Saturday, September 14, 2019

ऊँचाई एक भ्रम है


जब मैं छोटी थी तब बहुत तेज़-तेज़ चढ़ा करती थी सीढ़ियाँ. एक सांस में झट से ऊपर जा पहुँचती थी, दूसरी ही सांस में सरर्र से नीचे. सीढियां उतरते हुए नहीं लगभग फिसलते हुए. खेल था ऊपर चढ़ना और नीचे उतरना. इस चढने और उतरने के दौरान बीच का हिस्सा कब गुजर जाता पता ही नहीं चलता. मुझे हमेशा पहली सीढ़ी और आखिरी सीढ़ी की अनुभति ही गुगुदाती थी. माँ की आवाज आती और मैं सर्रर्र से नीचे, पतंगों का खेल देखना हो सर्रर्र से ऊपर.

तब मेरे लिए ऊपर का अर्थ सिर्फ पतंगों से भरा आसमान, पंछियों की टोली, नीला आसमान और वो एकांत था जिसमें मुझे सुख मिलता था और नीचे का अर्थ था माँ की पुकार, जिम्मेदार बेटी के हिस्से के कुछ काम, चीज़ों को ठीक से जमाना, मेहमानों की आवभगत. ऐसा नहीं कि नीचे आना मुझे बुरा लगता था कि बुरे भले की समझ ही कहाँ थी. लेकिन यह सच है कि सीढ़ियों वाला खेल मुझे पसंद था.

इस खेल में ऊपर चढने का वो अर्थ नहीं था जिसे सफलता से जोड़ा जाता है, यह बाद में समझ में आया. जब से समझ में आया ऊपर चढने का रूमान जाता रहा. अब यह आनंद नीचे उतरने में आने लगा. नदियों में, पोखरों में, समन्दर में उतरने का आनंद. नीचे उतरते हुए पैरों को धरती पर जमाये रखने का आनंद.

असल आनंद साथ का है यह सबसे बाद में समझ में आया. साथ खुद का. सीढियां सिर्फ माध्यम हैं ऊँचाई एक भ्रम है. गहराई महत्वपूर्ण है. गहराई में उतरते हुए पैरों को जमाये रखना, डूबने की इच्छा के साथ डूबना भी.

माँ की पुकार गहराई की पुकार थी. आज भी माँ की पुकार तमाम सीढ़ियों को भरभराकर गिरा देती है. चाय बनाते हुए मुस्कुराती हूँ. अपने भीतर की सीढियां उतरते हुए अपने भीतर की नदी में छलांग लगा देती हूँ....छपाक!

(इश्क़ शहर, डूबता मन )

3 comments:

Digvijay Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 15 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

नूपुरं noopuram said...

आपने बहुत बहुत अच्छा लिखा ।
जैसे अनकहा पढ़ लिया ।
बहुत दिनों बाद कुछ इतना सुंदर पढ़ने को मिला ।
अपना सा लगा ।
सस्नेह आभार ।

संजय भास्‍कर said...

क्या बात है सुंदर .....