हम क्यों लिखते हैं...हमें क्यों लिखना चाहिए. क्या लिखना चाहिए...ये सवाल कितने ही पुराने या घिसे-पिटे हो चुके हों इनकी चमक और जरूरत लगातार बरकरार है. खासकर तब, जबकि लिखने के अवसर बढ़ रहे हों. यूं इस सवाल पर रिल्के का जवाब नसों में समाया है. फिर भी शायद उसके आगे उसमें कुछ जोडऩे या नये जवाब खोजने की प्रवृत्ति जारी रहती है. मैं हर लिखने वाले से यह सवाल पूछना चाहती हूं कि तुम क्यों लिखते हो? एक बार एक दोस्त ने मजाक में कहा था कि नहीं लिखोगी तो क्या दुनिया रुक जायेगी...यह सवाल हर लिखने वाले के लिए है. मैं सवालों को समेटते चलती हूं.
नई क्लास के नये बच्चे सामने बैठे थे. पहली क्लास थी उनकी. मैं उन्हें सबसे पहले अपना परिचय देती हूं. परिचय देते हुए मैं सिर्फ अपना नाम बताना पसंद करती हूं लेकिन मुझे बताना पड़ता है और भी बहुत कुछ. मैं उनसे उनका नाम भर पूछती हूं. मैं उनसे जानना चाहती हूं कि उन्हें अपने विषय, जिसे उन्होंने खुद चुना कितना प्यार है. दरअसल, मैं पूछना चाहती हूं उन्हें जिंदगी से कितना प्यार है.
मैं उनकी कलम कॉपी बंद करवा देती हूं. उन्हें खोलने की कोशिश करती हूं. वह जगह खाली करती हूं, जहां पहले से न जाने क्या क्या भरा है. ताकि उसमें मैं जो भरना चाहती हूं उसकी जगह बने. सच कहूं, मैं उसमें कुछ नहीं भरना चाहती. मैं बस उन्हें चुनाव की सुविधा देना चाहती हूं. मैं उन्हें प्यार करना सिखाना चाहती हूं कि जिंदगी के हर लम्हे को प्यार करो. हर उस काम को जिसे करना तुमने चुना है. जिंदगी कुछ सर्टिफिकेट, नौकरी और महीने की सैलरी से बहुत आगे है. लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं कहती हूं. मैं उन्हें मोटी खाल का पत्रकार बनाने आई हूं ताकि जमाने की चोट जब पड़े तो वो कराह न उठें.
लिखना क्यों जरूरी है...अभी यह सवाल उनके लिए बड़ा है. मेरे ही लिए बड़ा है. मुझे यकीन है हर उस ईमानदार लेखक के लिए यह सवाल बड़ा है, जो लिखने के बाद अपने भीतर झांकता भी है. मैंने अपना जवाब पा लिया है शायद. मैं अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए लिखती हूं. लिखने के अलावा मैं अपने साथ कुछ कर भी नहीं सकती अच्छा या बुरा. हां, कभी-कभी संगीत मुझे इस पीड़ा से बाहर निकालता है. तो क्या लिखने से पहले पीड़ा में होना जरूरी है. क्या हम ये सोचते हैं कि हमारे लिखे से समय और समाज बदलेगा. नहीं, लिखना समय का दस्तावेजीकरण तो है लेकिन बदलाव नहीं. अभी काशीनाथ सिंह जी का अपना मोर्चा पढ़ा है, जेएनयू के क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर की डायरी के पन्ने, उनकी मां का पत्र. ये सब दस्तावेज हैं, जिन्हें पढ़ते हुए रूह कांपती है. इस व्यवस्था, इस सिस्टम से घिन आने लगती है. खुद से भी कि हमारे पास इसी व्यवस्था में रहने के लिए खुद को तैयार करने के सिवा कोई च्वॉइस नहीं है. मंजूनाथ की मृत्यु याद आती है. सच के लिए खड़े होने वालों की देह पर पड़ते कोड़े याद आते हैं. उनके जीवन में लिखने का वक्त बहुत कम था. वो वक्त के धारे बदलना चाहते थे. अब भी बहुत लोग हैं जो यह काम करना चाहते हैं. लेकिन उनकी चमड़ी उधेडऩे के लिए बना व्यवस्था का चाबुक लगातार मोटा और मजबूत होता जा रहा है.
हमें क्यों लिखना चाहिए....के आगे एक और बड़ा सा प्रश्न उगता है हमें क्या पढऩा चाहिए. पढऩा सिर्फ किताब नहीं, जैसे लिखना सिर्फ अक्षर नहीं. पढऩा जीवन और लिखना किसी की आंखों में विश्वास की, साहस की, प्रेम की इबारत.
लिखना कोई लग्जरी नहीं, एक गहन पीड़ा से गुजरकर सुंदर संसार का सपना देखना है...
7 comments:
लिखने और लिखते रहने के सवाल से दो चार हाथ हमेशा होता रहा है। ऐसी स्थिति इसलिए और जरुरी है क्योंकि इसी से लिखने का रियाज भी होता है। रियाज के दौरान पीड़ा का आभाश हमें लिखते रहने से और करीब लाता है। आपकी यह पोस्ट इसी प्रक्रिया की उपज है, जो हम जैसे कई नवातुरों को लेखन कर्म जुड़े रहने की प्रेरणा देती है या कहें आशिकी करान भी सीखाती है लेखन से। और सबसे अहम कि लिखने के बाद अपने भीतर झांकने की हिम्मत। मैं इसे आत्मालाप कहता हूं, आपकी पोस्ट हमें इन्हीं सब बातों के चारों ओर घुमाती है।
kya lekhte hai aap sach mai...
lekin ek nojavan hone ke nate ye kahuga...ki kitna bhi mota ho jaye chabuk...iss desh ke naojavano ke irado ke samne phir bhi wha tuut ker gir jayega....usse girna hi hoga...kyuki hum nai rukne wale jab tak ye system hai....
Thanks Rahul and Girindra!
लिखना कोई लग्जरी नहीं, एक गहन पीड़ा से गुजरकर सुंदर संसार का सपना देखना है...
sahi kaha.
संवाद जीवित रहे, यही लिखने का कारण है।
जिंदगी कुछ सर्टिफिकेट, नौकरी और महीने की सैलरी से बहुत आगे है. बहुत बड़ी बात कह दी,आपने .
बहुत बढिया। आपके विषय हमेशा ही अलग होते है। इसलिए पढना भी अच्छा लगता है।
आभार
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