Thursday, September 19, 2019

थोड़ा सा उगने लगी हूँ



गृह प्रवेश कराने को कोई दरवाजे पर धान का कटोरा भरकर, रंगोली का थाल सजाकर नहीं बैठा था. किसी ने दरवाजे पर हथेलियों की थाप नहीं ली. कोई इंतजार में नहीं था रोली कुमकुम लिए स्वागत का शगुन करने को. उल्टे करने को बहुत सारे काम थे. दीवारों के रंग सूखे नहीं थे, लकड़ी का काम अधूरा ही पड़ा था अभी, सामान कहीं से लोड कराना था कहीं उतरवाना था. कितने लोग थे पेमेंट के इंतजार में. कितना ही रखो हिसाब कुछ न कुछ गड़बड़ा ही जा रहा था. थक के चूर था जिस्म कुछ भी महसूस करने की गुंजाईश के बिना बस भागते-दौड़ते हुए धरती एक कोने पर अपना नाम लिखना था, सो लिख दिया. यूँ सुरक्षा जैसा कुछ होता नहीं फिर भी कुछ वहम बचे रहें तो जीना जरा आसान हो जाता है यही सोचकर सर पर एक छत होने का सुख आंचल में बाँधने चल दी थी. अपने लिए या अपनों के लिए पता नहीं.

इस दौड़-भाग में ही एक रोज धरती के इस कोने से बतियाने बैठी थी. बारिश थी उस रोज बहुत. मिट्टी की खुशबू बारिश के लिबास में सजकर अलग ही रूआब में थी. मैंने हथेलियों में जितनी आ सकती थी उतनी मिट्टी भरी. दोनों हथेलियों को कसकर भींच लिया था. बरिश बहुत तेज़ हो गयी थी. हथेलियों से मिट्टी बहते हुए सरक रही थी. मैं भी सरक रही थी धीरे-धीरे. यह धरती के उस कोने से जुड़ने के पल थे...मोहब्बत के पल थे. मैं उस पल मिट्टी हुई जा रही थी. मिट्टी में समाती जा रही थी. कुछ ही देर में बारिश, मिट्टी और मुझमें कोई अंतर नहीं बचा था. उसी रोज उसी मिट्टी में मैंने जूही का एक छोटा सा पौधा लगाया था. सोचा था यह लम्हा सहेज दूँगी इस पौधे में. मिट्टी से प्यार करिए, बारिश से प्यार करिए वो कभी धोखा नहीं देती. उस लम्हे को खूब प्यार से सहेजा धरती के उस कोने ने. जूही का वह नन्हा पौधा अब बड़ा हो गया है. बेल बनकर चढने को आतुर है. अलग-अलग शाखाएं इधर-उधर कूदफांद करते हुए हाथ-पाँव मार रही हैं.

आँखें मलते हुए इस नन्हे की हथेलियों पर पहली-पहली कलियाँ आयीं हैं. जूही की कच्ची कलियाँ. गुलाबी रंग है इनका. अभी खिली नहीं हैं, अभी ठीक से मुस्कुराना भी नहीं सीखा है इन्होंने. बस कि आवाज देकर मुझे पुकारना सीखा है. मैं देर तक इन कलियों के करीब बैठी रही. जूही की इस बेल के बहाने मैंने खुद को ही तो रोपा था मिट्टी में, देखती हूँ जड़ें पकड़ ली हैं...जिंदगी का सफर चल पड़ा है. संघर्ष की मिट्टी में ख्वाहिशों की बेल उगने लगी है. कलियों के खिलने में, खुशबू बिखरने में अभी वक़्त है लेकिन बिखरेगी जरूर.

यह खुशबू इस धरती से तमाम नाउम्मीदी को मिटाएगी.
आमीन !

5 comments:

Rohitas Ghorela said...

बंजर भूमि भी हमेशा बंजर नहीं रहती।
नाउम्मीदी उम्मीद की ही पहली सीढ़ी है जो कलियों के खिलने से पार हो गयी है।
नया जन्म मुबारक हो।


पधारें अंदाजे-बयाँ कोई और

ANHAD NAAD said...

आमीन !

मन की वीणा said...

जीवन से स्वतः झूझना और फिर उस में से आशा के फूल बटोरना यही तो सार्थक जीवन है ।
बहुत ही सुंदर है आपकी अभिव्यक्ति।
अप्रतिम।

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-09-2019) को " इक मुठ्ठी उजाला "(चर्चा अंक- 3465) पर भी होगी।


चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी

Amrita Tanmay said...

लेखन से खुशबू बिखर रही है ।