Friday, September 30, 2011

हथेली पर उगती खुशबू


मैं शायद गहरी नींद में थी. बहुत गहरी नींद. तभी अचानक हथेली पर कुछ  रेंगता हुआ सा महसूस हुआ. हथेली को बंद करना चाहा लेकिन नहीं कर पाई. उंगलियां मुडऩे से इंकार कर देती हैं. मैं इस रेंगने की ओर से ध्यान हटाते हुए गहरी नींद की चादर के भीतर छुप जाती हूं. लेकिन हथेली पर हलचल कायम रहती है. मैं हाथ झटककर  नींद में ही छुपी रहती हूं. लेकिन ...लगातार कुछ  रेंगता ही जाता है. अब मैं नींद से बाहर निकलकर हथेली पर नजऱ डालती हूं. कुछ भी नहीं है वहां. आस पास देखती हूं. वहां भी कुछ  नहीं. रेंगना अब बंद हो चुका है. जब कुछ है ही नहीं तो दिखेगा कैसे. मैं भी ना....बस. वापस नींद की चादर ओढ़ती हूं. नींद थोड़ी सा ना-नुकुर  के  बाद करीब आ ही जाती है. लेकिन फिर वही रेंगना शुरू. मैं किसी सधे हुए खिलाड़ी की तरह झट से  से मुट्ठी बंद करती  हूं...लेकिन  उंगलियां सख्त और ठंडी हैं. बर्फ की  तरह. उठकर  बैठ जाती हूं, बायें हाथ से अपने दाहिने हाथ को टटोलती हूं. सब ठीक  तो है. एक एक  उंगली को  मोड़ती हूं. वो मुड़ जाती हैं. मुड़ेंगी  कैसी नहीं...मैं हंस देती हूं.

मैं दाहिने हाथ की हथेली पर बायां हाथ रखती हूं. उंगलियों से अपना नाम लिखती हूं. दाहिने हाथ की  हथेली को चूमती हूं. नींद की पनाहगाह में लौट जाती हूं. थोड़ी ही देर में फिर से हथेली पर कुछ  रेंगने लगता है. इस सोने जागने के बीच रात अपना आंचल समेट लेती है. सुबह की पहली किरन में मैं अपना दाहिना हाथ अपने सामने खोले बैठी हूं. रात भर इस हाथ की  लकीरों ने कोई खेल खेला है. कोई भी लकीर अपनी पुरानी जगह पर नहीं है...मैं मुस्कुराती हूं. 

सुबह की ठंडी हवा में आलस की खुशबू भर जाती है. मैं नींद के आंचल में दुबक जाती हूं. अब कहीं कोई हलचल नहीं...

10 comments:

vandana gupta said...

कितना सुखद सा अहसास है ना ………लकीरो ने खेला और हमने महसूस किया और उसे आपने बहुत ही सुन्दरता से पेश किया………वाह!!

Nidhi said...

काश..हम सबके साथ ऐसा ही हो जाता..रात में सोते..सवेरा होता..तो देखते की हाथ की रेखाएं ,अपना खेल ..खेलती रहीं..सब बदलती रहीं .कोमलता से भरपूर ,रोचकता से परिपूर्ण ..!!बधाई .

बाबुषा said...

ये जानना सुखद है कि हाथ की रेखाओं ने क्रान्ति कर दी है .
बदलाव सुखद और स्वागत योग्य.
खुश रहो.
बहुत प्यार और दुलार सहित.
- बाबू

रश्मि प्रभा... said...

oh.... kuch reng gaya meri hatheliyon per

TRIPURARI said...

अब कहीं कोई हलचल नहीं...

प्रवीण पाण्डेय said...

एक गहरी साँस और स्वप्नों पर सहमति।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

पाठकराम पढ़ते हुए थोड़ा विचलित हुआ लेकिन विचलन के दौरान उसे अपनी हथेली का ख्याल आया। फिर हाथ की लकीरों का..सचमुच अलग-अलग कोणों पर सोचने के लिए काफी है यह मन-आलाप।

Ajay K. Garg said...

पहले मुझे लगा.. it is one of those!!!! लेकिन अंत तक आते-आते एक मुस्कराहट होठों पर आ गई... अच्छा लिखा है, बात कहने का तरीका बेहतरीन है... दुआ है, हर सुबह नई हो, हर सुबह हाथों पर खुशी की नई लकीरें खिंची हों...

Pratibha Katiyar said...

@ Ajay ji- thanks! :)

आनंद said...

रात भर इस हाथ की लकीरों ने कोई खेल खेला है. कोई भी लकीर अपनी पुरानी जगह पर नहीं है...मैं मुस्कुराती हूं.

जादू सा उतरता है आपकी कलम से ...सच कहा आपने एक ही रात में सारे खेल दिखा गयीं ये हाथ की लकीरे और सुबह होने तक कोई भी अपनी जगह पर नहीं थी.