साथ था। हम मिलकर अजब-गजब प्रयोग करते, कुछ बहुत अच्छे बन जाते कुछ हास्यास्पद। खाली समय में पहाड़ (मेरा प्रिय विषय) और समंदर और कविताओं की बातें होतीं। 


डेढ़-दो साल में हम अलग-अलग राहों पर चल पड़े। प्रतिभा नौकरियां बदलती रही लेकिन निरंतर सम्पर्क में रही। अपना लिखा पढ़ाती और पढ़ने को किताबें ले जाती (अब भी कुछ किताबें उसके पास होंगी) ‘हिंदुस्तान’ में भी उसने हमारे साथ कुछ समय काम किया। फिर ‘आई-नेक्स्ट’ के पेजों में उसकी मेहनत अक्सर दिखाई दे जाती। कुछ अलग-सा करती तो फोन पर बताना नहीं भूलती थी कि बताइए कैसा रहा और क्या कमी रही।

एक दिन उसने फोन किया कि ‘अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन’ के लिए एप्लाई किया है और आपका नाम ‘संदर्भ व्यक्ति’ के रूप में दे दिया है। मुझे पता था, उसका चयन हो जाएगा। कुछ समय बाद देहरादून से उसका खिलखिलाता फोन आया था- ‘मैं आपके पहाड़ों पर पहुंच गई हूं।’ फिर अपनी पहाड़ यात्राओं के बारे बहुत खुश होकर बताती। कुछ वर्ष पहले देहरादून यात्रा में मैं उसके घर खाना भी खा आया लेकिन तब जान नहीं पाया था कि वह पहाड़ों से प्रेम करते-करते प्रेम के कितने समंदर पार कर गई है।

यह बताया ‘मारीना’ ने। प्रतिभा के ही शब्दों में ‘यह मारीना पर किताब लिखना नहीं है, खुद मारीना हो जाना है।‘ एक शताब्दी से अधिक समयांतर के बावजूद इस पुस्तक में यह कायांतरण, प्रतिभा से मारीना और मारीना से प्रतिभा की आवा-जाही अद्भुत रूप में है। यह प्रेम के पहाड़, रेगिस्तान और समंदर पार किए बिना सम्भव नहीं था। पिछले बीसेक साल में प्रतिभा की कहानियां और कविताएं पढ़ने को मिलती रहीं, जिनमें प्रेम के बहुतेरे शेड्स होते थे। प्रेम उसका प्रिय विषय रहा है। इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु से प्रेम और प्रेम से भी अपार प्रेम। उसकी फेसबुक पोस्टों से भी खुशबूदार प्रेम झरता है जैसे चीड़ वन में हवा में महकता है पराग।

मारीना त्स्वेतायेवा (1892-1941) रूस की ऐसी कवयित्री थी जिसने एक तूफानी और हर चीज के अतिरेक से भरा जीवन जीया। बाल्यकाल की अमीरी और किशोरावस्था से मृत्युपर्यंत दर-दर की ठोकरें, निर्वासन और भुखमरी के हालात तक जिन दो चीजों का दामन उसने नहीं छोड़ा वह थे लेखन और प्रेम। लेखन में मारीना ने कई प्रयोग किए जो सराहे भी गए और खारिज भी खूब किए गए। उसने जो जीया वही लिखा और कभी कोई समझौता नहीं किया। उसने खूब प्रेम किए, प्रेम पाया और उतनी ही उपेक्षा भी। उसके जीवनकाल में उसकी कविताओं का विशेष नोटिस नहीं लिया गया। रूस से निर्वासन (एक तरह से आत्मनिर्वासन) के लम्बे दौर में यूरोप में उसे कुछ समझा गया, कहीं-कहीं सराहना भी मिली लेकिन अधिकतर वह उपेक्षित ही रही। अपने अंतिम दिनों में उसकी रूस वापसी की दास्तान हृदय विदारक है। तो भी उसने कभी लिखना नहीं छोड़ा। छोटी बेटी मर रही थी तब भी, बड़ी बेटी मरणासन्न थी तब भी और फंदे पर लटकने का फैसला करके बेटे के लिए सुरक्षित भविष्य की कामना करते समय भी वह लिखती रही थी। मारीना को रूस में 1960 के बाद क्रमश: सराहना और मान्यता मिल पाई।

हिंदी में मारीना की यथा सम्भव प्रामाणिक कहानी लिखना इसलिए बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि उस पर जो भी सामग्री है वह रूसी में है या फ्रेंच और जर्मन में। अंग्रेजी में भी बहुत कम चीजें उपलब्ध हैं। बिना रूसी, फ्रेंच या जर्मन भाषाएं जाने मारीना की विश्वसनीय कथा कहने की चुनौती प्रतिभा ने स्वीकार की तो सिर्फ इसलिए कि किशोरावस्था में पिता की पुस्तकों के बीच मारीना के बारे में कुछ पढ़ कर वह उससे प्रेम कर बैठी थी। कहा जाता है न कि सच्चे प्रेम में भाषा की क्या बाधा! सो, प्रतिभा ने मारीना तक की यात्रा प्यार-मुहब्बत के सहारे तय की और उससे संवाद भी किए। यह कैसे सम्भव हुआ, यह किताब पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह किताब मारीना की कविताओं के बारे में नहीं है, उसके जीवन के बारे में है लेकिन फिर मारीना का जीवन ही उसकी कविताएं हैं।
हिंदी में ‘मारीना’ का प्रकाशन बड़ी उपलब्धि है। अपनी टिप्पणी में डॉ वरयाम सिंह ने बिल्कुल सही लिखा है कि ‘यह शोध-ग्रंथ नहीं है, यह प्रेम है।’

यह पुस्तक पढ़ कर ही जान पाया कि वर्षों से प्रतिभा जो प्रेम-प्रेम जपती रही है, उस समर्पण एवं साधना का फल कितना संतोषदायक है। हिंदी के युवा लेखकों के लिए यह एक सीख भी है।

प्रतिभा से हम भविष्य में और बड़े कामों की उम्मीद पाल सकते हैं। उसके कविता संग्रह की भी प्रतीक्षा है।

Tuesday, October 6, 2020

हैपी बर्थडे पार्टनर


प्यारी सी दीत्या, 

आज तुम्हारे जन्मदिन पर खूब खूब प्यार! स्पेशल वाला. सोचा क्यों न आज तुम्हें चिठ्ठी लिखूं. यूँ तो हम बातें करते ही रहते हैं, आसान है फोन उठाओ और नम्बर डायल कर दो. पूछो आवाज आ रही है? हा हा हा. मजेदार है न? तो फिर आज ऐसी कौन सी बात करेगी मासी चिठ्ठी में जो अलग होगी.

तुम्हें पता है मासी तुम्हारे संग तुम्हारी उम्र को जीना चाहती है, जीती भी है. यह उम्र ढेर सारे सपनों की उम्र है. बहुत बहुत सारे सपने देखना. उनमें से हो सकता है सारे पूरे न भी हों लेकिन कुछ तो यकीनन पूरे होंगे और यह कितना सुंदर होगा न. किसी और के सपने मत देखना तुम. अपने सपने देखना. और देखो, ज्यादा समझदार होने में कुछ नहीं रखा, बिंदास जो जी में आये वो करो बस कि उससे किसी का दिल न दुखे. अब यह दिल दुखने वाला मामला इतना नाज़ुक है कि लोगों का बात बात में दिल दुखने लगता है ऐसे में क्या करें ऐसे में तुम जानती हो क्या करना है.

तुम्हारे साथ घूमने जाना है यार. सिर्फ मैं और तुम. हम दोनों पार्टनर. चलोगी न? मुझे तुमसे बातें करना बहुत अच्छा लगता है. मैं सोचती हूँ कि अगर मुझे दोबारा बचपन जीने को मिले तो मैं तुम्हारी जैसी हो जाऊं और तुम्हारा बचपन जियूं. ये जो प्रेजेंट है न हमारे सामने जिसे हम जी रहे हैं यही इस जिन्दगी का अब तक का बेस्ट मूमेंट है. हो सकता है कल इससे भी बेस्ट कुछ मिले. लेकिन अभी तो यही है और इसे जी भर के जीना है....

जल्दी ही हम मिलेंगे और ढेर सारी मस्ती करेंगे. इस चिठ्ठी को ज्ञानवाणी समझकर कहीं रखकर भूल जाना और खूब मस्ती करना.

मैं तुम्हारे बर्थडे पर चिड़ियों से बातें करते हुए उन्हें बता रही हूँ कि आज मेरी दीत्या का जन्मदिन है. देहरादून की सारी चिड़ियों ने तुम्हें हैपी बर्थडे कहा है...खूब मस्ती करना और तस्वीरें भेजना.

प्यार
मासी

Saturday, October 3, 2020

धरती से क्या सीखते हैं पेड़

अगर शब्दों को खंगालते हुए उँगलियाँ आंसुओं से सनी गीली मिट्टी से टकरा जाएँ या जड़ों में उलझ जाए अंगूठी तो समझ लेना चाहिए कि लेखक ने बड़े सुभीते से बोये थे बीज. उदासी के बादलों ने ठीकठाक बारिश की और उम्मीद की धूप ने अच्छे से सहेजा शब्द बीजों को. कि पाठकों के दिल में उतरने की उनके जेहन को उथल पुथल से भर देने में समर्थ होगी यह फसल और कुछ हद तक मिटा पाएगी ज़ेहनी भूख.

बिलकुल ऐसा ही महसूस हो रहा है इन दिनों 'सवालों की किताब' से गुजरते हुए. पन्ना दर पन्ना सवाल खुलते हैं, खुलते ही जाते हैं. पाब्लो नेरुदा को पढना यूँ भला किसी अच्छा न लगता होगा लेकिन उनका यह सवालिया ढब अलग ही ढंग से असर करता है. दिल के, ज़ेहन के तमाम कोनों की तलाशी लेती ये कवितायें हमारे भीतर के जन्मे-अजन्मे तमाम सवालों को सामने लाकर पटक देती हैं...और हम खुद को खाली होता महसूस करते हैं...

किताब गार्गी प्रकाशन से आई है और सुंदर अनुवाद किया है रेयाज-उल-हक ने. किताब के कुछ अंश- 

बारिश में भीगती हुई ट्रेन से भी उदास 
क्या कुछ है इस दुनिया में?

पत्तियां जब पीला महसूस करती हैं 
तब क्यों कर लेती हैं वो खुदकुशी?

जो आंसू अभी बहे न हों 
क्या वे एक छोटी सी झील का इंतजार करते हैं?

क्या यह सच है कि मंडराता है रातों में 
मेरे मुल्क पर एक काला गिध्ध?

शायद शर्म से मर जाती होंगी 
अपनी राह भूल गयी रेलें?

क्या ये सच है कि उदासी गाढ़ी होती है 
और नाउम्मीदी पतली?

धरती से क्या सीखते हैं पेड़ 
कि कर सकें आसमान से बातें?

कौन है सबसे ज्यादा बदनसीब, जो इंतजार करता है 
या जिसने नहीं किया कभी किसी का इंतजार?

किन सितारों से बातें करती हैं वो नदिया 
जो नहीं पहुँच पातीं समन्दर तक? 

Friday, October 2, 2020

क्या सचमुच लोग प्रेम को समझ पाते हैं- मारीना


कमल सिंह सुल्ताना- 

मारीना के जीवन से गुजरना ठीक ऐसा है जैसे निर्जीव और शांत वन में अचनाक कोई सतरंगी सुर छेड़ दे । किशोर चौधरी जी से इस पुस्तक के विषय मे ज्ञात हुआ लेकिन मिलने पर किशोर जी ने बताया कि वह ये पुस्तक किसी को मुझसे पहले दे चुके है ।लेकिन मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि मैंने मारीना को महसूसा नही है । चाहे किशोर जी के रिव्यू हो या आप के और देवयानी जी के मारीना के जीवन पर लाइव सेशन हो । मैंने मारीना को जिया है । मारीना के दुःख को महसूसा है ।मारीना के प्रेम को अनुभूत किया है । मारीना को सुनते वक़्त जो मुझसे बन पड़ा वो लिख दिया । हालांकि ये केवल सुनी- सुनाई बातों पर आधारित है पुस्तक को दुर्भाग्य से न पढ़ पाया हूँ अब तक । 

प्रतिभा से होकर गुजरता हूँ एक तस्वीर आंखों में ठहर जाती है । मन अगर झरने लगे तो मारीना की तस्वीर बना देता है । प्रतिभा की इस पुस्तक को हालांकि मैं पढ़ नही पाया हूँ लेकिन फिर भी मुझे लगता है की इसे मैंने अनुभूत किया है । मारीना के विषय मे बताते समय प्रतिभा संवेदित दिखती हैं । उनका प्रेम छलक पड़ता है ।कभी-कभी तो प्रतिभा और मारीना एकमेक हो जाती हैं।

ओ मेरे प्यारे देश रूस
मत शर्मिंदा हो
हमारे नंगे पैर देखकर
परियां हमेशा नंगे पैर ही होती हैं
बूट पहनकर तो राक्षस आते हैं
जो भी नंगे पैर नहीं है
वह असहनीय है.

उस समय की यह कविता जब रूस अपने सबसे विकट समय से गुजर रहा था । मारीना भी खुद को इससे विलग नहीं रख पाती ।मारीना कविताएँ जीते हुए लिखती है वे चाहती है कि कविता का हर एक शब्द स्वेद से सींचकर लिखा जा सके । गहरी आत्मानुभूति व भयावह मनःस्थिति के बीच का ये दौर रहा होगा जब मारीना ये कविता लिख रही होंगी । ये कविता मारीना की जिजीविषा व संघर्ष दर्शाती है । मारीना विचलित नहीं दिखती।किसी भी छोर से देखकर मारीना के देश प्रेम पर सवाल नहीं उठाए जा सकते । मास्को में जन्म लेकर जब वे निर्वासन की पीड़ा भोग रही थी या यूं कहे की वे कविताओं के निकट जा रही थी ठीक उसी दौर के दौरान । 

मारीना जीवन को आत्मीय मानती है वह जीवन के विषय मे अक्सर ही प्रसन्नचित और आभारी प्रतीत होती है । अपनी हर प्रतीति का वे बेहद सौम्य और मनहर वर्णन भी करती है । वे लिखती है कि 'जीवन में मुझे मुलाकातें अच्छी नहीं लगतीं. माथे टकरा जाते हैं. जैसे दो दीवारें. मुलाकातें मेहराब होनी चाहिए.'- मारीना

एक अन्य जगह वे लिखती है कि ' हर वो जगह, जहाँ इंसान को इंसान के तौर पर नहीं देखा जाता, वर्गों नस्लों में बाँट कर देखा जाता है. मेरे लिए उसका कोई महत्व नहीं है " - मारीना

मारीना का जीवन विषद अनुभूति का क्षेत्र है वो किसी दर्शन या साहित्य का क्षेत्र होने से कहीं पहले दुख व विषाद का साक्षात्कार है । मारीना के जीवनी में प्रतिभा लिखती है कि मारीना जब भुखमरी से अत्यंत क्षुब्ध थी । एक ऐसे समय से वह गुजर रही थी जब उसके पास उदर - पालन का भी सामर्थ्य नही था । वे कविताएँ नही त्यागती । वे अनवरत और अथक लिखती है । प्रतिभा बताती है कि मारीना की दशा इस कदर खराब थी कि वह अपनी दोनों पुत्रियों को इस आशा में अनाथ आश्रम छोड़ देती है कि कम से कम आश्रम में पर्याप्त भोजन तो प्राप्त होगा । लेकिन कुछ समय बाद मारीना अपनी एक पुत्री को स्वास्थ्य खराब होने से पुनः घर ले आती है किन्तु इसी बीच हृदय विदारक खबर मिलती हैं कि उसकी दूसरी पुत्री का निधन हो चुका है ।मारीना अपनी पुत्री के अंतिम संस्कार में भी सम्मिलित नहीं हो पाई क्योंकि उस समय उसकी दूसरी पुत्री तेज ज्वर से तप रही थी । 

तारों और गुलाबों की तरह
बड़ी होती जाती हैं कवितायें
सौन्दर्य की तरह वे होती हैं अवांछनीय
मुकुटों और प्रशस्तियों के बारे में
एक ही उत्तर है मेरे पास
कि मुझे क्योंकर मिलेंगे?
सोये होते हैं हम जब
अंगीठी के पास से
प्रकट होता है चार पंखुरियों वाला दिव्य अतिथि
ओ मेरी दुनिया, समझने की कोशिश कर
सपनों में अनावृत किये हैं गायक ने
तारों के नियम और सूत्र फूलों के
- 14 अगस्त1918

मारीना अपने पत्र व्यवहार में अक्सर खुल के बताती है वे लिखती हैं कि 'मैं अपनी भावनाओं के अंतिम छोर पर खड़ी हूं। न मुझे अब अंदर से कुछ महसूस होता है न बाहर से। अगर संक्षेप में कहूं तो मैं एक पुरानी घिस चुकी किसी स्वचालित मशीन के जैसी हो चुकी हूं। रोजमर्रा की जरूरतों की फेहरिस्त ने मेरे दिमाग को खत्म कर दिया है। मैं मेयुडन और विज्नोरी में एक आम गृहिणी की जिंदगी जी ही चुकी हूं। घर के सारे काम करना, अब भी वही कर रही हूं। घर के सारे काम जो मुझे आते हैं, मुझे नहीं आते हैं सब। जो मुझे एकदम पसंद नहीं। हर वक्त घर के कामों में, चिंताओं में उलझे रहना, सुबह से रात तक बस खटते रहना...मैं यह सब कर रही हूं। चाहते न चाहते...मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। बस जो काम मैं नहीं कर पा रही हूं वो यह कि मैं हफतों कुछ लिख नहीं पाती हूं....लेकिन कौन इसे जरूरी काम समझता है...कौन...'
- मारीना त्स्वेतायेवा की डायरी, 1931


नितांत एकांत और आत्मीयता मारीना में इस कदर थी कि वह हर एक विषय के विषय मे गहरा चिंतन और स्वतः संवाद पसन्द करती थी । वह किसी भी तरह से मुलाकातों से बचने का प्रयास करती है । मारीना साहित्य के विषय मे लिखती है कि ''जो बहुत पढ़ चुका है, वह सुखी नहीं रह सकता. क्योंकि सुख हमेशा चेतना से बाहर रहता है, सुख केवल अज्ञानता है. मैं अकेली खो जाती हूं, केवल पुस्तकों में, पुस्तकों पर...लोगों की अपेक्षा पुस्तकों से बहुत कुछ मिला है. मैं विचारों में सब कुछ अनुभव कर चुकी हूं, सब कुछ ले चुकी हूं. मेरी कल्पना हमेशा आगे-आगे चलती है. मैं अनखिले फूलों को खिला देख सकती हूं. मैं भद्दे तरीके से सुकुमार वस्तुओं से पेश आती हूं और ऐसा मैं अपनी इच्छा से नहीं करती, किये बिना रह भी नहीं सकती. '
- मारीना की डायरी से


ओह मारीना! कितना नुकसान होता है
आसमान का टूटकर गिरे तारों से
हम भरपाई नहीं कर सकते उसकी
चाहे जहां दौड़ें उनमें बढ़ोत्तरी के लिए
जोड़ के किस तारे की तरफ जाएं
सभी की तो गिनती हो चुकी है पहले से ही
वह भी नहीं कर सकता भरपाई
जो गिराता है उस पवित्र तारे को...


- रिल्के द्वारा मारीना के लिए कविता
(इसी पुस्तक से, अनुवाद- मनोज पटेल)

मारीना प्रेम की कवयित्री है । वह प्रेम को जीवन - बंधन समझती है । मारीना प्रेम की व्याख्या करती है । प्रेम का स्पर्श करती है और प्रेम में ही जीवन व्यतीत करती है । किसी भी व्यक्ति से अंतरतम प्रेम उसके व्यवहार की खूबी है । वह बहुत जल्दी प्रेम में पड़ने वालो में से है । उसे कई - कई बार इससे क्षति होती है किंतु मारीना प्रेम नही छोड़ती है, वह उसे सतत रखती है ।

प्रतिभा की इस पुस्तक को जब देवयानी किसी लाइव सेशन में पढ़ती है तो वो रिल्के व मारीना के प्रेम - संबंधो पर खुलकर पत्र - वाचन करती हैं । दरअसल रिल्के जर्मनी के प्रतिष्ठित लेखक थे । ये संस्मरण कुछ यूं घटित होता है कि मारीना की किसी कविता से प्रभावित होकर मारीना का एक लेखक मित्र बोरिस जो कि खुद मारीना के प्रेम में था, रिल्के को पत्र लिखता है । ये वो पहला कदम था जो रिल्के और मारीना कि तरफ बढ़ा । बोरिस रिल्के को लिखते हैं कि " मारीना एक प्रतिभा सम्पन्न विदुषी ही नही अपितु एक संवेदनशील लेखिका भी है।आपको अपनी कविताओं की पुस्तक मारीना तक पहुंचानी चाहिए" इसमें वह मारीना का पता भी सलंग्न कर देता है। जब मारीना के पास रिल्के का पत्र उसकी किताब के साथ पहुंचता है तो मारीना बहुत खुश होती गई क्योंकि रिल्के उस समय के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। मारीना को तो यूं भी पत्र-व्यवहार का चाव था ही वो तत्काल ही रिल्के को पत्रोत्तर लिखती है । रिल्के मारीना से प्रभावित हो जाते है । रिल्के बहुत छोटे पत्र लिखते थे । वे किसी भी गम्भीर बात को अत्यंत सुगमता के साथ बहुत छोटे से शब्दों में परिभाषित करते थे । वे लिखते हैं कि "उम्मीद है कि तुम जीवन को समझना सीख रही हो ।" रिल्के के साथ मारीना का लंबा पत्राचार चला । इस दौरान रिल्के ने उसे बताया दिया था कि यदि वह किसी व्यस्तता के चलते किसी पत्र का जवाब समय पर न दे पाए तो इसे अतिरिक्त न लिया जाए । ये कहना मारीना के लिए सन्तुष्टि के द्वार खोलने जैसा था । मारीना को रिल्के के आने के बाद और कविता के विषयों पर लंबे पत्राचारों के बाद स्वयं की कविता से सन्तुष्टि सी होती थी । वो महसूसती थी कि उसकी कविताओं में अब सुधार आ रहा है । मारीना जहां लंबे पत्रों को पसंद करती थी वहीं रिल्के शब्दों को संयम से बरतते थे । 

रिल्के मारीना से प्रभावित होकर एक पत्र में लिखते हैं कि -: 

" मारीना त्स्वेतायेवा । क्या तुम सचमुच हो?क्या तुम यहाँ नहीं हो ? अगर तुम यहाँ हो तो मैं कहाँ हूँ?"
- रिल्के, 10 मई

ये वे शब्द थे जो मारीना को रिल्के के निकट खींचते है । वो इन्हें बार-बार पढ़ती है । रिल्के के मन मे झांकने का प्रयास करती है । मन ही मन प्रसन्न होती है । रिल्के के अनुमान लगाती है । इनके कुछ समय बाद तक मारीना रिल्के को नियमित पत्र लिखती थी किन्तु उनका मिलना एक बार भी नही हो पाया था । मारीना ने एक पत्र में रिल्के से कहा कि अगली सर्दियों में हमे मिलना चाहिए । किन्तु उस पत्र का उसे उतर ही नही मिला । वो बार बार चौखट को निहारती । पोस्टमेन को आंखे खोझती । लेकिन कहीं से कुछ पता नही चला । मारीना बोरिस को पत्र लिखती है वह कहती है कि न जाने क्यो आजकल रिल्के मेरे पत्रों का जवाब नही देते। कहीं से खबर भी आई थी रिल्के अब नही रहे । वो मृत्यु के अमर-पथ पर चले गए है। किंतु यह पत्र बोरिस तक ना पहुँच सका। मारीना अत्यंत विषाद से घिर गई । मारीना ने रिल्के से प्रेम किया किन्तु कभी उनसे मिल न सकी । न जाने कितने बिंब उसकी कविताओं में रिल्के का आभास करवाते है किन्तु रिल्के सिर्फ रिल्के ही है । 

एक पत्र में वे लिखती है कि, ''मेरे सामने समन्दर है...मेरी आँखों में समन्दर है...मैं दूर तक समन्दर को देखती हूँ...लेकिन महसूस करती हूँ कि नहीं ये मैं नहीं हूँ...मेरी आंसुओं से भरी आँखों को खूबसूरत फूल दिखते हैं, जो अभी खिले नहीं हैं. मैं खुद को लहरों में पिरो देना चाहती हूँ. समन्दर की लहर हो जाना चाहती हूँ. क्यों यह संभव नहीं हो सकता. ''

''मैं जानबूझकर अनखिले फूलों को छूती हूँ. लहरों को महसूस करती हूँ. चिड़ियों से बातें करती हूँ. मैं अपने ख्यालों को जानबूझकर दूर कहीं ले जाती हूँ. लेकिन एक दुःख है जो लगातार मेरा हाथ थामे रहता है. एक दुःख जो लगातार मुझे भीतर से भिगोता रहता है. मैं खुश होने की कितनी भी कोशिश करूँ. क्या इसका अर्थ यह है कि मैं कभी खुश नहीं हो सकती...'''

''एक बूंद एकांत को तरस रही हूं. कितना मुश्किल है यह. बहुत बुरा लग रहा है. अजीब-अजीब से ख्याल आ रहे हैं. एक मामूली से व्यंग्य लिखने वाले को या स्तंभकार को भी (जो संभवत: अपने लिखे को दोबारा पढ़ता तक नहीं के पास भी) लिख पाने का समय और सहूलियतें हैं. और मेरे पास यह एकदम नहीं. दो मिनट तक की खामोशी भी नहीं. हर समय लोगों से घिरी हुई हूं.''

''जीवन जैसा है, वह मुझे पसंद नहीं. मेरे लिए वह कुछ अर्थ रखना तभी शुरू करता है, जब वह कला या साहित्य में रूपान्तरित होता है. इसके बिना जीवन का कोई महत्व नहीं. अगर मुझे कोई सागर के किनारे ले जाये, या फिर स्वर्ग में ही क्यों न ले जाए और लिखने की मनाही कर दे तो मैं दोनों को अस्वीकार कर दूंगी. मेरे लिए इन चीजों का कोई महत्व नहीं है.'' 

''बहुत सारे लोग हैं, चेहरे हैं, मुलाकातें हैं. लेकिन सभी सतही. कोई भी व्यक्ति प्रभाव नहीं छोड़ता. सब चेहरे एक-दूसरे से टकराते हैं. शोर-शराबे के बीच, लोगों की भीड़ के बीच एकदम अकेली हूं. जीना एकदम अच्छा नहीं लग रहा है.'' 

मारीना के ये पत्र मारीना की संवेदना के हस्ताक्षर है । मारीना कहती है कि जीवन मे उसे सिर्फ दो ही चीजें सुहाती है । जिनमे वे अपने जीवन का दर्शन पाती है । पहली चीज है ख्वाब और दूसरी है लंबे- लंबे पत्र लिखना । मारीना को लिखना हमेशा से ही सुहाता रहा है । मारीना जीवन- पर्यंत लेखन से जुड़ी रही । मारीना ने अपने जीवन भयावह व्याधि व निर्वासन के दिनों में भी लिखना नही छोड़ा । मारीना अपने समकालीन लेखकों से पत्राचार करती ही रही । ये पत्राचार साहित्य की अक्षय पूंजी के रूप में विद्यमान है । बरहलाल मारीना के जीवन की कल्पना लेखन के अतिरिक्त नही की जा सकती । मारीना को पढ़ते वक्त लगेगा कि कोई बहुत प्यासा आदमी है जिसे कुंआ मिल गया हो । मारीना की सांस लेखन से ही चलती रही ।

पढ़िये मारीना का यह बेहद खास पत्र, 'क्या लोग सचमुच प्रेम को समझ पाते हैं?''

''यह मेरा उदास बसंत है. पेड़ों से जब पत्ते झरते हैं, तो लगता है कि मेरा मन भी झर रहा है. तो क्या किसी नई शुरुआत के लिए ऐसा हो रहा है. क्योंकि पेड़ों पर तो नई कोपलें फूट रही हैं. काश ऐसा सच होता है तो मैं इस उदास बसंत का स्वागत बाहें पसार कर करती. हालांकि अब भी, जबकि मैं जानती हूं कि उम्मीद की कोई कोपल फिलहाल नहीं फूटने वाली है, मुझे बसंत से कोई शिकायत नहीं है. मैं अब भी इसे प्यार करती हूं. ''

''कल मास्को से एक मेहमान आये थे. उनसे पता चला कि बोरीस पास्तेनार्क ने अपनी पत्नी से तलाक ले लिया है क्योंकि वह किसी दूसरे से प्रेम करने लगे हैं. मैं बोरीस के लिए दुखी हूं. मुझे उसके लिए डर लग रहा है. इन दिनों कवियों, लेखकों में यह बीमारी कुछ ज्यादा ही देखने में आ रही है. एक पूरी सूची तैयार की जा सकती है जिसमें बड़े-बड़े नाम शामिल होंगे.''
 

''क्या ये लोग सचमुच प्रेम को समझ पाते हैं? मुझे तो यह किसी नई मुसीबत को न्योता देने जैसा लगता है. जितना मैं बोरीस को जानती हूं, वो सुखी नहीं रहेगा. उसकी नई पत्नी बहुत सुंदर है. बोरीस उसकी सुंदरता की आग में जलता रहेगा. जबकि उसे शांति चाहिए. वो खुद को समझ ही नहीं पा रहा है. प्रेम का अर्थ संतप्त होना नहीं होता जबकि उसके लिए इसका यही अर्थ है.'' 

''1926 की गरमियों के वे दिन मुझे अब तक याद हैं. मेरी अंत की कविता पढ़कर वो कदर मेरा दीवाना हो गया था. किस कदर बेचैन था पास आने को. मैंने कितनी मुश्किल से उसे समझाया था कि मैं अपनी जिंदगी में इतनी बड़ी मुसीबत को न्योता नहीं दे सकती. मैं जानती हूं कि प्रेम और विवाह व्यक्तित्व को ध्वस्त कर देते हैं. लेकिन मैंने उसकी भावनाओं का अनादर नहीं किया. न जाने क्यों मन में यह विश्वास था कि कभी मैं उससे जरूर मिलूंगी. सोचती थी कि अपने जीवन के सबसे मुश्किल वक्त में मैं बोरीस के पास जाऊंगी. शायद अंतिम सांस लेने के लिए. उसकी भावनाओं की आंच मुझे रोशन करती रही है. लेकिन अब ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं बची है.''

''कितना अजीब लग रहा है कि जो भावनाएं कभी मेरे लिए थीं, वही अब दूसरे के लिए हैं. पुरुष के लिए उन क्षणों में जब वह प्रेम करता है, प्रेम ही सब कुछ होता है. शायद इसीलिए वो उतनी ही आसानी से उससे मुक्त भी हो लेता है. संतप्ति और विरक्ति...मुझे गलत मत समझना. मुझे बोरीस से ईर्ष्या नहीं हो रही है. नाराजगी भी नहीं है. कोई तीव्र पीड़ा भी नहीं है. बस एक खालीपन है....मन के सारे पत्ते झर रहे हैं...''

(20 मार्च 1931 को अन्ना अन्तोवना को पेरिस से लिखे पत्र का एक हिस्सा...)

मारीना के इस पत्र में प्रेम की सूक्ष्म व्याख्या है ।मारीना अपने जीवन मे प्रेम को हमेशा ही बंधन मानती रही । मारीना जानती थी कि बोरिस उसके प्रेम में है किंतु वह इस बात का भी ध्यान रखती है कि रिल्के से उसका प्रेम भी बोरिस की देन है । यह भी जानती थी कि बोरिस ही वह पुल है जिससे कि वह रिल्के तक पहुंची है । रिल्के और मारीना का प्रेम अद्भुत रहा । वे कभी प्रत्यक्ष मिल नहीं पाए । केवल पत्र व्यवहार चला ।

दरअसल ये मारीना का व्यक्तित्व ही था कि वह उम्र भर प्रेम की खोज में रही । जीवन के विकट दौर के में जब मारीना ने प्रेम विवाह के पश्चात भी आने समय के दो सबसे प्रतिष्ठित लेखकों से प्रेम किया ।जिनमें एक थे रिल्के और दूसरे थे बोरिस पास्तरनाक। इस प्रेम के अलग-अलग रूप थे जिसमें ईमानदारी थी। वह दोनों को ही पत्र लिखती है। बोरिस के संवाद यदि हम देखें तो हम पाएंगे कि बोरिस भी मारीना से प्रेम में था । रूसी साहित्य का यह त्रिकोणीय प्रेम अद्भुत है जिसमें बोरिस लिखते हैं कि, ''प्रिय मारीना,आज में तुमसे वह कहना चाहता हूँ जिसे मैं लम्बे समय से अपने भीतर छुपाया हूँ,उन शब्दो को तुम्हे सौंपना चाहता हूँ जिनकी आग में मैं न जाने कब से झुलस रहा हूँ, मारीना तुम्हारे ख्याल का मेरे आस-पास होना मुझे क्या से क्या बना देता है ।तुम नही जानती मैं तुम्हारे पास होना चाहता हूं।तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ हमेशा के लिए ।तुम निशंकोच होकर मुझे अपनी भावनाओं के बारे में बताना क्योंकि मैं तुम्हारे कारणों को समझने की योग्यता रखता हूँ । निकट भविष्य में तुमसे मिलने की इच्छा रखता हूँ ।जब तुम कहो, जहां तुम कहो ।
तुम्हारा
बोरिस पास्तरनाक"
30 अप्रैल 1926

बोरिस एक अन्य पत्र मई में लिखते हैं कि, "यह तुमने क्या किया,क्यो किया और कैसे कर पाई तुम।कल रिल्के से मिले पत्र ने मुझे तुम्हारे और इनके के मध्य में सब कुछ बता दिया है ।मैं इस बात कि कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम्हारी जैसी प्यारी खूबसूरत दिल रखने वाली स्त्री जिसका जन्म समय के बाद मुहब्बत का राग आने के लिये हुआ है वह कैसे ऐसा बेसुरा राग छेड़ सकी मुझे नहीं पता ।अपनी जिंदगी में मैंने इससे पहले कब इतना गुस्सा और दुख एक साथ महसूस किया था । " बोरिस ने उसी दिन एक और पत्र लिखा कि "मैं इस बारे में रिल्के को कुछ भी नहीं लिख रहा हूं मारीना क्योंकि मैं उन्हें भी तुमसे कम प्रेम नहीं करता तुम यह सब क्यो न देख पाए मारीना मेरे दो प्रिय लोगों को तुमने मुझसे छीन लिया ।"

बोरिस के ये पत्र मारीना से प्रेम को दर्शाते हैं किंतु मारीना जब एक साथ दो प्रेम जी रही थी तो ऐसे समय में वह किसी एक को भी खोना नहीं चाहती थी। "सुनो रिल्के ! ना जाने मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं बहुत बुरी हूँ बहुत ही बुरी पिछले दिनों की लंबी खामोशी मेरी इसी अहसास के चलते थी।बोरिस पास्तरनाक को लगता है कि मैंने तुम्हें पपत्र लिखकर और उससे करीबी का अहसास पाकर उसे कोई धोखा दिया है ।राइनेर मैं सचमुच बुरी हूँ मैंने उसका दिल दुखाया है और पिछले पत्र मैं तुमसे इस बात का जिक्र भी नही किया ।असल में मैं जब तुमसे बात करती हूँ तो मैं तुम्हे और खुद को एक एकांतिक माहौल में रखना चाहती हूं। जहां हमे किसी और का कोई ख्याल कोई और बात जो भी न सके लेकिन यह तो ठीक नहीं है । राइनेर तुम्हारे और मेरे बीच सब कुछ पानी की तरफ साफ होने चाहिए इसलिए तुम्हे आज ये पत्र लिख रही हूँ । मैं अपनी जिंदगी में झूठ के लिए कोई जगह नही रखना चाहती हालांकि मेरे हिस्से बहुतों के झूठ है फिर भी रिश्तों की ईमानदारी और सच्चाई पर विश्वास रखती हूं ।उम्मीद है तुम अपनी मारीना को समझ सकोगे ।
तुम्हारी
मारीना

मारीना की ये दुखांतिका अविश्वसनीय  है । मारीना सम्पूर्ण जीवन झूठ से दूर रही । वो मुक्त कंठ से इस सच्चाई को स्वीकारती भी है ।

(एक दूर देश में बैठे पाठक ने मारीना को तलाशा और कुछ लिख भेजा. यह आत्मीय टिप्पणी है जिसे मारीना से स्नेह हो गया. पाठकों तक मारीना को ले जाना ही इस किताब का उद्देश्य था. कमल जी का शुक्रिया )