Thursday, April 30, 2009

हँसता हुआ आंसू

हंसता हुआ एक खूबसूरत आंसू कब से संभालकर रखा था एक आंसू. वो आखिरी आंसू था. कितनी ही बदलियां आंखों से होकर बरसती रहीं बरसों. लेकिन ये एक आंसू. इसे जमाने की नजर से बचाया. अपनी ही नजर से भी. झाड़-पोंछकर रख दिया मन के सबसे भीतर वाले कोने में।

पूरी ताकीद की थी उसे, देखो तुम यहीं रहो. तुम्हें जाया नहीं करना है मुझे. औरों के लिए नहीं, अपने लिए बचाया है तुम्हें. मेरी मजार पर चढऩे वाला पहला आंसू. क्या पता आखिरी भी. फूल की तरह खिला हुआ, हीरे की तरह चमकता हुआ. मेरा खुद का आंसू, मेरे खुद के लिए।

उसकी चमक में कैसा तो सम्मोहन था. उसका सौंदर्य अप्रतिम था. लोग इल्जाम लगा सकते हैं कि सबसे सुंदर और अनमोल आंसू तो मैंने बचा लिया अपने लिए, इसीलिए मोहब्बतों की मिठास फीकी ही रही. जिंदगी की भी. लेकिन आज यह अपनी पूरी शानो-शौकत के साथ बाहर क्यों आ पहुंचा है।

जरा तेवर तो देखिये इनके और मुस्कुराहट. इतिहास बदल देगा ये कम्बख्त तो. मुस्कुराता हुआ आंसू. कभी देखा है किसी ने? डांटकर पूछा- क्यों मना किया था न तुम्हें? क्या तुमने भी मेरी बात न मानने की ठान ली है. बोलो?

हंसा वो जोर से. उसके हंसने से उसकी चमक झिलमिला उठी. पास में खिले हुए फूलों की आंखें चुंधियाने लगीं उस झिलमिलाहट में. वो बोला, तुमने मुझे अपनी मजार के लिए ही तो बचाकर रखा था ना?
क्या तुम अब मजार ही नहीं बन चुकी हो अपनी?

मैं खामोश, हीरे से चमकते उस एक आंसू में डूबते हुए अजब सा सुख महसूस करने लगी.

Tuesday, April 28, 2009

सारे सुखन तुम्हारे


लो फूल सारे तुम रख लो अब से। मुझे नहीं चाहिए। कांटे ठीक हैं मेरे लिए। कांटों के मुरझाने का कोई खतरा नहीं होता. न ही इनकी परवरिश करनी पड़ती है.

सुख तुम पर खूब खिलते हैं. ये तुम्हारे ही लिये बने लगते हैं सारे के सारे. सच्ची, इनका तुम्हारा नाता पुराना है. ये भी तुम्हारे हुए. मैं क्या करूंगी इनका. मेरे लिए इनकी कोई अहमियत नहीं. बेजार हूं मैं सुखों से। इनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है मुझे। बल्कि कभी कोई सुख गलती से टकरा जाता है, तो उसके टूटने का भय खाये रहता है हरदम.

चांद-वांद, चांदनी-वांदनी इनमें में भी कोई रुचि नहीं रही अब मुझे. लो सारी चांद रातें तुम रख लो. मैं अमावस की रातों पर अपने गम का चांद उगा लूंगी। बरसती हुई अमावस की रातों का स्वाद बहुत भाता है मुझे. कभी चखा है तुमने? नहीं...नहीं...ये स्वाद तुम्हारे लिए नहीं है.

धरती भी तुम रख लो, आसमान भी। मेरे लिए तो क्षितिज ही काफी है. अनंत के छोर पर दिखता एक ख्वाब सा क्षितिज.

देह भी तुम ही धरो प्रिय। निर्मल, कोमल, सुंदर देह। सजाओ, संवारो इसे। मेरे लिए तो मेरी रूह ही भली। जल्दी करो, समेटो अपनी चीजें। किसी के बूटों की आवाज आ रही है। सिपाही होगा शायद, या फिर कोई चोर-उचक्का भी हो सकता है.

मांगने लगेगा वो भी हिस्सा या फिर छीन ही लेगा वो तो सारी चीजें. तुम जल्दी से चले जाओ सब लेकर यहां से.

मुझे कुछ नहीं होगा. मेरी चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी किसी को जरा भी नहीं. मैं आजाद हूं अब दुनिया के हर ख़ौफ से।

Sunday, April 26, 2009

कविता ही बचायेगी



धीरे-धीरे खत्म हो रहा sab कुछ,
जीवन में घुलने लगा है
मीठा जहर

प्रेम ने कर लिया है किनारा।
कलाएं औंधे मुंह पड़ी हैं,
व्यावसायिकता सिर पर सवार है
लेकिन है वह भी खोखली ही।

घटनाएं अब हादसों मेंतब्दील हो चुकी हैं,
यातनाएं आदत में ही गई हैं शुमार।
दरख्तों पर चिडिय़ा नहीं
भय बैठता है इन दिनों।

खत्म हो रहा है सब कुछ
धीरे-धीरे और
ऐसे में हम लिख रहे हैं कविताएं
क्योंकि इस नष्ट होती धरती को
कविता ही बचायेगी एक दिन
देख लेना....
- प्रतिभा

Saturday, April 25, 2009

उफ़ ये भीगा हुआ अखबार !

कल लखनऊ के सारे अखबार खून से रंगे होंगे। लॉमार्टीनियर स्कूल के बच्चों की वैन सुबह-सुबह रोडवेज की बस से टकरा गई और पूरी सुबह में, शहर में दर्द घुल गया। एक बच्चे की मौत हो गई. कई घायल हुए. अखबार की दुनिया भी अजीब होती है. संवेदनशील होने के लिए कितनी बार संवेदनाओं का गला दबाना पड़ता है. सारा दिन एक्सीडेंट की फोटो, कवरेज, वर्जन, खबरों के एंगल इन्हीं सब में दिन बीता। कैसी मजबूरी है कि फिर उन्हीं हाथों में अगली सुबह अपने कलेजे के टुकड़ों को सौंपना है. जिं़दगी को फिर चलना है. ऊपरवाले का यह कैसा इंसाफ है? दिल दर्द से भरा है. काश! कोई कुछ कर पाता. कम कर पाता उन मां-बाप का दर्द. काश!
श्रधांजलि.....

Friday, April 24, 2009

प्रेम तो नसीब है!

कितने असहाय, कितने कमजोर, कितने निरीह हो गये दुनिया के सारे शब्द, जब दिल के भावों को जस का तस पहुंचने की बारी आयी. दुनिया का हर शब्दकोश निरर्थक, सारी भाषायें बौनी. कांपते होठ लेकिन शब्द खामोश. कोरों पर अटका हुआ एक आंसू ही काफी. दुनिया के सारे रूमानी शब्दों ने उस अनमोल आंसू के आगे सजदा किया और कहा प्रेम! सचमुच भाषाओं में, शब्दों में कहां समा पाते हैं भाव, जब बात प्रेम की होती है. तभी तो दुनिया के बड़े से बड़े साहित्यकार प्रेम का इजहार करते समय निरे मूरख ही नजर आये. किसी ने प्रेम में अपने भीतर के भय को व्यक्त किया, किसी ने अनंत की यात्रायें कीं. किसी ने शब्दों को आत्मा की तपिश में तपाकर सोना बना दिया, ताकि वे रूह में जज्ब हो सकें सदियों तक के लिए. कोई तो गुस्से में बिफर ही पड़ा कि तुम समझ जाओ ना सब कुछ, मुझसे नहीं कहा जा रहा कुछ भी.ऊंची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजरते प्रेम को दुनिया के मशहूर लोगों के करीब जाकरमहसूस करने का मकसद सिर्फ इतना सा था कि देखें तो जरा इनका क्या हाल हुआ था जब ये प्रेम में थे. बात साफ नजर आई कि सब के सब औंधे मुंह ही पड़े नजर आये। अव्यक्त को व्यक्त करने की पीड़ा में उलझे हुए. अनाड़ीपन में, उलझन में जो कुछ संप्रेषित हुआ वह दरअसल प्रेम की उदात्तता का एक जरा सा हिस्सा भर है.मेरे प्रिय कथाकार प्रियंवद कहते हैं कि प्रेम मनुष्य की स्वतंत्रता की प्रखरतम अभिव्यक्ति है. लेकिन देखिये जरा ये अभिव्यक्तियां इन पत्रों में कितनी कम अभिव्यक्त हो सकी हैं. यह प्रेम ही है जो इतना उदार हो सकता है कि दे सब कुछ और मांगे कुछ भी नहीं. कैसा होता है ये प्रेम है जो ईश्वर के करीब ले जाकर खड़ा कर देता है. जितना देता है, उतना ही मन भरता जाता है. सृष्टिकर्ता खुद सर पर हाथ फेरने को व्याकुल हो उठे, ऐसे प्रेम की पात्रता आसान तो नहीं. प्रेम अतिरेक है, जोखिम है, स्वतंत्रता है. अपने क्षुद्रतम से उठकर अपने ही उच्चतम की ओर जाने का प्रयत्न. खुद से खुद का मिलन. कोई नियम नहीं, कोई बंधन नहीं. हम सब कहीं न कहीं ऐसे गहन प्रेम की एक बूंद के अभिलाषी हैं, जो हमारे जीवन के मरुस्थल को समंदर बना दे. लेकिन प्रेम तो नसीब है और नसीब सबका कहां होता है. हम बस दुआ कर सकते हैं कि जब, कभी यह नसीब हमारे करीब से होकर गुजरे, तो कहीं हमसे ही टकराकर टूट न जाये, बिखर न जाये.
प्रेम से भरे इन पत्रों का ब्लॉग जगत में जिस तरह से स्वागत हुआ, उससे एक बात साफ जाहिर होती है कि भीतर ही भीतर ऐसे सच्चे प्रेम की कामना में सब कहीं न कहीं तरस रहे हैं. कॉफी के झाग में प्रेम का असल रूप गुमा नहीं है अभी तक। ब्लॉग जगत के नये दोस्तों का आभार, जिन्होंने पढऩे में दिलचस्पी दिखाकर हौसला बनाये रखा.रवींद्र व्यास जी का खासतौर पर शुक्रिया जिन्होंने वेब दुनिया पर मेरे ब्लॉग की सुंदरतम रूप में चर्चा की. अमर उजाला अखबार भी जिसने संपादकीय पेज पर मेरी दुनिया को जगह दी. कुछ अंतराल के बाद इसी तरह डायरी देने की योजना है. तब तक...मिलते रहेंगे.
- प्रतिभा

Thursday, April 23, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-१७ कहाँ ढूंढता तुम्हें मैं

25.8.१९७६
मेरी प्रिय,
....बाहर बारिश हो रही है। एक शदीद बारिश. पूरा कस्बा अंधेरे में डूबा हुआ है-सिर्फ यही जगह रोशनी से भरी है, ऐसे जैसे सारे शहर की रोशनी ने भागकर यहां शरण पा ली है. शायद यह जगह रोशनी ही नहीं मेरे लिए भी एक टापू की तरह है, जहां मैं सृष्टि के डूबने के बाद रह जाने वाले, शेष चिन्हों की तरह हूं. कभी-कभी मैं कल्पना करता हूं, ईश्वर के उस भयावह अकेलेपन की, जब सारी सृष्टि डूब जाती होगी और वह वट के पत्ते पर अकेला बचा रहता होगा. वह जरूरत पर किसे पुकारता होगा, प्रलय शून्य सन्नाटे में? उसकी पुकार, ढूंढकर उसी के पास उदास होकर लौट आती होगी. वह अपने ही कानों से सटी उस पुकार के बारे में क्या सोचता होगा? मुझे लगता है यदि मैं उस पत्ते पर अकेला रह जाता, एट द एंड ऑफ यूनिवर्स तो मैं उस पत्ते पर से तुमको पुकारता. ऐसा मैं इसलिए सोचता हूं कि जाने क्यों मेरे शब्दों पर मंडराती है, तुम्हारे हाने और कहीं भी होने की छाया. कभी-कभी वह छाया बहुत निकट जान पड़ती है. मेरे लिखे हुए शब्दों से तब उनकी ध्वनियां जैसे बाहर बिखरती-उफनती लगने लगती हैं. जैसे, तुम्हारा नाम लिखा तो उसमें से उसके साथ अर्थ की आभा बाहर बिखर रही है. लगता है तुम्हारा नाम लिखने का अर्थ पूरे कागज पर रोशनी का फैल जाना हो. और, इस नितांत ठोस अंधेरे में डूबे कस्बे में, छोटी सी रोशन जगह का होना, जैसे तुम्हारा नाम लिख देने से ही संभव हो गया हो. वहां दूर अंधेरे में डूबे कस्बे और उसके लोगों को कहां पता होगा कि यह जो इस वक्त रोशनी का टापू टिमक रहा है, वह क्यों है? कस्बा नहीं जानता कि मैंने बस अभी तुम्हारा नाम लिखा है.बाहर अंधेरा गहरा ठोस सा है और इस जगह से बाहर बहती हवा ऐसी लग रही है, जैसे वह काली और ऊंची दीवारों को ठकठकाती हुई दरवाजा टटोल रही हो, ताकि वह अंधेरे के घेरे से बाहर हो जो. पता नहीं कि ऐसे अंधेरे-डूबे आकाश में कोई आपातकालीन द्वार हो. पर, इन दिनों तो सारा देश जैसे आपातकाल का द्वार बना हुआ है. लोग आपातकाल का स्वागत कर रहे हैं. क्या आपातकाल एक संभावना है?बहरहाल, मैं भी इस अंधेरे से बाहर निकलने के लिए किसी आपातकालीन दरवाजे की तलाश में हूं, पर यह अंधेरा मेरे भीतर का है और तुम्हें खत लिखने की घड़ी आपातकालीन दरवाजे के, बरामद हो जाने की घड़ी जान पड़ती है. कभी-कभी तो मुझे तुम उस उपकरण की तरह लगती हो जिसे डॉक्टर्स गले में लटकाये रहते हैं. मुझे लगता है, मैं उनकी तरह तुम्हारे स्पंदन को पकड़ता रहता हूं, मसलन तुमको कानों के निकट लाकर सुनता हूं. बारिश की आवाज भी, कभी-कभी डॉक्टर्स अपने गले में लटके उस उपकरण को अपने कानों में लगाकर सुनते होंगे, अपनी ही धड़कन को. तुम तक खत के जरिये बार-बार लौटना ऐसा लगता है, जैसे हर बार कोई नया अविष्कार कर लिया हो. यह अविष्कार करने की निरंतरता ही मुझे यहां इतनी दूर जीवित बनाये रखती है. मुझे याद आती है, साइबेरिया से बार-बार भरतपुर के पोखर में उनका ऐसा क्या छूट जाता है, हर बार जिसे वे ढूंढने आते हैं-ढूंढने आते हैं या कि उस छूटे हुए को भर आंख देखने.यकीन रखो एक दिन मैं भी आऊंगा, तुम तक. यही देखने कि ऐसा क्या छूट गया था मेरा तुम्हारे पास, प्रलय से पहले. जब यह मैं लिख रहा हूं तो लगता है, तुम चुप हो. तुम्हारा मौन और-और तराश देता है मेरे उन शब्दों को, जो अभी बोले और लिखे ही नहीं गये हैं. तुम्हारे मौन की धार में तराशी भाषा को लेकर एक दिन तुम्हारे पास आकर रखूंगा और पूछूंगा, लैंगवेज का एस्थेटिक देखना चाहोगी? दरअसल, सच तो यह है कि फिलहाल तुम तक मैं सिर्फ भाषा में ही पहुंचना चाहता हूं। कभी सोचता हूं कि यदि सचमुच में ही पहुंच जाऊंगा तो भाषा का क्या होगा? एक अनुपयोगी पुल की तरह ढह जायेगी। भाषा के पुल के टूटे मलबे के दोनों छोरों पर हम होंगे। तुम्हारे कान तो नहीं सुन पायेंगे, उस पुल के ढहने की आवाज। पर मैं अपने गले में लिपटे उपकरण से जरूर सुन लूंगा, वह धड़ाम की आवाज। वक्त के तेजरफ्त बहाव में बह जायेगा पुल-और मैं वहां से लौट आऊंगा, अपने उसी सन्नाटे में। मैं तुमसे पूछ भी नहीं सकूंगा कि भाषा के मलबे को लांघकर आ सकोगी इस पार। फिर चलने से पहले पूछूंगा एक सवाल कि पुल क्यों बनते हैं और पुल क्यों ढहते हैं? फिर उदास हो जाऊंगा कि एक प्रश्न अपने असंख्य उत्तर रखता है-और कभी-कभी तो उससे एक भी उत्तर नहीं आता। और कभी-कभी आते हैं अनगिनत उत्तर।
बाकी फिर....
पुनश्च:- रात को खत लिखने के बाद, कल से लौटकर सोया और नींद में रातभर बिस्तर में लोट लगाते हुए। एक परिंदे की तरह पंख लगाकर तुम्हारे शहर पर मंडराता रहा उसकी गलियों और कूचों में मैं भागता रहा. कहां ढूंढता तुम्हें भाषा के घर में. आज भी बारिश हो रही है और हवा ऐसी बह रही है, जैसे शहर में रास्ता भटक गयी हो. मैं भी भाषा में भटककर वहां पहुंच गया, जहां मैं पहुंचूंगा भी कि नहीं.

प्रेम तो नसीब है....जारी....

Monday, April 20, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-१६ तुम मेरा बोधिवृक्ष

सुप्रिय,
थोड़ा तुम्हें अजीब लग सकता है, लेकिन अब इतनी दूर तक साथ चलते हुए मुझे लगने लगा कि तुम मेरे लिए जेंडर की, नाम या जाति की सीमाओं से परे मात्र एक ऐसा वजूद हो, जिसके भीतर से मैं गुजरता हूं और नितान्त किसी और लोक में चला जाता हूं। वहां की नागरिकता को हर कोई हासिल नहीं कर सकता। हो सकता है, उस लोक का मैं ही एकमात्र अकेला नागरिक होऊं। यदि वहां रहकर मुझे किसी से बात भी करना हो तो वापस तुम में से गुजरना होगा। क्या(...), तुम किसी ऐसे संसार की कल्पना कर सकती हो, जिसका ईश्वर और जिसका नागरिक एक ही और एकमात्र व्यक्ति ही हो! यहां तक कि तुम भी उस संसार के इस छोर पर रुका रह जाने वाला कोई चिन्ह हो? क्या तुम उस व्यक्ति के अकेलेपन के सुख या उस अकेलेपन के दु:ख की कल्पना कर पाओगी? बहरहाल, यह अलग बात है कि जब मुझे बात करनी होगी, मैं तुमको रचूंगा और बात करूंगा और कहने की जरूरत नहीं है कि मैं हर खत लिखते समय तुम्हें नये ढंग से रचता हूं। उन्नीस बरस के बाद मैंने तुम्हें अपने लिए और अपनी तरह से रचा। हालांकि, मैं विधाता नहीं हूं। लेकिन मैं तुम्हें रच-रच कर खुद को भी रचता ही हूं। क्योंकि, तुम्हें बीच में रखकर मैं खुद को बार-बार छानता हूं। एक बहुत क्षीण और सूक्ष्म से तार हैं, तुम्हारे होने के जिसके बीच से मैं गुजरता रहता हूं. और, अब मैं इतना बारीक हो गया हूं कि मेरा समूचा अस्तित्व सितारों पर उड़ती धूल की तरह है. तारों भरे आकाश की तरफ देखने का कभी तुम्हें मौका मिले तो मानना, वहां रोशनी की धूल की तरह मैं ही हूं.कल मैंने एक उपन्यास पढऩा शुरू किया था. द लास्ट टेम्पटेशन. यानी क्राइस्ट बनाम यीशू प्रभु की आखिरी कामना. इसमें लेखक ने एक कल्पना की कि क्राइस्ट को जब सूली पर चढ़ाया गया होगा तो मृत्यु के आखिरी क्षणों में उनकी इच्छा मेरी के साथ शारीरिक सुख के अनुभव की रही होगी. वही पवित्र मेरी, जिसे उन्होंने धूल से उठाकर इंसान होने का सम्मान दिया था. मुझे इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगा कि इसमें बहुत बड़ी जोखिम है. एक तो यह क्रिश्चियन बिलीफ की किरचें-किरचें उड़ा देता है, दूसरे मुझे यह महत्वपूर्ण लगता है कि क्राइस्ट की विश्वजनीन छवि के बावजूद उन्हें मनुष्य की तरह समझने की एक ईमानदार कोशिश की गयी है. यह कोशिश क्राइस्ट को गिराने और सेक्स की सनसनी बनाने के लिए नहीं है, बल्कि सत्य को ज्यों का त्यों रखकर समझने की है. अब प्रश्न यह उठता है कि सत्य क्या है? सत्य को जानने के नाम पर हम भारतीय भी यह जानते हैं कि यह नहीं, यह नहीं (अर्थात नेति-नेति) अर्थात हम केवल झूठ को पकड़ते हैं और कहते है, यह सत्य नहीं. नतीजतन, अंतहीन विश्लेषण करते जाते हैं. अत: द लास्ट टेम्पटेशन का लेखक यही जानने की कोशिश करता है कि ईसा के बियांड भी कुछ था या ईसा भी एक देह का ही नाम था. क्या कोई भी, आदमी होने को फलांगकर अवतार पुरुष हो सकता है? क्या देह को रखकर बुद्ध या महावीर नहीं बना जा सकता है? मैं बुद्ध का या महावीर का अपमान किये बगैर यह बात कहना चाहता हूं कि क्या मनुष्य हुए बगैर सीधे-सीधे कोई ईश्वर हो सकता है?मुझे उपन्यास इसलिए अच्छा लगा कि लेखक क्राइस्ट के भीतर देह की तलाश क्राइस्ट के लिए नहीं अपने लिए करता है. यह क्राइस्ट की पूज्य छवि का ध्वंस नहीं है. यह वैसा ही है कि एक साधारण आदमी और बुद्ध के देह होने में अलग कहां होते हैं? यहां सेक्स और महानता दोनों प्रश्न की तरह हैं. क्राइस्ट तो एक बहाना है. क्राइस्ट को इस सच्चाई से छानकर देखना अपनी छुद्रता से मुक्त होना है. क्या भारतीयों ने श्रीमती इन्दिरा गांधी या लता मंगेशकर के जीवन में देह के अर्थ को सामने रखकर कभी कुछ लिखने की कोशिश की? महादेवी और मीरा के जीवन में भी देह है और वे उसे लांघकर कहां और किधर गईं? हम मिथ की मीरा या मिथ के क्राइस्ट या मिथ के महावीर को लांघकर उन्हें समझने की कोशिश करें, तो पायेंगे कि सेक्स के ऊपर कैसे उठा जा सकता है? क्या साधना के दौरान बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर उन्हें यशोधरा का स्वप्न आया होगा कभी? मुझे तो यही लगता है कि मैं चुप-चुप हमेशा आदमी होने की सीमा से जूझता रहता हूं. और जूझकर वहां चला जाता हूं, जहां सिर्फ मैं ही अकेले नागरिक की तरह टहलता रहता हूं. मुझे तो लगता है द लास्ट टेम्पटेशन एक महान कृति का दर्जा चाहे हासिल न कर पाये, लेकिन क्राइस्ट के बहाने मनुष्य होने की पीड़ा को फलांगकर देखने की कोशिश है. कभी तुमको पढऩे भेजूंगा. प्रिय, कभी-कभी इच्छा होती है, तुम्हारा घर किताबों से भर दूं. कुछ किताबें मुझे ऐसी लगती हैं, जिनकी हर लाइन पढ़कर, उसकी व्याख्या करके तुम्हें बताना चाहता हूं. मैं अच्छा लेखक चाहे न बन पाऊं पर मैं एक बहुत गहरा पाठक बनना चाहता हूं. यह ज्ञान मुझे बहुत पहले प्राप्त हो गया था. तुम्हें खत लिख-लिखकर तो और भी ज्यादा. तुम मेरा बोधिवृक्ष हो, जहां मैं आंख मूंदकर चुपचाप बैठा रहता हूं. एक दिन मैं तुम्हारे पास आऊंगा. पुस्तकों का एक बड़ा सा गट्ठर लेकर. इससे प्यारी चीज तुम्हारे लिए क्या होगी. बाकी ठीक.
तुम्हारा........

प्रेम पत्रों की अन्तिम कड़ी कल....

Saturday, April 18, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-15 आम आदमी (शब्दों से पार प्यार)

4। 6। ७६
प्रिय....
तुम्हारे खत में यह शब्द पढ़कर मैं भीतर ही भीतर गहरे तक उदास हो गया। लेकिन बाहर से खुद को बचा ले जाने के पुराने अभ्यास ने इमदाद की और आंख को गीली होने से बचा ले गया. तुम अच्छी तरह जानती हो कि यह शब्द मेरी आत्मा का पर्याय है. कभी-कभी वहम होता है कि यह शब्द पहले जन्मा कि मैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस शब्द का दूसरा नाम, मेरा ही नाम न हो. जब यह शब्द तुम्हारे पास बरामद हुआ तो मैं चौंक गया. मेरे भीतर से निकलकर कहां चला गया, तुम्हारे भीतर? इतनी छोटी उम्र में? क्या बता सकोगी, इस सवाल का उत्तर?क्या बताऊं, अभी तक भाषा का गला भरता था और शब्द की आंख डबडबा आती थी-लेकिन, आज शब्द नहीं, मैं रोया. क्योंकि आज ही तो साफ की मैंने अपने अतीत के आइने की धूल.वैसे तुम जानती हो कि अफसोस शब्द समूचे साहित्य का मूलभाव है. दुनिया की तमाम महान कृतियां किसी पश्चाताप के बोध की ही पैदाइशे हैं. दैट इज व्हाई गिल्ट इज एक इंपॉर्टेंट वर्ड. इट टेल्स अस व्हाट वी हैव डन रांग. तुम्हें क्या बताऊं होल ऑफ माई लाइफ हैज बीन द टेस्टिमोनी ऑफ माई वीकनेस. प्रेम और पश्चाताप शायद एक तरह से डिवाइन डायक्टमी हैं. दोनों एक तरह के युद्ध की किस्में हैं. अदृश्य और धारावाहिक. मैं भीतर हरदम परेशान रहता हूं. एज इफ देयर इज ग्रोइंग अ डिस्कम्फर्ट इनसाइड मी. एक किस्म की सफरिंग है. तमाम रिश्ते और खासकर ऐसे, जिनकी ठीक-ठीक सी परिभाषाओं के लिए हम परेशान रहते हैं. परिभाषा हमें अपने लिए नहीं, उन लोगों के लिए चाहिए जो एक दिन सवाल करेंगे हमसे. और तब हमारे पास चुप रह जाने के सिवा कुछ नहीं होगा. क्या कुछ रिश्तों के उत्तर सिर्फ चुप्पियों में ही होते हैं.मेरे लिए तुम क्या हो नहीं जानता पर यू आर नॉट अ सिंपल गर्ल ऑर अ पर्सन विद एन अपोजिट सेक्स, रैदर समथिंग डिफरेंट, दैट इज टु गेट डिफाइंड एज अ सोल मेट. दिस मे नॉट बि द न्यू एंड अनयूजुअल वर्ड फॉर दैट यू हैव टु टर्न द पेजेस ऑफ डिक्शनरी. द कॉमनली यूज्ड वड्र्स कैन ऑफेन मिसडिफाइंड, सो मे कॉज कनफ्यूजन्स.पश्चाताप को लेकर शायद दॉस्तोएव्स्की ने ही सबसे सुंदर कहानियां लिखी हैं. कहते हैं दॉस्तोएवस्की ने किसी कच्ची उम्र की बालिका के साथ शारीरिक सलूक जैसा कर लिया था और इसी कारण एक गिल्ट उसके भीतर कहीं जगह कर गयी थी. मुझे लगता है कि कुन्ती की आंख में अर्जुन नहीं, कर्ण को लेकर आंसू कहीं ज्यादा गाढ़े और मोटे आये होंगे. बहरहाल, मेरे भीतर तो अफसोस या पश्चाताप जैसा शब्द बहुत पहले से है, वजह यह कि मैंने बहुत से जरूरी काम या तो वक्त से बहुत पहले कर लिए या वक्त के बहुत बाद-और दोनों ही स्थितियों में एक ही शब्द हाथ लगता है और वह शब्द है अफसोस. इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि मेरी आंखों की साइज सपनों के हिसाब से उपयुक्त नहीं थी. तुम ही सोचो जख्मी आंखों से सपने देखना सपनों को लहूलुहान कर लेना होता है, और मेरे भीतर यह भय हमेशा बना रहा है. मैं गहरी झिझक के साथ कहना चाहता हूं कि तुम्हें खत लिखते हुए हरदम एक संदेह बना रहता है कि मालूम नहीं कि मैं कितना हूं तुम्हारे भीतर. हूं भी कि नहीं. वैसे, बाहर भी कितना हूं मैं अपने से और अपने लिए. एक सन्नाटा चलहकदमी करता रहता है मेरे भीतर और मेरे बाहर भी, जिसके बीच अकसर चूकने की चीखें भी गूंजती रहती हैं. ऐसे में पूरा का पूरा घर भी मुझमें अपनी सांस ले रहा लगता है, क्योंकि अभी भाइयों की पढ़ाई और नौकरियां लगना शेष है, एक अंधेरा है, जिसके भीतर भी अंधेरा ही छुपा हुआ है. इसीलिए हर बार तुम्हें खत लिखते हुए कुछ जरूरी शब्द लिखने से इरादतन बाहर रह जाते हैं. सैकड़ों ऐसे वाक्य ज़ेहन में आये, मगर वे लिखे जाने के पहले ही गुमशुदा की फेहरिस्त में शामिल हो गये.बस मुझे लिखना ही बिखरने से बचाता रहा है. तुम्हारे खतों की निरंतरता भी इसमें बहुत इमदाद करती है लेकिन यह सोचकर डर जाता हूं कि कहीं यह लड़की खत लिख-लिखकर मुझ पर परोक्ष दया तो नहीं कर रही हूं. मुझे कीर्केगार्द की याद आ रही है, जिसे एक लड़की के दयाबोध ने तोड़ दिया था. पर मैं ऐसे ख्याल को झटककर सोचता रहा हूं. माई ग्रेटेस्ट वेल्थ इज दैट यू लाइक टु लिसन मी, यू रीड माई राइटिंग्स एंड अडोर मी. आई डोंट वांट एनी अवॉर्ड ऑर रिवॉर्ड फॉर माईसेल्फ, सिंस आई एम कान्सटेंटली चाज्र्ड बाई द रेसपेक्ट, लव, अफेक्शन, आई रिसीव फ्रॉम यू. दैट इज व्हाई आई एम क्रिएटिवली अलाइव अमंग टीज सरकमस्टांसेस. नहीं जानता हम कहां होंगे. टाइम विल टेल, हू इज अराउंड, व्हेन इयर्स विल रोल बाई. तुम्हारे नाम का अर्थ चाहे बहुत कीमती चीज का पर्याय हो-लेकिन वह एक धीमी और आत्मदीप्त-सी रोशनी का नाम भी तो है. यह मेरे भीतर एक कांपती लौ की तरह धीमे-धीमे टिमकता रहता है हर क्षण, बाकी ठीक. आई एम फिटेड टु स्टे अलोन इन द लाइफ.
तुम्हारा.............
सिलसिला जारी....

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-15 शब्दों से पार प्यार

4.12.76

प्रिय....

तुम्हारे खत में यह शब्द पढ़कर मैं भीतर ही भीतर गहरे तक उदास हो गया. लेकिन बाहर से खुद को बचा ले जाने के पुराने अभ्यास ने इमदाद की और आंख को गीली होने से बचा ले गया. तुम अच्छी तरह जानती हो कि यह शब्द मेरी आत्मा का पर्याय है. कभी-कभी वहम होता है कि यह शब्द पहले जन्मा कि मैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस शब्द का दूसरा नाम, मेरा ही नाम न हो. जब यह शब्द तुम्हारे पास बरामद हुआ तो मैं चौंक गया. मेरे भीतर से निकलकर कहां चला गया, तुम्हारे भीतर? इतनी छोटी उम्र में? क्या बता सकोगी, इस सवाल का उत्तर?क्या बताऊं, अभी तक भाषा का गला भरता था और शब्द की आंख डबडबा आती थी-लेकिन, आज शब्द नहीं, मैं रोया. क्योंकि आज ही तो साफ की मैंने अपने अतीत के आइने की धूल.वैसे तुम जानती हो कि अफसोस शब्द समूचे साहित्य का मूलभाव है. दुनिया की तमाम महान कृतियां किसी पश्चाताप के बोध की ही पैदाइशे हैं. दैट इज व्हाई गिल्ट इज एक इंपॉर्टेंट वर्ड. इट टेल्स अस व्हाट वी हैव डन रांग. तुम्हें क्या बताऊं होल ऑफ माई लाइफ हैज बीन द टेस्टिमोनी ऑफ माई वीकनेस. प्रेम और पश्चाताप शायद एक तरह से डिवाइन डायक्टमी हैं. दोनों एक तरह के युद्ध की किस्में हैं. अदृश्य और धारावाहिक. मैं भीतर हरदम परेशान रहता हूं. एज इफ देयर इज ग्रोइंग अ डिस्कम्फर्ट इनसाइड मी. एक किस्म की सफरिंग है. तमाम रिश्ते और खासकर ऐसे, जिनकी ठीक-ठीक सी परिभाषाओं के लिए हम परेशान रहते हैं. परिभाषा हमें अपने लिए नहीं, उन लोगों के लिए चाहिए जो एक दिन सवाल करेंगे हमसे. और तब हमारे पास चुप रह जाने के सिवा कुछ नहीं होगा. क्या कुछ रिश्तों के उत्तर सिर्फ चुप्पियों में ही होते हैं.मेरे लिए तुम क्या हो नहीं जानता पर यू आर नॉट अ सिंपल गर्ल ऑर अ पर्सन विद एन अपोजिट सेक्स, रैदर समथिंग डिफरेंट, दैट इज टु गेट डिफाइंड एज अ सोल मेट. दिस मे नॉट बि द न्यू एंड अनयूजुअल वर्ड फॉर दैट यू हैव टु टर्न द पेजेस ऑफ डिक्शनरी. द कॉमनली यूज्ड वड्र्स कैन ऑफेन मिसडिफाइंड, सो मे कॉज कनफ्यूजन्स.पश्चाताप को लेकर शायद दॉस्तोएव्स्की ने ही सबसे सुंदर कहानियां लिखी हैं. कहते हैं दॉस्तोएवस्की ने किसी कच्ची उम्र की बालिका के साथ शारीरिक सलूक जैसा कर लिया था और इसी कारण एक गिल्ट उसके भीतर कहीं जगह कर गयी थी. मुझे लगता है कि कुन्ती की आंख में अर्जुन नहीं, कर्ण को लेकर आंसू कहीं ज्यादा गाढ़े और मोटे आये होंगे. बहरहाल, मेरे भीतर तो अफसोस या पश्चाताप जैसा शब्द बहुत पहले से है, वजह यह कि मैंने बहुत से जरूरी काम या तो वक्त से बहुत पहले कर लिए या वक्त के बहुत बाद-और दोनों ही स्थितियों में एक ही शब्द हाथ लगता है और वह शब्द है अफसोस. इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि मेरी आंखों की साइज सपनों के हिसाब से उपयुक्त नहीं थी. तुम ही सोचो जख्मी आंखों से सपने देखना सपनों को लहूलुहान कर लेना होता है, और मेरे भीतर यह भय हमेशा बना रहा है. मैं गहरी झिझक के साथ कहना चाहता हूं कि तुम्हें खत लिखते हुए हरदम एक संदेह बना रहता है कि मालूम नहीं कि मैं कितना हूं तुम्हारे भीतर. हूं भी कि नहीं. वैसे, बाहर भी कितना हूं मैं अपने से और अपने लिए. एक सन्नाटा चलहकदमी करता रहता है मेरे भीतर और मेरे बाहर भी, जिसके बीच अकसर चूकने की चीखें भी गूंजती रहती हैं. ऐसे में पूरा का पूरा घर भी मुझमें अपनी सांस ले रहा लगता है, क्योंकि अभी भाइयों की पढ़ाई और नौकरियां लगना शेष है, एक अंधेरा है, जिसके भीतर भी अंधेरा ही छुपा हुआ है. इसीलिए हर बार तुम्हें खत लिखते हुए कुछ जरूरी शब्द लिखने से इरादतन बाहर रह जाते हैं. सैकड़ों ऐसे वाक्य ज़ेहन में आये, मगर वे लिखे जाने के पहले ही गुमशुदा की फेहरिस्त में शामिल हो गये.बस मुझे लिखना ही बिखरने से बचाता रहा है. तुम्हारे खतों की निरंतरता भी इसमें बहुत इमदाद करती है लेकिन यह सोचकर डर जाता हूं कि कहीं यह लड़की खत लिख-लिखकर मुझ पर परोक्ष दया तो नहीं कर रही हूं. मुझे कीर्केगार्द की याद आ रही है, जिसे एक लड़की के दयाबोध ने तोड़ दिया था. पर मैं ऐसे ख्याल को झटककर सोचता रहा हूं. माई ग्रेटेस्ट वेल्थ इज दैट यू लाइक टु लिसन मी, यू रीड माई राइटिंग्स एंड अडोर मी. आई डोंट वांट एनी अवॉर्ड ऑर रिवॉर्ड फॉर माईसेल्फ, सिंस आई एम कान्सटेंटली चाज्र्ड बाई द रेसपेक्ट, लव, अफेक्शन, आई रिसीव फ्रॉम यू. दैट इज व्हाई आई एम क्रिएटिवली अलाइव अमंग टीज सरकमस्टांसेस. नहीं जानता हम कहां होंगे. टाइम विल टेल, हू इज अराउंड, व्हेन इयर्स विल रोल बाई. तुम्हारे नाम का अर्थ चाहे बहुत कीमती चीज का पर्याय हो-लेकिन वह एक धीमी और आत्मदीप्त-सी रोशनी का नाम भी तो है. यह मेरे भीतर एक कांपती लौ की तरह धीमे-धीमे टिमकता रहता है हर क्षण, बाकी ठीक. आई एम फिटेड टु स्टे अलोन इन द लाइफ.तुम्हारा.............सिलसिला जारी....

Friday, April 17, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-१४ आम आदमी मौत और प्रेम

पिछले पत्र के आगे का अंश.....

.........सुनो मैंने मृत्यु को नहीं देखा। शायद रिल्के ने देखा था। अपनी टेबल पर। लेकिन इन दिनों मुझे वह निरंतर घेरे रहती है। कभी-कभी तो लगता है वह मेरे साथ मेरे कमरे में रह रही है और किसी भी दिन नींद में मुझे दबोच लेगी. अपने ऐसे और इतने निष्करुण अंत की कल्पना से डर जाता हूं. कच्ची नींद टूट जाती है, आधी रात. और मैं तुम्हें खत लिखने बैठ जाता हूं. शायद मेरे भीतर कुछ है, जो धीरे-धीरे मर रहा है. एक खूंखार मृत्युबोध से निबटने की तैयार की एक भोली किस्म है, तुम्हें खत लिखना. काफ्का यही किया करता था शायद. देखा, खत एक एस्थेटिक से शुरू किया था और केयॉस पर खत्म होने जा रहा है. ऐसा क्यों होता है? कई बार हम फूलों को हाथ में लेकर चलने का संकल्प बनाते हैं और चाकू आ जाता है जाने कहां से, जो मुझे ही लहू-लुहान करने लगता है. क्या मेरी मृत्यु का समय निकट आ रहा है?वैसे यह सारा समय ही मृत्यु का समय है. चारों तरफ चुप्पी है लेकिन यह भविष्य के लिए खौलता-बदबदाता वर्तमान है, जो एक दिन पोलिंग बूथ को प्रयोगशाला में बदल देगा. चुप्पी के नीचे चीख है जो अंधेरे में भरे ठसाठस आकाश में एक दिन छेद कर देगी और रोशनी फूटेगी ऐसी जैसे मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में के अंत में कमरे में फूटती है. लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तमाम लोग हाथों को जेबों में खोंसकर चुपचाप खड़े हैं. जेबें हथकडिय़ों की नयी किस्म हैं. कोई मुट्ठी बांधकर नहीं चीख और कहूं क्राई माय बिलेविड कंट्री क्राई. इमरजेंसी इसी से ही चिंदा-चिंदा हो पायेगी, वरना तो वह एक सफेद कफन की तरह जनतंत्र की देह पर लिपटी रहेगी. यह कफनग्रस्त समय है. जबकि असलियत में ये समय पूरी देह पर नहीं, सिर्फ सर पर कफन बांधने का है. लेकिन कफन को हमारा बुद्धिजीवी वर्ग टुकड़े-टुकड़े कर के रुमालों की तरह हवा में हिला रहा है. लोग अभिव्यक्ति को विदाई दे रहे हैं. ऐसे में मुझे बार-बार मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में याद रही है. मुझे तो डोमाजी उस्ताद की शक्ल दिखाई देती है. एक शीर्ष नेता के बेटे के चेहरे में.देख ही रही होगी कि मैं लिखते-लिखते कैसे वह किस तरह तथा किस तरफ भटक जाता हूं. डायरी लिखने का इरादा बनाता हूं और तुम्हें खत लिखने की तरफ मुड़ जाता हूं, जबकि तुम कितना संतुलित लिखती हो. तुमसे लिखते वक्त एक भी हर्फ हलाक नहीं होता, लिखे जाने के बाद. मैं कितने-कितने तो शब्दों को लिखने के बाद काट देता हूं, जैसे उस पर से भरोसा उठ गया है और तुम्हारे पास पहुंचकर कोई दूसरा अर्थ प्रकट कर देगा. यह संदेह है भीतर का. बेचैनी है जो शब्दों को हताहत कर डालती है. तुमसे ईष्र्या होती है कि तुम्हारी अभिव्यक्ति कितनी सधी और संतुलित है. जैसे किसी बारीक तार पर चलकर आती हो तुम मुझ तक. बिना कदम डगमगाये. धर्मयुग में प्रकाशित तुम्हारी कविता पर मैंने कितने हिंस्र मुहावरे में टीका-टिप्पणी कर दी थी. उन निष्करुण शब्दों के उपयोग पर आज भी अफसोस होता है. इधर सारिका में वह कहानी स्वीकृत हो गयी है तथा भारती जी की चिट्ठी आयी है, ताजा कहानी भेजने के लिए. वैसे, मैंने पिछले हफ्ते ही एक प्रेम कहानी पूरी की है. कहानी छपेगी तो तुम पढ़कर हंसोगी. तुम्हारी हंसी के नीचे दब जायेंगी दोस्तों की आलोचनाएं. तुम उसमें खुद को बरामद करके क्या सोचोगी?तुम्हें कैसे बताऊं कि कहानी लिखने के दौरान मैंने तुम्हें कहां-कहां से बटोरा. बटोरते हुए आंखों को गीली होने से रोक नहीं पाया. प्रेम हंसते हुए होठों पर नहीं गीली आंख से कहीं ज्यादा बाहर आता है. कहानी पूरी करने के बाद मैं तसल्ली से रोना चाहता था. कमरे में नहीं, संसार की सबसे ऊंची इमारत पर खड़ा होकर. तुम ही बताओं जब लोग हिंसा, हत्या खुलेआम कर सड़कों पर करते हैं तो खुले में या सड़क पर रोया क्यों नहीं जा सकता? लिखने के बाद मैं देर रात गये, धीमी-धीमी बारिश में, गीली सड़कों पर दूर तक बिना छतरी के भीगता हुआ चलता रहा. गीली आंख के साथ. कहानी बीच बारिश के बारह दिनों में लिखी. तुम्हारा पिछले जन्म में कहीं वर्षा नाम तो नहीं था. अगर रहा तो आओ और बरस जाओ इस जंगल पर. धारो-धार. मैं भीग जाना चाहता हूं.आज लिखने के पहले चाहा यही गया था कि पत्र छोटा लेकिन प्यारा हो. मगर जब कलम उठाकर लिखने लगता हूं तो भाषा की सतह को भेदकर धीरे-धीरे नीचे जाने लगते हैं. अपने अर्थों के साथ. तुम जानती हो कि तुम्हें लिखे गये तमाम खत बहुत चौकन्नी भाषा में नहीं लिखे गये हैं. वह सावधानी एक सिरे से नदारद है. अत: तुम्हारे साथ बदसलूकी भी करते होंगे. पर, अब मुझे इसकी चिंता नहीं है. मुझे वर्जीनिया वुल्फ की याद आ रही है. उसने ऐसे ही बौराये शब्दों को नाथकर शायद लिखा था- लीव द लेटर्स टिल वी आर डेड. देखा, फिर मृत्यु के निकट जाकर ठिठक गया. शायद भीतर ही भीतर मैं किसी असाध्य से जान पडऩे वाले रोग से घिरने वाला हूं....को खत लिखा था, उसने कहा है कि किसी मेडिकल टीचिंग इंस्टीट्यूट में एक दफा सारे इंवेस्टिगेशन करवाये जाने जरूरी हैं. बट आई हैव बीन ग्रॉपिंग डीप इनटु द अनइंवेस्टिगेटेड डेप्थ ऑफ माई ओनसेल्फ. रात बहुत बीत चुकी है. ईश्वर भी अपने सारे काम निबटाकर सोने चला गया है. अब मैं सोऊं या कि ईश्वर के छूटे काम की निगरानी अपने मत्थे पर लेकर, ये रात जागती आंखों में काट दूं?
तुम्हारा .......

सिलसिला जारी ....

Thursday, April 16, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र- १३ आम आदमी शब्दों की सौगात

28।8।७६
प्रिय.......
एक चिरन्तन सी जान पडऩे वाली बदहवासी के दरम्यान जब तुम्हारा कोई खत नहीं मिलता, तो मैं यहां चुपचाप अजनबी शहर में किताबों के बीच दबे तुम्हारे पुराने खतों को खोलकर पढऩे लगता हूं। उन्हें पढ़ते हुए इस अंधेरे में भी सहसा फैल जाती है, अपने छूटे हुए शहर की धूप। जिसके हाशिए में छोड़ जाता था, पोस्टमैन तुम्हारे खत। खत और धूप एकमएक लगते.बहरहाल, आज की इस मटमैली उदासी की धज्जियां उड़ाने के इरादे से मैंने तुम्हारे पिछले खत खोले, जिनमें छोटे वाक्य और बड़े पूर्ण विराम हैं. खोलकर बनिस्बत पहले से कुछ और अधिक ही उदास हो आया. खत पढ़ते हुए तुम्हारे तमाम लिखे गये शब्द, बोले गये बनने लगे. पूर्ण विरामों के बीच ऐसा लगा, जैसे तुम सांस लेने को ठिठकी हुई हो. एक ब्रीदिंग स्पेस है वहां. जहां तुम्हारी झिझक और तुम एक साथ हो. तुम्हारे द्वारा बोलने से रह गये शब्दों को सिर्फ मैं ही सुन सकता हूं. पहले और कई बीत गये दिनों में उठने वाली इच्छा इस समय फिर मेरे सामने है कि मैं तुम्हारी आवाज को सुनूं. पर यह तभी संभव हो सकता था जब फोन होता. सोचो तब क्या होगा, जब मैं फोन के इस छोर पर तथा दूसरे छोर पर तुम होओगी. कुछेक क्षणों तक तो हम आपस में ऐसी भाषा में बात करेंगे कि जो मौन में गिरती जायेगी. उसे कोई भी नहीं पढ़ पायेगा. न उपकरण और न उपकरण वाले लोग. यदि कोई उसे सुनकर लिखना चाहेगा भी, तो बताओ भला लिखेगा ही कैसे? कभी-कभी सोचता हूं, मैं तुम्हारे और अपने संबंधों पर लिखूं एक किताब, जिसमें एक भी हर्फ न हो. जब हम दोनों एक के बाद एक पढ़ेंगे वह किताब, तो उसके पारायण के बीच खाली हो जायेगा संसार. सिर्फ हम भर रह जायेंगे किताब को पढ़ते हुए. सिर्फ हमारी आवाज रह जायेगी अन्तरिक्ष में. एक-दूसरे को पहचानती हुई. एक-दूसरे में समाती हुई. अभी जब मैंने तुम्हारे लिखे गये को बोले गये की तरह सुना तो यही लगा. जैसे सिर्फ यह एक रेसोनेंस है, जिसकी तरफ मेरे कान खुल गये हैं. तुम्हारे खतों को पढ़ते हुए याद नहीं रहा कि मैं किस समय में हूं. ऑलमोस्ट लाइक पास्ट इन प्रेजेंट एंड प्रेजेंट इन पास्ट. एक अनवरत और गड्मगड्ड समय, जिसमें तुम्हारा होना भर रह गया है चारों तरफ.दरअसल, बारह दिनों की शदीद बारिश के बाद आज दस मिनट के लिए धूप खिली, पेड़ हंसे और मैं बेतरह उदास हो गया. इसलिए कि प्रकृति की इस खूबसूूरती को देखने के लिए इस जंगल से जान पडऩे वाले शहर में मैं अकेला था. कहीं कोई आंख नहीं, इस सुख को बांटने के लिए. तुम भी इतनी दूर और अमूर्त कि कहीं किसी किस्म के कोई संवाद की संभावना ही नहीं. पर धीरे-धीरे अब एक बेसब्री उतरती जा रही है, लगातार. तुमसे संवाद करने की. मगर चाहता हूं तुमसे संवाद सर्वश्रुत शब्दों में बिलकुल नहीं हों. कभी-कभी अकेले में सोचता हूं कि तुम्हारे पास भेज दूं अपने ढेर सारे शब्द जो मेरी आत्मा की आंच में लगातार तपते रहे हैं. तवील वक्फे से. ट्यून्ड ऑन लेटेंट हीट ऑफ माई ब्लड. ऐसे शब्द अचानक एक दिन किसी जुनून में भेज दूंगा, तुम्हारे पास. किसी दिन जब तुम काम करते-करते थक जाओगी, तो तुम्हारे पास अचानक पहुंचेंगे मेरे वे ढेर सारे शब्द. एक शब्द तुम्हारा चश्मा उतारकर रख देगा टेबल पर. एक शब्द भिड़ जायेगा चुपचाप तुम्हारा जूड़ा ठीक करने में, एक शब्द पोछने में लग जायेगा तुम्हारी उदासी. एक शब्द पोछेगा तुम्हारी बरौनियों को...और सुनो, एक शब्द गोता लगाकर तुम्हारी नम सांस के सहारे पहुंच जायेगा तुम्हारे भीतर. जहां जाने कितने दिनों से दबी पड़ी होगी तुम्हारी कुम्हलाई हंसी. हो सकता है वह शब्द उस हंसी के पास पहुंचकर वहीं उसी के साथ खिलखिलाता रह जाये. ऊपर और बाहर आये ही नहीं. पता नहीं चले, तुम्हारे होठों को कि वह शब्द भीतर रुका हुआ है. तुम्हारी हंसी से बात करता हुआ. और....सचमुच एक शब्द ऐसा भी होगा, जो तुम्हारी नब्ज के भीतर उतरेगा और कभी भी बाहर नहीं आयेगा. वहीं पड़ा रहेगा. जब तुम अपनी सौ साल की उम्र पूरी करने के बाद विदा लोगी इस संसार से. राख में चिता से फूल चुनते हुए अचानक तुम्हारे बेटे की अंगुली में कुछ अटक जायेगा. वह राख झाड़कर देखेगा. और विस्मय से भरकर सबको दिखाकर पूछेगा-ये क्या है? कोई उत्तर नहीं दे पायेगा उसके प्रश्न का. देह की धीमी आंच में सौ बरस तक तपते रहने वाला शब्द, चिता की लकडिय़ों की आग में इतना रूप बदल लेगा कि उसे किसी की भी आंख नहीं पहचान पायेगी. आकाश में से झांकता ईश्वर उदास होकर पछतायेगा अपने गूंगेपन पर. तब तुम हवा में अदेह सी चलती हुई जाओगी और अपनी चिता के पास ठिठककर कहोगी-प्रेम. बुझी चिता को घेरे खड़ी खामोश भीड़ में से किसी के भी कान नहीं सुन पायेंगे तुम्हारे द्वारा बोले गये उस शब्द को. मैं मृत्यु की तरफ देखकर मुस्कुराऊंगा और मृत्यु अपनी असफलता पर दांत पीसकर ईष्र्या के साथ कहेगी-प्रेम...., प्रेम...उफ्फ प्रेम...!

यही पत्र कल भी जारी....

Tuesday, April 14, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र- १२ आम आदमी

22.8. ७६
प्रिय ....
ऐसा पहली दफा हो रहा है कि मैं अपने शहर को छोड़कर किसी और तथा अजनबी शहर को छोड़कर किसी और अजनबी शहर की बारिश में हूं। वहां की बारिशें इतनी अधिक प्यारी और पुरख्लुस हो रही हैं कि मेरे ज़ेहन में उसका अक्स ताजिंदगी बना रहेगा। वहां की बारिश में भीगना, छोटी सी पहाड़ी का बादलों से घिर जाना, रात में बारिश की बौछारों की धुंधलाती बत्तियों का जो नूर होता है-वह सब मेरे साथ चलता रहता है। यहां भी. आज भी पहले की तरह चाहा यही tha कि हल्की-फुल्की बारिश में नहाते और हवा की जाने किन-किन बातों पर सिर हिलाते दरख्तों की कतारों के बीच से गुजरती गीली सड़क पर पीली बत्तियों की रोशनियों के रिफलेक्शंस, देखूंगा और इसी बहाने अपने भीतर के छूटे शहर को जी लिया जायेगा. यह एक छोटा सा मगर बहुत अजीज सा सुख था, जिसे अंधेरे में अकेले चलते हुए चुपचाप जीना चाहता और यकीनन उसे मैंने जिया भी.लेकिन आखिरकार उस सुख ने अपनी कीमत मांग ही ली. दरअसल, रात को दफ्तर से अपने कमरे तक पहुंचने के लिए मैंने कार नहीं ली. पैदल चलना चुना. मगर, थोड़ी देर में मैंने पाया कि एक शदीद बारिश के बीच में हूं. गालिबन बारिश ने मुझे इतना अकेला देखकर घेरने की ठान ली हो. घर (?) तक के रास्ते के बीच मैं नहा-नहा गया. कमरे में देह सुखाने के लिए पंखा चलाया और देर रात तक खिड़की से पलंग सटाकर बारिश को आसमान से घटते एक जादू की तरह देखता रहा. बारिश को देखना और सुनना दोनों ही मेरे लिए एक चमत्कार था.इसी की वजह है कि आज दिन भर से धीमी-धीमी आंच में तप रही है अपनी देह. जैसे जूड़ी ताप में भीतर ही भीतर से सुलगता जान पड़ता है शरीर. इस समय पूरे शरीर को चारों तरफ से लपेटकर लेटे-लेटे, तुम्हें यह खत लिख रहा हूं. खत लिखते हुए काफ्का की याद हो आयी. वह जीवन भर हल्के-हल्के बुखार में तपता रहा था. अपनी ही देह की धीमी आंच में तपते हुए उसने लिखे थे अपनी मिलेना को खत. तुम ही सोचो, काफ्का को कहां पता होगा कि उसके द्वारा बुखार में लिखे गये खतों से एक दिन समूचा वल्र्ड लिट्रेचर उसी तरह धीमी-धीमी आंच में तप उठेगा. दरअसल, आज सारे विश्व साहित्य को काफ्का का बुखार चढ़ चुका है. माक्र्सवादी लेखक चाहे इसे न मानें लेकिन काफ्का ने जो अपने अकेलेपन की आंच से अभिशप्त रहकर लिखा, वह कालातीत है. वह इतना डूबकर लिखता था कि उसे पढ़ते हुए अपनी आत्मा भी तपने लगती है. मुझे ऐसी ठिठुरन से भरी बारिश की रात में उसे पढऩा, उसे छूने की तरह जान पड़ता है.जब वह खत लिखता था तो शायद उसे इस बात का यकीन रहता होगा कि वह उसकी मित्र मिलेना को मिले या न भी मिले. मुझे तो लगता है उसका नाम ही उसके न मिलने का संकेत था. वह हिन्दी जानता होता तो अपनी मिलेना के नाम का अर्थ निकाल लेता. अर्थात जो मिले-ना वही मिलेना. मैं तुम्हें उसी मिलेना के बरअक्स रखकर अकसर सोचता हूं. तुम्हारा नाम आगे से ....के बजाय मिलेना ही लिखा करूंगा. कभी-कभी इच्छा होती है कि तुम्हें काफ्का की सारी किताबें भेंट कर दूं. तुम्हारे जन्मदिन पर ताकि तुम जान पाओ कि आत्मा के भीतर भी बुखार होता है, उसे नापने के लिए अभी कोई थर्मामीटर नहीं बना है. शायद मिलेना ही उस थर्मामीटर की तरह थी, जिसमें वह अपना बुखार देखा करता था. मुझे अकसर ही एक सवाल कौंध-कौंध कर कोंचता रहता है कि वस्तुत: काफ्का मिलेना को क्या देना चाहता था? अपना प्यार या कि अपना बुखार? वह देना चाहता था या कुछ लेना चाहता था? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे जो बुखार था वह मिलेना का ही बुखार था? और क्या मैं तुम्हें मिलेना के बरअक्स रखकर अपना बुखार देने की हिमाकत तो नहीं कर डालूंगा? और यह देह इसी तरह धीमी-धीमी आंच को लपट में लिपटी देह के चारों ओर खामोश खड़े लोग देखते रहेंगे कि कैसे सब कुछ किस तरह राख बनता है. घेरकर खड़ी भीड़ को पता भी नहीं चलेगा कि कौन सी वह चिंगारी थी, जिसने किसी लमहे में लपट का रूप ले लिया. मैं जब यहां के घने जंगलों से गुजरता हूं तो लगता है, ये सारे हरे-भरे पेड़ एक दावानल के बीच हैं. वह दावानल मेरे भीतर है-मैं वाकई उस जंगल को स्वाहा कर देना चाहता हूं, जो मेरे भीतर है और भटका रहा है.वह हरा नहीं, सूखा जंगल है. एक चिंगारी मेरे भीतर है जो कभी भी लपट बन सकती है. पर यह भी तय है कि जब जंगल ही नहीं मैं भी स्वाहा हो जाऊंगा। हो सकता है कभी वह हरा हो उठे लेकिन बारिश बाहर होती रहती है। वह शहर को भिगोती है, मकान को भी भिगोती है, देह को भी लेकिन आत्मा को नहीं। वह उसी तरह धीमी-धीमी आंच में तपती रहती है। शायद लेखक बनने और बने रहने के लिए यह जरूरी भी है। जरूरी है कि वह अपनी आत्मा में इसी तरह झुलसता रहे। जले नहीं, सिर्फ झुलसता रहे। मैं चाहता हूं कि तुम जान सको झुलसना क्या होता है। और उसके बगैर लेखक होना संभव हो सकता है?...मरते हुए भी मरने से बचे रहना लेखक बनना है क्योंकि मर जाना तो मुक्त हो जाना है लेखक सिर्फ मरने की यातना के भीतर जाने को बाध्य है। वह निरंतर एक दावानल में और दावानल के साथ है। काफ्का इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण है। काफ्का का मृत्युबोध मिलेना का भय था। लेकिन वह काफ्का की ताकत। यह कैसी विचित्र बात थी कि कि प्यार करने वालों के बीच मृत्यु और उसका बोध एक सूत्र बनाये हुए था. मुझे हमेशा लगता है कि एक दिन तुम मेरे मृत्युबोध से डर जाओगी और पीछे रह जाओगी और मैं मृत्यु से भिड़ता हुआ, मृत्यु से आ जाऊंगा. हम दोनों के बीच फिर भी एक अनाम से सेतु बना रहेगा. मैं तुम्हें ढूंढता रहूंगा. जो मिलेना वही होगी तुम. एक अलभ्य और एक अप्राप्य. पता नहीं क्यों ऐसा होता है कि ज्यों ही रात होती है-मैं मृत्यु पर बहुत बेकली से सोचने लगता हूं. क्या ऐसा तो नहीं कि सचमुच ही मृत्यु कहीं मेरी प्रतीक्षा नहीं कर रही हो. या ऐसा भी हो कि मैं मृत्यु के साथ ही रह रहा होऊं इस कमरे में. मैं उसे धक्का देकर बाहर नहीं कर सकता, इस कमरे से.मृत्यु को धक्का देकर बाहर कर दूं तो निश्चय ही वह मेरी तरहभीगेगी और बाद इसके, मेरी ही तरह एक धीमी आंच में तपने लगेगी. पश्चिम के लिए मृत्यु एक ठंडापन है. एक बर्फ सी ठंडी चीज, जिसमें सब कुछ जम जाता है. मगर भारतीयों के लिए मृत्यु को धक्का देकर बाहर कर दूं तो निश्चय ही वह भी मेरी ही तरह एक धीमी आंच में तपने लगेगी. पश्चिम के लिए मृत्यु एक ठंडापन है. एक बर्फ सी ठंडी चीज, जिसमें सब कुछ जम जाता है. मगर, भारतीयों के लिए मृत्यु एक आग है. स्वाहा हो जाना है. हां, उस भीतर के सूखे जंगल को भी, जो मेरे भीतर है. हरा हो जाने की प्रतीक्षा में और हरियाली का अर्थ है, मिलेना.हरियाली का अर्थ क्या वाकई मिलेना है? क्या वह हमेशा मिलेना ही रहती है? काफ्का की मिलेना की तरह. मेरे ख्याल से बाहर की बारिश, भीतर होने लगे तो हरियाली आ सकती है. पर बारिश है कि हो तो रही है और सिर्फ बाहर भर हो रही है....
तुम्हारा
.............
सिलसिला जारी..........

Sunday, April 12, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-११ आम आदमी

जितने भी प्रेम पत्र हमने अब तक पढ़े जरा सोचिए उनमें से उन लोगों के नाम बदल जाते तो भी प्यार की तपिश में कोई कमी आती क्या? नहीं ना! आज से आम आदमी के प्रेम पत्रों का सिलसिला शुरू कर रही हूं। यह आम आदमी भी काफी खास है साहित्य की दुनिया का। लेकिन मैंने उनके पत्रों को यह जाने बगैर पढ़ा था कि किसने लिखे, किसे लिखे... यानी आम आदमी के पत्र। कथादेश में प्रकाशित हो चुके ये पत्र संपादक की अनुमति के बाद यहां दे रही हूं। 1।2।७७
प्रिय.....
बम्बई से आज ही लौटा और तुम्हारा खत देखा। एक उफनते शहर से लौटकर घिर आने वाले सन्नाटे या खालीपन के बीच आर। पोलाक ने पढ़ा होगा, अपनी मित्र का खत, जो उसे लम्बी यात्रा की दूरी से लौटने के बाद मिला होगा। मैं भी ठीक वैसा ही अनुभव कर रहा हूं, तुम्हारा खत पढऩे के बाद। कुछ अद्र्ध जाग्रत और अद्र्ध विस्मृत सी भाषा के भीतर टहलते हुए जैसे मैं वह भी पढ़ रहा हूं, जिसे तुम लिखते-लिखते ठिठक गयी हो। तुम मेरे लिए एक नो व्हेयर गर्ल की तरह हो, जिसे मैं कहां बरामद करूं।मैं इन दिनों एक हड़बड़ी में रहता हूं, गालिबन मुझे कहां जाना है, एक ऐसी जगह जिसका मुझे पता ही नहीं है। मुमकिन हो कि वह जगह कहीं हो ही नहीं और हुई भी तो मेरे भीतर होगी। शायद, अपने से अपने की तरफ की दौड़ है, जिसमें बीच रास्ते में तुम खड़ी हो, मैं जब खत लिखता हूं तो लगता है, सहसा बीच में खड़ी लड़की से बात कर रहा हूं।पहले ऐसा कोई नहीं था जीवन में जिससे बातें की जा सकती हों, ऐसी बातें जिसमें अपनी ही प्रदक्षिणा होती है। तब लगता है लाइफ सीम्स टु ऑफर नो अदर सोर्स ऑफ सैटिस्फैक्शन। एक तसल्ली सी होती है, खत लिखने के बाद। वरना तो वक्त मुझे धीरे-धीरे हलाल करता जान पड़ता था। हालांकि जब दफ्तर की इमारत में किसी दिन बिना इच्छा के जाना पड़ता है तो लगता है जैसे आई एम बींग किल्ड हियर विद काइंडनेस।मुझे पैसे देकर धीरे-धीरे हलाक किया जा रहा है।बहरहाल, यहां मैं लिख कम रहा हूं, पढ़ खूब रहा हूं। पिछले रविवार को ही मैंने जॉन स्टुअर्ट मिल की ऑन लिबर्टी पूरी की। अब प्रिसिंपल ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी पढऩा शुरू किया है। माक्र्स की पॉलिटिकल इकोनॉमी जो दृष्टि देती है उससे यह बिलकुल भिन्न है. मिल मुझे माक्र्सवादी दृष्टि से देखने पर पूंजीवाद का पक्षधर लगता है. क्योंकि फ्यूचर ऑफ वर्किंग क्लास वाले अध्याय में वह कहता है, दैट मैन वक्र्ड बेस्ट व्हेन दे वक्र्ड इन देयर ओन इंट्रेस्ट्स एंड इन द होप्स ऑफ एक्युमिलेटिंग बाई देयर ओन एफट्र्स, रिवॉड्र्स. इसका अभिप्राय यही हुआ कि वह इस बात से चिंतित है कि व्हेन सब्सटेंस वाज गारंटीड, मोटिवेशन टु वर्क वुड डिस्पेयर. ये बातें तुम्हें इसलिए लिख रहा हूं कि तुम अर्थशास्त्र को खंगाल चुकी हो. और अब तो तुम लिखने में भी अर्थशास्त्र का सा अनुशासन बरतने लगी हो. याद रखो, संबंधों में अर्थशास्त्र का सा अनुशासन नहीं चलता. अगर ऐसा हुआ तो स्टुअर्ट मिल खुद हेरिएट से अपने संबंधों का ेइतनी दूर तक नहीं ले जा सकता था. तुम्हें यह जानकर बहुत अच्छा लगेगा कि एक अर्थशास्त्री को एक स्त्री ने वह सिखाया, जिसके अभाव में वह कम से कम जॉन स्टुअर्ट मिल तो नहीं ही बन सकता था. शी वाज हिज हिज ऑडियंस एंड हिज सोर्स, ही रोट फ्रॉम हर एंड फॉर हर. हालांकि, पहले वह उसकी इंटीलेक्चुअल कम्पैनियन थी बाद में जीवन संगिनी भी बन गयी. इट वाज वाज अ मैरिज ऑफ इक्विल्स. तुम्हें यह जानकर थोड़ा अचरज होगा कि मैं अपने कॉलेज के दिनों में कई बार साइंस का स्टूडेंट होकर भी इकोनॉमिक्स की क्लास में बैठ जाया करता था. मिसेज रजवाड़े जो अर्थशास्त्र पढ़ाती थीं वे बहुत सुंदर थीं. वे अर्थशास्त्र बहुत अच्छा पढ़ाती थीं. लेकिन उनका दाम्पत्य अर्थशास्त्र की तरह बैलेंस्ड नहीं था. एक कहानी भी लिखी थी मैंने उन्हें लेकर. पर, अब लगता है यदि मैंने तब जॉन स्टुअर्ट मिल और हेरिट टेलर के रिश्तों के बारे में पढ़ा होता तो शायद एक-दूसरे तरह की कहानी लिख सकता था क्योंकि, ये संबंध काफ्का-मिलेना वाले नहीं था. बल्कि बहुत रैशनल थे. मैं इनके बीच के खतो-किताबत को ढूंढकर पढऩा चाहता हूं.आई हैव ऑलवेज बीन विशिंग फॉर अ फ्रेंड हूम आई कैन एप्रिशियेट होली, विदाउट रिजर्वेशन एंड रिस्ट्रक्शन टू. और कहूं कि इस परिभाषा के भीतर तुम हो तो तुम्हें कोई ऐतराज तो नहीं होगा. मैं मिल की एक किताब की तलाश में हूं. द सब्जेक्शन ऑफ वुमन यदि तुम्हारे कॉलेज में मिल जाये तो उसे मुझे भेज देना. बाकी अगले खत में, मैं ढूंढूंगा कि कहां ठिठककर सोचने लगी होगी तुम. सोचने या खुद को खोजने....
तुम्हारा
....................
सिलसिला जारी....

Friday, April 10, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-10 काफ्का और रिल्के

फ्रांज काफ्का का पत्र मिलेना के नाम
(फ्रांज काफ्का: जर्मनी का विश्वप्रसिद्ध यहूदी उपन्यसकार. कहा जाता है कि काफ्का को उम्र भर हल्का-हल्का बुखार रहा. उन्होंने समग्र साहित्य उसी बुखार की तपिश में लिखा. और यह बुखार मिलेना के प्यार का बुखार था.)
प्रिये,
आज सुबह के पत्र में मैंने जितना कुछ कहा, उससे अधिक यदि इस पत्र में नहीं कहा तो मैं झूठा ही कहलाऊंगा. कहना भी तुमसे, जिससे मैं इतनी आजादी से कुछ भी कह सुन सकता हूं. कभी कुछ भी सेाचना नहीं पड़ता कि तुम्हें कैसा लगेगा. कोई भय नहीं. अभिव्यक्ति का ऐसा सुख भला और कहां है तुम्हारे सिवा मेरी मिलेना. किसी ने भी मुझे उस तरह नहीं समझा जिस तरह तुमने. न ही किसी ने जानते-बूझते और इतने मन से कभी, कहीं मेरा पक्ष लिया, जितना कि तुमने.तुम्हारे सबसे सुंदर पत्र वे हैं जिनमें तुम मेरे भय से सहमत हो और साथ ही यह समझाने का प्रयास करती हो कि मेरे लिए भय का कोई कारण नहीं है(मेरे लिए यह बहुत कुछ है क्योंकि कुल मिलाकर तुम्हारे पत्र और उनकी प्रत्येक पंक्ति मेरे जीवन का सबसे सुंदर हासिल है.) शायद तुम्हें कभी-कभी लगता हो जैसे मैं अपने भय का पोषण कर रहा हूं पर तुम भी सहमत होगी कि यह भय मुझमें बहुत गहरा रम चुका है और शायद यही मेरा सर्वोत्तम अंश है. इसलिए शायद यही मेरा वह एकमात्र रूप है जिसे तुम प्यार करती हो क्योंकि मुझमें प्यार के काबिल और क्या मिलेगा? लेकिन यह भय निश्चित ही प्यार के काबिल है. सच है इंसान को किसी को प्यार करना है तो उसकी कमजोरियों को भी खूब प्यार करना चाहिए. तुम यह बात भली भांति जानती हो. इसीलिए मैं तुम्हारी हर बात का कायल हूं. तुम्हारा होना मेरी जिंदगी में क्या मायने रखता है यह बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है.
तुम्हारा
काफ्का
(काफ्का यहूदी थे और मिलेना ईसाई. धर्म के पहरेदारों ने इन दोनों को कभी एक न होने दिया. लेकिन मन से वे हमेशा एक-दूसरे के साथ ही रहे. मिलेना ने काफ्का के लिए काफी दु:ख सहे.)

रिल्के का पत्र क्लेयरा के नाम
(जर्मन कवि रिल्के की कविताओं की सोंधी खुशबू से सारी दुनिया अब तक महक रही है)
कैफ्री22।2।१९०७
प्रिये,
मैं इन थोड़े से शब्दों में तुम्हारे पांचवे पत्र के लिए धन्यवाद देता हूं। मैं तुम्हारे दु:ख को खूब समझता हूं और उसे महसूस करता हूं। इस दु:ख को निकाल पाना ते मेरे बस में नहीं है। खामोशियों के बीच भी दर्द की एक धार सी बहती रहती है। तुमसे न मिल पाने का दु:ख। कभी-कभी लगता है कि अगर हम पास नहीं आ सकते तो काश दूर ही जा सकते। इतनी दूर कि एक-दूसरे को याद भी न आ सकते. लेकिन ऐसी तो कोई जगह ही नहीं. कभी-कभी हम कहीं खड़े होते हैं और बाहर की हवा या प्रकाश या पक्षी के संगीत का एक स्वर हमें कहीं ले उड़ता है और हमसे अपनी मर्जी करा लेता है. यह सब देखना-सुनना और ग्रहण करना तो ठीक है, इसके प्रति जड़ होना ठीक नहीं है, लेकिन बिना इसमें पूरी तरह डूबे हुए ही हमको इसके सब स्तरों का अधिक से अधिक गहराई से अनुभव करना चाहिए. वसंत के इन्हीं दिनों मैं रोडिन ने मुझसे कहा था, बसंत की ओर ध्यान मत दो. कुछ बातों की ओर हमें बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिए. हमें अपने अंदर की सबसे दर्दीली जगहों के प्रति एकाग्र और सचेत रहना चाहिए क्योंकि अपने पूरे व्यक्तित्व से भी हम इस दर्द को समझ नहीं सकते. अपनी पूरी जीवन शक्ति से हर चीज को अनुभव करने के बाद भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है और वही सबसे महत्वपूर्ण है.
रिल्के
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Thursday, April 9, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र-9 नाजिम हिकमत

कवि नाजिम हिकमत का पत्र पत्नी के नाम
(नाजिम हिकमत: तुर्की का महान क्रांतिकारी कवि, जिसकी कविताओं में सैकड़ों सूर्यों की गर्मी और तेज मौजूद है....जिसके जीवन का दु:खद अंत पागलखाने में हुआ...यह पत्र नाजिम हिकमत ने जेल से लिखा था)

मेरी प्रियतमे,
पिछले पत्र में तुमने लिखा है, यदि तुम्हें फांसी दे दी जायेगी और मैं तुम्हें खो दूंगी तो निश्चित ही मैं जीवित नहीं रह सकती। प्रियतमे! तुम जियोगी, जियोगी और जीती ही रहोगी. हे मेरे ह्रदय की अरुणकेशी सहोदरे, इस बीसवीं सदी में मरने वाले के लिए एक साल के अर्से तक ही रोया जाता है.हे मेरी जीवनसाथिन, प्रिये, हे कोमल खामोश ह्रदय वाली. मैंने गलती ही की, जो तुम्हें लिख दिया कि ये मुझे फंासी पर चढ़ा देने के लिए बेचैन हैं. अभी तो मुकदमा शुरू ही हुआ है और वे एक आदमी का सिर धड़ से अलग करना चाहते हैं और यह काम उतना आसान नहीं है, जितना कि शलजम का उखाडऩा. तुम बेकार चिंता न करो. मेरी मौत अभी बहुत दूर है. तुम्हें यह भी नहीं भूलना होगा कि कैदी की पत्नी को सदा ही प्रसन्न रहना चाहिए.
सबसे आकर्षक है वह महासागर, जिसे हममें से किसी ने अभी तक नहीं देखा. सबसे सुंदर है वह बच्चा, जो अभी तक इस धरती पर चल नहीं सका. सबसे मोहक हैं वे दिन जो अभी इस जीवन में आए नहीं. सबसे प्यारी हैं वे बातें जो मुझे तुमसे अभी कहनी हैं, जिन्हें मेरे होंठ अभी तक कह नहीं पाए.
नाजिम
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रुकना मार्खेज की कलम का


लिखना क्या कागज पर शब्दों का उतरना भर होता है? दुनिया के तमाम लेखकों के अनुभव कहते हैं कि लिखने के लिए हमेशा लिखना जरूरी नहीं होता। नोबेल प्राइज विनर मार्खेज की कलम के रुकने के बाद, उनकी जिंदगी के कई और शानदार अर्थ खुलते हैं.
गैब्रिएल गर्सिया मार्खेज को पढ़ा है? उन्हें नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा? व्हॉट अ पावरफुल राइटिंग....यह कनवर्सेशन किन्हीं दो लोगों के बीच का था. जिन लोगों के बीच की यह बातचीत है, उनमें से किसी का भी न नाम याद है, न चेहरा. लेकिन बचपन की यादों में यह कनवर्सेशन भी कहीं दर्ज हो गया. क्यों न होता आखिर मार्खेज नाम की दुनिया का रास्ता उन्हीं संवादों से खुला था. जब भी स्पेनिश लेखक मार्खेज को पढ़ती हूं वे संवाद जरूर याद आते हैं. आज फिर याद आ रहे हैं, वे संवाद भी और मार्खेज भी. यह खबर जब आंखों के सामने से गुजरी कि 82 वर्षीय मार्खेज ने कलम रख दी है यानी उन्होंने लिखने से संन्यास ले लिया है तो यकीन नहीं हुआ. फिल्मों से, क्रिकेट से, राजनीति से संन्यास लेते हुए तो लोगों को देखा था, सुना था लेकिन लेखन से सन्यास? वो भी मार्खेज का संन्यास. पता नहीं इस खबर को लेकर कितने लोगों ने रिएक्ट किया होगा, कितनों ने इस खबर से पहली बार मार्खेज का नाम सुना होगा और कितनों ने बेहद तकलीफ का अनुभव किया होगा. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके मार्खेज का आखिरी उपन्यास पांच साल पहले आया था. उपन्यास का नाम था मेमोरीज ऑफ माई मेलनकोली होर्स. उनके न लिखने की घोषणा के साथ ही यह उनका आखिरी उपन्यास हो गया है. युवा पत्रकार, क्रिएटिव राइटिंग का कोर्स कर रहे स्टूडेंट्स और लिखने की लालसा रखने वाले नए लोगों को लिखने की जद्दोजेहद में उलझे बगैर लिखने को लेकर परफेक्शन का बोध देखकर मार्खेज के ये शब्द याद आते हैं, 'लिखना सुख की अनुभूति तो है ही लिखना लंबी, घनी यातना से गुजरना भी है. आज कितने लोग लिखने की यातना से गुजरते हैं या गुजर पाते हैं यह एक दूसरा ही सवाल है. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कभी-कभी पूरे दिन में एक पैरा भी लिख जाए तो बहुत बड़ी बात है. उनका लेखन को लेकर संन्यास लेना, उनके इस कहे को सही साबित करता है कि लिखना लिखने के लिए नहीं होना चाहिए. उनका लेखन बंद करना इस इरादे से भी है कि कहीं उनके लेखन में दोहराव न आने लगे. इसके पहले मुझे तो किसी लेखक का नाम याद नहीं आता जिसने ऐसा कुछ कहा हो कि उसने न लिखने का फैसला किया है. आमतौर पर ये फैसले समय ने ही किये हैं. कभी लंबी बीमारी के चलते, कभी किन्हीं और कारणों से लोगों का लेखन छूट जरूर गया लेकिन छोड़ा किसी ने नहीं. समझ में नहीं आ रहा है कि इस खबर को अच्छी खबर माना जाए या बुरी खबर. बुरी इस लिहाज से कि अब उनकी कोई भी नई रचना पढऩे को नहीं मिलेगी. उनके लेखन से पूरे विश्व के साहित्य ने ऊर्जा ली है, दिशा ली है. ऐसे में एक दिशाहीनता की स्थिति आने की संभावना है. लेकिन इस खबर का सुखद पहलू यह है कि जीवन भर अपने लेखन के प्रति ईमानदार रहने वाले मार्खेज ने जीते जी इस ईमानदारी को निभाया. उन्होंने कलम के मोह से मुक्ति ली. यूं भी मार्खेज के ही शब्दों में अगर उन्हें सुना जाए तो अब वे अपनी कलम से शब्दों को भले ही न रचें लेकिन उनका जीवन, उनकी अभिव्यक्तियों में हम उन्हें पढ़ते रहेंगे. मार्खेज को पढऩा आज के दौर की बड़ी जरूरत है, बस हम इस जरूरत को कितना समझ पाते हैं यही देखना है. जर्नलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले मार्खेज का पूरा जीवन प्रेरणा है। युवा पीढ़ी के दिमाग में चलने वाली उलझनों को जिस शाइस्तगी से उन्होंने तरतीब दी वह एक मिसाल है। उनकी किताबों की लिस्ट लंबी है, उनके कामों की लिस्ट भी लंबी है और हम दुआ करते हैं कि उनकी उम्र भी लंबी हो। ताकि हम उन्हें लिखते हुए भले ही न पढें़ उन्हें देखते हुए पढ़ते रहें। यूं भी लिखना सिर्फ शब्दों का कागजों पर बैठना भर तो नहीं होता।
(आई नेक्स्ट के एडिट पेज पर प्रकाशित लेख....)
प्रेम पत्रों का सिलसिला जारी है....

Tuesday, April 7, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र- ८ विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर का पत्र उनकी पत्नी सुशीला के नाम
(विष्णु प्रभाकर: प्रसिद्ध लेखक जिनके उपन्यासों, नाटकों और आत्मकथा आवारा मसीहा के बगैर साहित्य की बात पूरी नहीं होती)हिसार-7।6।38
मेरी रानी,
तुम अपने घर पहुंच गयी होगी. तुम्हें रह-रहकर अपने मां-बाप, अपनी बहन से मिलने की खुशी हो रही होगी. लेकिन मेरी रानी, मेरा जी भरा आ रहा है. आंसू रास्ता देख रहे हैं. इस सूने आंगन में मैं अकेला बैठा हूं. ग्यारह दिन में घर की क्या हालत हुई है, वह देखते ही बनती है. कमरे में एक-एक अंगुल गर्दा जमा है. पुस्तकें निराश्रित पत्नी सी अलस उदास जहां-तहां बिखरी हैं. अभी-अभी कपड़े संभालकर तुम्हें ख़त लिखने बैठना हूं, परंतु कलम चलती ही नहीं. दो शब्द लिखता हूं और मन उमड़ पड़ता है काश....कि तुम मेरे कंधे पर सिर रक्खे बैठी होती है और मैं लिखता चला जाता...पृष्ठ पर पृष्ठ. प्रिये, मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं. समझूं तुम बहुत बदसूरत, फूहड़ और शरारती लड़की हो. मेरा तुम्हारा कोई संबंध नहीं. लेकिन विद्रोह तो और भी आसक्ति पैदा करता है. तब क्या करूं? मुझे डरता लगता है. मुझे उबार लो.मेरे पत्रों को फाडऩा मत. विदा...बहुत सारे प्यार के साथ....
तुम अगर बना सका तो तुम्हारा ही
विष्णु
(विष्णु प्रभाकर ने यह पत्र अपनी पत्नी को तब लिखा था जब वे विवाह के बाद पहली बार मायके गई थीं)
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Sunday, April 5, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र- ७ साफिया का ख़त जा निसार अख्तर को

सफिया का पत्र जां निसार अख्तर के नाम
(सफिया: उर्दू के प्रसिद्धतम शायर मजाज की बहन और जां निसार अख्तर की पत्नी )15 जनवरी 1951

अख्तर मेरे,
पिछले हफ्ते तुम्हारे तीन खत मिले और शनिवार को मनीऑर्डर भी वसूल हुआ। तुमने तो पूरी तनख्वाह ही मुझे भेज दी। तुम्हें शायद तंगी में बसर करने में मजा आने लगा है. यह तो कोई बात न हुई दोस्त. घर से दूर रहकर वैसे ही कौन सी सुविधाएं तुम्हारे हिस्से में रह जाती हंै जो मेहनत करके जेब भी खाली रहे?खैर, मेरे पास वो पैसे भी, जो तुमने बंबई से रवानगी के वक्त दिये थे. जमा हैं. अच्छा अख्तर अब कब तुम्हारी मुस्कुराहट की दमक मेरे चेहरे पर आ सकेगी, बताओ तो? बाज लम्हों में तो अपनी बाहें तुम्हारे गिर्द समेट करके तुमसे इस तरह चिपट जाने की ख्वाहिश होती है कि तुम चाहो भी तो मुझे छुड़ा न सको. तुम्हारी एक निगाह मेरी जिंदगी में उजाला कर देती है. सोचो तो, कितनी बदहाल थी मेरी जिंदगी जब तुमने उसे संभाला. कितनी बंजर और कैसी बेमानी और तल्ख थी मेरी जिंदगी, जब तुम उसमें दाखिल हुए. मुझे उन गुजरे हुए दिनों के बारे में सोचकर गम होता है जो हम दोनों ने अलीगढ़ में एक-दूसरे की शिरकत से महरूम रहकर गुजार दिए. अख्तर मुझे आइंदा की बातें मालूम हो सकतीं तो सच जानो मैं तुम्हें उसी जमाने में बहुत चाहती थी. कोई कशिश तो शुरू से ही तुम्हारी जानिब खींचती थी और कोई घुलावट खुद-ब-खुद मेरे दिल में पैदा थी. मगर बताने वाला कौन था कि यह सब क्यों? आओ, मैं तुम्हारे सीने पर सिर रखकर दुनिया को मगरूर najron से देख सकूंगी।
तुम्हारी अपनी
सफिया

प्रेम पत्रों का सिलसिला जारी...

Saturday, April 4, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र - ६ अमृता इमरोज़ के ख़त

मोहब्बत से भरे इन खतों का रुख़ जरा हिंदुस्तान की तरफ किया तो जर्ऱे-जर्ऱे में लैला मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा के किस्से बिखरे नजर आये. पहला जर्रा उठाया तो अमृता प्रीतम का चेहरा नजर आया और दूसरा जर्रा उठाया तो इमरोज की सूरत नजर आनी ही थी. इमरोज अमृता को कई नामों से पुकारते थे। जीती और आशी भी उनमें से ही हैं.
इमरोज़
तुम्हारे और मेरे नसीब में बहुत फर्क है। तुम वह खुशनसीब इंसान हो, जिसे तुमने मुहब्बत की, उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी। पर मैं वह बदनसीब इंसान हूं जिसे मैंने मुहब्बत की, उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। दु:खों ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी। अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलौने के साथ नहीं खेल सकता।
- हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई में बिताए हुए दिनों का जिक्र होता है, बुरे से बुरे शब्द में. पर मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है क्योंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नहीं है. केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नहीं समझा, जिसने कभी मुझसे कहा था, मुझे जवाब बना लो, सारे का सारा.मुझे अगर किसी ने समझा है तो वो तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की बेजुबान शीशियां हैं, जिनके बदन मैं रोज पोंछती और दुलारती थी. वे रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कुराते थे, क्योंकि उन्होंने मेरी आंखों की जर का भेद पा लिया था. उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रिएटिव पॉवर से ऐसी ही मुहब्बत है. वे रंग तुम्हारे हाथों के स्पर्श के लिए तरसते रहते थे और मेरी आंखें उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए. वे रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इसलिए मांगते थे क्योंकि दे वाण्टेड टु जस्टिफाई देयर एग्जिस्टेन्स. मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि मुझे तुम्हारी कृतियों में अपने अस्तित्व के अर्थ मिलते थे. यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे, पर तुम्हारे साथ मिलकर यह अर्थ बहुत बड़े हो जाते थे. तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी हुई रंग की शीशियों को खोला. मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा, तुमने हाथ में लिए ब्रश पर थोड़ा सा रंग लगाकर मेरे माथे से छुआ दिया. न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगरज मांग थी....

.............इमरोज का पत्र अमृता के नाम .................
26.12.60
जीती,
तुम जिन्दगी से रूठी हुई हो. मेरी भूल की इतनी सजा नहीं, आशी। यह बहुत ज्यादा है। यह दस साल का वनवास। नहीं-नहीं मेरे साथ ऐसे न करो। मुझे आबाद करके वीरान मत करो।
वह मेज, वह दराज, वे रंगों की शीशियां, उसी तरह रोज उस स्पर्श का इंतजार करते हैं, जो उन्हें प्यार करती थी और इनकी चमक बनती थी. वह ब्रश, वे रंग अभी भी उस चेहरे को, उस माथे को तलाश करते हैं, उसका इंतजार करते हैं जिसके माथे का यह सिंगार बनकर ताजा रहते थे, नहीं तो अब तक सूख गए होते. तुम्हारे इंत$जार का पानी डालकर मैं जिन्हें सूखने नहीं दे रहा हूं. पर इनकी ताजगी तुम्हारे साथ से ही है, तुम जानती हो। मैं भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, रंगों में भी जिंदगी में भी.
तुम्हारा
इमरो
(अमृता साहिर के प्रेम में दीवानी थीं जबकि इमरोज अमृता के प्यार में. अमृता और इमरोज ने एक बहुत सुंदर और पाक रिश्ता जिया उम्र भर। ये खत उसी की एक झलक हैं.)
प्रेम पत्रों की श्रंखला जारी....

Friday, April 3, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र - 5

जोनेथन स्विफ्ट को कुमारी वेनेसा का पत्र (कैम्ब्रिज १७२० )
(जोनेथन स्विफ्ट: जिसने भ्रमण साहित्य की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक गुलिवर की यात्राएं लिखी। मगर जिसकी स्वयं की जीवन यात्रा का दु:खद अंत पागलखाने में हुआ)
प्रिय,
यकीन मानो, यह बड़े ही दु:ख की बात है कि आज मुझे तुमसे शिकायत करनी पड़ रही है क्योंकि मैं जानती हूं कि तुम्हारा स्वभाव इतना अच्छा है कि किसी भी मनुष्य को दु:खी देखकर तुम्हारा दिल रोए बिना नहीं रह सकता। फिर भी मैं क्या करूं। मुझे अपने दिल को खाली करना पड़ेगा और अपने दु:ख तुमसे कहने पड़ेंगे, नहीं तो मैं तुम्हारी इस अजीब उपेक्षा की अकथनीय पीड़ा के नीचे घुट-घुटकर मर जाऊंगी। दस लंबे सप्ताह बीत चुके हैं, जब मैं तुमसे मिली थी और इसके बीच एक पत्र और बहाने भरी दो पंक्तियों के सिवा कुछ भी तो मुझे तुमसे नहीं मिला। आह! कैसे मुझे तुम खुद से दूर रखने के बारे में सोच भी पाते हो। मेरे शरीर के रोम-रोम से तुम्हारा प्यार छलक रहा है। मैं तुम्हारे बिना इतनी बेचैन हूं कि लगता है अब जी नहीं पाऊंगी।भगवान के लिए बताओ कि किस बात ने यह अजीब परिवर्तन तुममें पैदा किया है। नहीं, मत बताओ क्योंकि अगर मेरा वहम कि तुम मुझे प्यार करते हो भी अगर टूट गया तो मेरा जिंदा रहना सचमुच मुश्किल हो जायेगा। मुझे तो अब ऐसी ही जिंदगी जीने की आदत डालनी है. ओह यह क्रूर जीवन.
वेनेसा
(स्विफ्ट के जीवन में एक दूसरी स्त्री एस्थर जॉनसन थी. इन तीनों को लेकर अंग्रेजी में काफी साहित्य लिखा गया. )

सोफिया का पत्र कोनिग्समार्क के नाम
(सोफिया: इंग्लैंड की वह बेताज रानी, जिसे कारण जॉर्ज प्रथम को गद्दी मिली, पर स्वयं उसको मिला एकांतवास का क्रूरतम दंड व अपने प्रेमी का कटा हुआ सिर...)
प्यारे हनोवर,
मैंने रात के सन्नाटे को बिना सोए गुजारा और सारा दिन तुम्हारे बारे में सोचते हुए और अपने वियोग पर आंसू बहाकर बिताया। दिन मुझे कभी इतना लंबा महसूस नहीं हुआ था। मैं नहीं जानती थी कि तुम्हारी अनुपस्थिति को मैं किस प्रकार सह पाऊंगी? तुम्हारे न होने पर दुनिया की कोई चीज मुझे सुख नहीं दे पाती। बड़े से बड़ा संकट मेरे प्यार से छोटा ही होगा ऐसा मुझे विश्वास है। मेरा स्वास्थ्य लगातार गिर रहा है। कमजोरी बढ़ती जा रही है। मुझसे अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखने की हिदायतें देने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन मुझे पता है मेरी बीमारी सिर्फ यह है कि मैं तुमसे प्यार करती हूं और तुम मेरे पास नहीं हो. और मैं दिल से चाहती हूं कि मैं हमेशा ही बीमार रहूं. मुझे तुमसे, तुम्हारी यादों से सिर्फ मौत ही अलग कर सकती है. अब मैं पत्र लिखना बंद करती हूं.
तुम्हारी वफादार
सोफिया

प्रेम पत्रों का सिलसिला जारी....

Thursday, April 2, 2009

दुनिया के मशहूर प्रेम पत्र - 4

बहुत शुक्रिया आप सबका मेरी छोटी सी कोशिश को सराहने का। थोड़े से अन्तराल के लिए माफ़ी चाहती हूँ। प्रेम अधीर होता है, तो प्रेम पत्रों को पढने को लेकर अधीरता भी जायज है। आइये रु-ब-रु होते हैं कुछ और धड़कते हुए अल्फाजों से....

नेपोलियन का पत्र डिजायरी के नाम
(नेपोलियन: जिसने प्यार और युद्ध दोनों में मैदान जीते...असंभव शब्द जिसके कोश में नहीं था...वही प्यार के सम्मुख किस तरह घुटने टेककर गिड़गिड़ाता है)
प्रिये,
मैं एविग्नान बहुत ही उदास मन लेकर पहुंचा हूं क्योंकि इतनी दिनों तक मुझे तुमसे अलग रहना पड़ा है। यह यात्रा मुझे बहुत ही कठिन लगी है। मेरी प्यारी अकसर अपने प्रिय की याद करती होगी और जैसा कि उसने वादा किया है, वह उसे प्यार करती रहेगी। बस, यही आस मेरे दु:ख को कम कर सकती है और मेरी स्थिति को थोड़ा बेहतर बना देती है।मुझे तुम्हारा कोई भी पत्र पेरिस पहुंचने से पहले नहीं मिल पायेगा। यह बात मुझे प्रेरित करेगी कि मैं और तेज भागूं और वहां पहुंचकर देखूं कि तुम्हारे समाचार मेरा इंतजार कर रहे हैं।ड्यूरेंस में बाढ़ आ जाने के कारण मैं इस जगह पर जल्दी नहीं पहुंच सका. कल शाम तक मैं लियंस पहुंच जाऊंगा. मेरी प्यारी! मेरी रानी, विदा. मुझे कभी भी भूलना मत. हमेशा उसे प्यार करती रहना जो जीवन-भर के लिए तुम्हारा है.
नेपोलियन बोनापार्ट

दोस्तोएवस्की का पत्र ऐना के नाम
(दोस्तोवस्की: विश्व का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार, जिसको राजद्रोह के अपराध में मृत्युदंड दे दिया गया, पर ठीक फांसी के समय पर वह दंड सात साल के साइबेरिया से निष्कासन में परिवर्तित कर दिया गया)
प्रिये,
तुम लिखती हो- मुझे प्यार करो! पर क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करता? असल बात यह है कि ऐसा शब्दों में कहना मेरी प्रवृत्ति के खिलाफ है। तुमने खुद भी इसे महसूस किया होगा लेकिन अफसोस तुम महसूस करना जानती ही नहीं अगर जानती होती, तो ऐसी शिकायत कभी नहीं करती।मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं अब तक तुम्हें पता होना चाहिए था लेकिन तुम कुछ समझना नहीं चाहतीं। मैं अभिव्यक्तियों में विश्वास नहीं करता महसूस करने में करता हूं. अब यह भाषणनुमा पत्र लिखना बंद कर रहा हूं. तुम्हारे पैरों की उंगलियों का चुंबन लेने के लिए मैं तड़प रहा हूं. तुम कहती हो कि अगर कोई हमारे पत्र पढ़ ले तो क्या हो? ठीक है, पढऩे दो लोगों को और जलन महसूस करने दो।
हमेशा तुम्हारा
दोस्तोएवस्की

प्रेम पत्रों का सिलसिला जारी...