Sunday, November 17, 2024

It begins with self


जीवन इतना खूबसूरत है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद इसका आकर्षण खींचता है। खुश होने की इच्छा, सुंदर जीवन की अभिलाषा बार-बार ज़िंदगी को नए सिरे से सँवारने की, फिर-फिर कोशिश करने की ताक़त भी देती है और सलाहियत भी। लेकिन इस कोशिश का नाम सहना नहीं है।

सहने के खिलाफ खड़े होना व्यक्ति के प्रति आक्रोश नहीं है बल्कि वह समझ है जिसमें आत्मसम्मान के फूल खिलते हैं। समझ जो दृष्टि देती है कि परिवार या शादी ही नहीं किसी भी रिश्ते को बचाने में अगर आत्मसम्मान दांव पर लग रहा है तो फैसला लेने का समय आ चुका है।

It Ends with Us पिछले हफ्ते देखी। तब से फिल्म साथ चल रही है, और साथ चल रही हैं न जाने कितनी बातें। आसपास बेवजह रिश्तों को घसीटती स्त्रियों की कहानियाँ। फिल्म पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, कहा जा चुका है, दोहराने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं सिवाय इतना कहने के फिल्म जरूर देखनी चाहिए।
फिल्म के बहाने मेरे भीतर जो हलचल है यह बात उसी के बारे में है। फिल्म की नायिका का अपनी माँ से पूछना, 'तुमने सहना बंद क्यों नहीं किया'।

फिल्म की नायिका का अपने पति (जो उसे पीटता है) से यह पूछना, 'अगर तुम्हारी बेटी का बॉयफ्रेंड या पति उसे पीटेगा तो तुम उससे क्या कहोगे' और नायक का पूरी ईमानदारी से यह कहना कि वो कहेगा कि, 'उसे छोड़ दो' कहानी की सघनता को सुंदर ढंग से दिखाता है।

नायक का यह कहना कि 'मैं अब वो सब कभी नहीं करूंगा, मैं अपना इलाज कराऊँगा' यह स्वीकारोक्ति फिल्म के अंत की दिशा बदलने की तैयारी सरीखी लगती है। लेकिन लिली जो फिल्म की नायिका है उसके ज़ेहनी स्पष्टता कितनी सहूलियत से अपना रास्ता चुनती है। यह फिल्म की ताक़त है। बिना किसी लाउडनेस के, बिना कोई चीखमचिल्ली के फिल्म का अंत किसी रोशनी सा खुलता है।

वह एक रिश्ते से निकलकर दूसरे रिश्ते में जाने की गलती नहीं करती, वक़्त लेती है, अपने वक़्त को अपने हाथ में थामती है। सूरज उसका माथा सहलाता है। मैं जानबूझकर एटलस के किरदार की बात नहीं कर रही क्योंकि मैं मानती हूँ कि एटलस जैसे सुंदर और यूटोपियन किरदार के बगैर भी लिली का फैसला यही होता और होना चाहिए।
हमारे आसपास जो तमाम लिली मुरझा रही हैं, जो फैसला नहीं ले पा रही हैं। जिनसे साथ सहा भी नहीं जा रहा लेकिन छोड़ भी नहीं पा रही हैं, यह उनके बारे में है। मानो लिली उन सबसे कह रही हो, खुद पर भरोसा करो और उठो। क्योंकि कुछ फैसले जो लगते तो व्यक्तिगत हैं लेकिन वो पीढ़ियों के लिए जरूरी होते हैं। शारीरिक हिंसा तो सिर्फ एक वजह है जो दिखती है, ज़्यादातर वजहें तो दिखती भी नहीं है लेकिन जिनकी मार हर दिन झेलनी होती है, और क्या अलग होना ही अंतिम फैसला है, यह सब व्यक्ति का खुद का निर्णय है। लेकिन आत्मसम्मान जब लगातार रिस रहा हो, रिश्ते में खुद के होने न होने पर रोज सवाल उठ रहा हो तो सोचना तो चाहिए। फैसलों के बाद का रास्ता आसान तो नहीं होता लेकिन रोशनी से भरा होता है इतना तो जरूर है। फिल्म की नायिका उसी रास्ते को दिखाती है।

बच्चों की खातिर जुड़े रहने की तरक़ीब सिखाने वाले चालाक समाज को अब ये बताना होगा कि जिस बच्चे को ढाल बनाकर शादी संस्था को बचा रहे हो उसमें बच्चे भी घुटन के शिकार हैं और आगे चलकर वे उलझे हुए व्यक्ति के रूप में बड़े होते हैं और समाज को कुछ नई किस्म की उलझनें ही देते हैं।

फिल्म का नाम है It Ends With Us लेकिन असल में यह फिल्म कहती है It begins with self.

Saturday, November 9, 2024

मेयअड़गन यानि सत्य की सुंदरता


जैसे जी भर के रो चुकी लड़की के कांधे पर गिरा हो हरसिंगार का एक फूल एकदम बेआवाज़, महक से सराबोर। जैसे खाली पड़े कैनवास पर किसी बच्चे ने रंग उड़ेल दिये हों और कैनवास भर उठा हो उम्मीद की ख़ुशबू से। जैसे तेज़ धूप में नंगे पाँव चलते पैरों से कोई नदी लिपट गयी हो। जैसे निराश मन ने जलाया हो आस्था का एक दिया और ज़िंदगी में उजास फूट पड़ा हो...

मेयअड़गन...(शायद ऐसे ही लिखते होंगे) देखना खुद की हथेलियों में अपना चेहरा रखकर जी भर के रो लेना है। जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत। और हम न जाने किन चीजों में उलझे हैं। बाद मुद्दत किसी फिल्म को देखते हुए खूब रोई हूँ, बार-बार रोएँ खड़े हुए हैं। अरविंद तो लाजवाब हैं ही, कार्थी भी कमाल के हैं। फिल्म का विषय, उसका ट्रीटमेंट सबकुछ जैसे स्क्रीन पर लिखी गयी प्रेम कविता हो।
 
छोटी से छोटी चीजों की ऐसी प्यारी डिटेलिंग है कि आसपास पड़ी ज़िंदगी जो हमसे छूटी ही रह जाती है, उसे उठाकर गले लगाने का जी कर उठता है। अगर कोई आप पर भरोसा करता है, निस्वार्थ प्यार करता है, आप बदलने लगते हैं। मैं इस फिल्म के प्यार में हूँ, फिर फिर देखूँगी, सबको देखनी चाहिए। चुप रहकर देखनी चाहिए।
मेयअड़गन तमिल फिल्म है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'सत्य की सुंदरता'।

Wednesday, September 11, 2024

कुछ लड़कियां, बहुत सारी लड़कियां


फोटो क्रेडिट-गूगल 

कुछ लड़कियां खूब पढ़ रही हैं
कुछ लड़कियां अच्छे ओहदों पर पहुँच रही हैं
कुछ लड़कियां अपने हकों के लिए लड़ रही हैं
कुछ लड़कियां कवितायें लिख रही हैं
कुछ लड़कियां डरती नहीं किसी से
कुछ लड़कियां पार्टी कर रही हैं
कुछ लड़कियां खुलकर हंस रही हैं
कुछ लड़कियां प्यार में हैं

कुछ लड़कियों को देख लगता है
अब लड़कियों की दुनिया बदल चुकी है
उनकी दुनिया का अंधेरा मिट चुका है

लेकिन अभी भी बहुत सारी लड़कियां
पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहीं
जूझ रही हैं अपनी पसंद के विषय की पढ़ाई के लिए,
आगे की पढ़ाई के लिए
बहुत सारी लड़कियां
अपनी पसंद के रिश्तों के सपने से भी बाहर हैं
बहुत सारी लड़कियां पूरी पढ़ाई करके भी
जी रही हैं अधूरी ज़िंदगी ही
बहुत सारी लड़कियां पैसे कमा रही हैं
लेकिन नहीं कमा पा रही हैं अपने हिस्से के सुख 
बहुत सारी लड़कियां उलझी हुई हैं
साज-शृंगार में, तीज त्योहार में
बहुत सारी लड़कियां
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी की जा रही हैं
बहुत सारी लड़कियां अन्याय को सह जाने को अभिशप्त हैं
कुछ लड़कियों और बहुत सी लड़कियों के बीच एक लंबी दूरी है
कुछ लड़कियों के बारे में सोचना सुख से भरता है
लेकिन हक़ीक़त की धूप हथेली पर रखे इस जरा से सुख को
पिघला देती है

कुछ लड़कियों के चेहरे बहुत सारी लड़कियों जैसे लगने लगते हैं
‘अब सब ठीक होने लगा है’ का भ्रम टूटने लगता है
कि ज्यादा नुकीले हो गए हैं
स्त्रियों की हिम्मत को तोड़ने वाले हथियार
ज्यादा शातिर हो गयी हैं
उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साजिशें
झूठ की पालिश से खूब चमकाए जा रहे हैं मुहावरे
कि अब सब ठीक ठाक है...

जबकि असुरक्षा के घेरे से बाहर न ये कुछ लड़कियां हैं
न बहुत सारी लड़कियां।

Friday, August 23, 2024

जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं- प्रियदर्शन

हम क्या देखते हैं, कितना देख पाते हैं। क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं। अपने जानने को लेकर, अपने समझे को लेकर कितने आग्रही हैं, कितने जिद्दी हैं इस बारे में सोचने की न कोई जरूरत किसी को महसूस होती है और न ही ऐसी कोई प्रक्रियायें हैं। हम बिना सोचे समझे, करते जाने वाले समाज का हिस्सा हैं। नतीजा यह कि जब समझना, सोचना तर्क करना  सीखा, शुरू किया भी तो उस पर पिछली सलवटें तारी रहीं। जिद की लौ बढ़ती रही और हिंसक होने में बदलने लगी। 

पहले किसी से असहमति होती थी तो गुस्सा आता था, अब नहीं आता। अब उदासी होती है कि सफर लंबा है अभी...यूं भी समझ के बीज जरा आहिस्ता ही उगते हैं यह सोचते हुए हालात की उथल-पुथल और उससे जुड़ी चिंताओं पर खिंचती भाषाई तलवारें (कई बार सचमुच की तलवारें भी) सोचने पर मजबूर करती हैं, पढ़ना क्या सच में पढ़ना है। लिखना क्योंकर आखिर? 

मेरे लिए हर वह वाक्य सार्थक वाक्य है जो बावजूद तमाम मतभेदों के अपनी अभिव्यक्ति की गरिमा को सहेजे हो और जो हाशियाकृत लोगों के साथ बैठकर चाय पीने की ख़्वाहिश रखता हो। वाट्स्प विश्वविद्यालयों के लंबे चौड़े सेलेबस और रीलों के संजाल में घिरे लोगों से थोड़ा सा लॉजिकल होने की उम्मीद भी इन दिनों बड़ी उम्मीद हो चली है।  

ढेर किताबें लिखने, पढ़ने वालों की भाषा में भी जब आक्रामकता देखती हूँ तो सोच में पड़ जाती हूँ। हमेशा से लगता रहा है कि सहमति की भाषा भले ही थोड़ी रूखी हो लेकिन असहमति की भाषा का ज्यादा तरल, ज्यादा मृदु और ज्यादा स्नेहिल होना जरूरी है। क्योंकि असहमति का अर्थ दुश्मन होना तो है नहीं। प्रियदर्शन जी को टुकड़ों में पढ़ती रही हूँ। दो कहानी संग्रह पढ़े हैं, एक उपन्यास और काफी कवितायें पढ़ी हैं। उन्हें सुना भी खूब है। वो जिस भी विषय पर बात करते हैं उसके कई पक्षों को समझकर बात करते हैं। उनकी गहरी समझ राजनैतिक, समाजशास्त्रीय विवेचना का जरूरी असबाब है लेकिन इन सबसे इतर मुझे उनकी भाषा और तेवर का सामंजस्य अच्छा लगता है। कोई उन्हें ट्रोल करे तो भी वो नाराज नहीं होते, हंस देते हैं। यही बात उन्हें अलग करती है। इन दिनों उनकी किताब 'जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं' पढ़ रही हूँ। 7 आलेख पढ़ चुकी हूँ। हैरत में हूँ कि घोर राजनैतिक मुद्दों पर, जिन पर लोग भाषाई युद्ध पर उतारू रहते हैं वो कितनी सहजता से, सरलता से बात करते हैं बात जिसमें पड़ताल के सिरे खुलते हैं। 

'हिंदुओं को कौन बदनाम कर रहा है', 'धर्म के नाम पर धंधा और नफरत की सियासत', 'एक पुराने मुल्क में ये नए औरंगजेब' जैसे लेख पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कितनी जरूरी किताब है ये। छोटे-छोटे लेख हैं। न कोई पक्ष है इसमें न विपक्ष सिर्फ आईना है। 

कुछ अंश- 

'दरअसल दुनिया भर के धर्मों की समस्या रही है कि उन्हें धंधे में बदल दिया जाता है। आज न कोई कबीर को याद करता है, न कबीर के राम को। लोगों को तो वाल्मीकि और तुलसी के राम भी स्मरण नहीं हैं उन्हें बस बीजेपी के राम याद हैं।'

हम इतिहास से कौन सा हिस्सा उठाते हैं और किसे आइसोलेशन में याद रखते हैं यह समझना जरूरी है। 'स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं।'

'कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में गालिब, मीर, ज़ौक़, दाग के नाम पर रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते।'

'वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर कुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं? किन्हे  अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहाँ खोजो? क्या वाकई ईश्वर की तलाश है?'  

सवाल बहुत सारे हैं और इन सवालों पर प्रियदर्शन का बात करने का ढब जितना सहज है वही इस किताब की ताक़त है। असल में तमाम मुद्दों को बहसखोर लोग जिस गली में घसीटकर ले जाते हैं बात कहीं पहुँचती नहीं, अतिरेक से जन्मा माहौल उन्माद, हिंसा, द्वेष जरूर बढ़ता है। बहस उद्देश्यविहीन होकर भटकती फिरती है। फिलहाल इस किताब की सोहबत थोड़ी उम्मीद जगा रही है...मुद्दे हैं लेकिन कोई अतिरेक नहीं। आप इसमें लिखे से असहमत तो हो सकते हैं लेकिन आक्रोशित नहीं होंगे, सोचने के लिए कुछ नया ढूँढेंगे....

किताब अभी पढ़ रही हूँ, बाकी बात आगे होगी। किताब संभावना प्रकाशन से आई है, चाहें तो मंगायें और पढ़ें... 

Wednesday, August 21, 2024

मीठे में कविता- जिक्रे यार चले


'रोज़ डिनर के बाद मीठे में कविता का एक टुकड़ा...अच्छा आइडिया है।'

ज़िंदगी की आपाधापियों में जब सुकून की एक लंबी सांस की दरकार होती है तब मीठे के एक टुकड़े की तरह, सूखे मन पर संतूर पर बजते शिव कुमार शर्मा के 'वॉकिंग इन द रेन' की तरह, तेज़ धूप में अमलतास के गुच्छे के आगे हथेलियाँ बिछा देने की तरह, जाते हुए प्रेमी की पीठ पर 'फिर आऊँगा' का भ्रम पढ़ते हुए, रात भर की जाग से आँखों के नीचे आए स्याह घेरों में इंतज़ार की ओस के फाहे रखने की तरह है 'जिक्रे यार चले' को पलटना। 

कभी भी, कहीं से भी। इसे पढ़ते हुए महसूस होता है मानो हवा ने चेहरे को छू लिया हो। 

ये प्यार के किस्से हैं, लव नोट्स। इन्हें एक बार में नहीं पढ़ रही, धीरे-धीरे साँसों में घुलने दे रही हूँ। इन्हें पढ़ते हुए जाने क्या-क्या खुलता है, बिखरता है। ये लड़की कौन है आखिर जो मूमल गाती है, वो लड़का कौन है जो सामने मुस्कुराता है और चुपके से रोता है। कहाँ हैं ये दोनों? यहीं आसपास। थोड़ा-थोड़ा हम में ही। हमसे ही बिछड़ गया हमारा कोई हिस्सा, कोई किस्सा इन लव नोट्स में धड़क रहा है। 

प्यार की बात होती है तो जाने क्यों लगता है प्यार के बहाने इस दुनिया को खूबसूरत बनाने की बात हो रही है। इस दुनिया में हर किसी को रोटी और रोजगार के बाद सबसे ज्यादा जरूरत प्यार की ही तो है। वो जो इश्क़ का किस्सा ज़िंदगी की किनारी से रगड़ता हुआ गुज़र गया उसे बिसरा क्यों दिया दोस्त, उसमें ही तो ज़िंदगी थी। 

कोई बात नहीं, पल्लवी ने वो तमाम किस्से सहेज लिए हैं, सहेज ली है एक बात की किसी का आना, चले जाना, वापस न आना, उदास होना इन सबसे भी कहीं आगे की बात है प्यार...कि वो बस होता है और एक खुशबू मुसलसल बिखरती रहती है। 

'ये जिस गुलमोहर के नीचे हम बैठे हैं न, उसके जन्मदिन पर मैंने उसे तोहफे में दिया था और हम दोनों ने इसे यहाँ रोपा था। मैं जानती हूँ वह भी कभी इस शहर में आता होगा तो कुछ पल इसके नीचे जरूर बैठता होगा...'अब कहो कि स्मृतियाँ सांस नहीं लेतीं... 

प्रिय पल्लवी, ये लिखते मेरे रोएँ खड़े हैं और आँखें नम हैं कि तुमने ये सुंदर किस्से हमें दिये। आओ न गले लग जाते हैं, चाय तो श्रुति ही बनाएगी...है न?  

Friday, August 16, 2024

तुम्हारे खयाल में, देर रात तक



...और मैं सफर में थी। चुप रहने की शदीद इच्छा और उस चुप रहने में ही थोड़ा सा किसी से बतिया लेने की इच्छा के बीच कुछ अटका हुआ, कुछ ठिठका हुआ सा। अकेलापन इस कदर आकर्षक, किसी जादू की तरह होता है कि इसे हर हाल में टूटने से बचा लेने के लिए हम जुटे रहते हैं। यह इतना नाज़ुक होता है कि जरा सी आहट से दरकने को बेताब रहता है।

सफर शुरू हुआ तो दिन बीतने को था और शाम, सिंदूरी ओढ़नी पहनकर इतराते हुए अपनी छोटी सी ड्यूटी पर आने को तैयार थी।

मैंने किताब ‘देर रात तक’ उठाई थी। ‘देर रात तक’ गौरव गुप्ता की किताब है। न कहानी, न कविता, सी यह किताब। किताब के कुछ पन्ने पहले ही पलट चुकी थी तो मुझे लगा सफर में यह जो चुप रहने और बिना चुप्पी को तोड़े किसी से बतिया लेने की इच्छा शायद इस किताब को पढ़ते हुए पूरी हो जाएगी। अंदाजा ठीक निकला। बाहर आसमान में चाँद उग रहा था यह सोचते हुए मैंने बगीचे में मोगरा मुस्कुरा रहा होगा को याद किया और पन्ने पलटे। किताब में बोगेनबेलिया की शाख हिलती हुई मिली। बारिश के बाद शाखों पर छूट गई बूंदों ने मानो चेहरे पर नर्म मुस्कुराराहट उकेर दी।

इस लिखावट में प्रेम है, और प्रेम ही तो जीवन है। जीवन के तमाम रंगों को बेहद खूबसूरत ढंग से गौरव ने इन प्रेमिल नोट्स में सहेजा है। जैसे उन्होंने अपनी उस रात को पाठकों के साथ साझा कर लिया हो जिसमें, महमूद दरवेश हैं, रिल्के हैं, काफ़्का हैं, ओशो हैं, वॉन गाग हैं, विनोद कुमार शुक्ल हैं, निर्मल हैं और मानव कौल हैं। इन सोहबतों में किसी छूटे हुए या छूट गए से लग रहे प्रेम की परछाईयां हैं, चाय है, मौसम हैं। उदासियों की ख़ुशबू है, उम्मीदों की कोंपलें फूटने की आवाज़ है।

देर रात तक...पढ़ते हुए महसूस होता है कोई चुपचाप आकर बगल में बैठ गया हो जैसे और सांस तनिक हल्की हुई हो। जैसे रूमानियत का धीमा संगीत Keeny G की संगत में खिल रहा हो।

गौरव अपनी सोहबतों के असर में हैं, उस असर से बेज़ार भी नहीं। वो लिखते हैं वैसा जैसा महसूस करते हैं बिना किसी अतिरेक के बिना किसी बनावट के। यही इस किताब का सौंदर्य है।

किसी भी पन्ने को कभी-कभी पलटा जा सकता है, थोड़ा सा पढ़कर देर तक चुप रहा जा सकता है। मुझे इस लिखे में एक लंबी खामोशी दिखती है जिसकी बोल बोलकर थक चुकी इस दुनिया को बड़ी जरूरत है। इस लिखे में मानव का बीच-बीच में दिख जाना चौंकाता नहीं एक अपनेपन से भरता है। गौरव को ढेर सारी शुभकामनायें देते हुए खुश हूँ और उम्मीद से भरी हूँ।

Sunday, August 11, 2024

घड़ी दो घड़ी- बसंत त्रिपाठी


जैसे बरसकर थमी शाम में झींगुरों की आवाज़ उगती है, जैसे हवा से हिलती हैं पत्तियाँ और अपनी हथेलियों पर अकोरी बूंदों को छिड़क देती हैं आहिस्ता से, जैसे रातरानी की ख़ुशबू इकसार हो जाती है रात में और अंधेरे को महका देती है, जैसे भीगा हुआ पंक्षी अपनी पांखे खुजलाता है और आसमान में उड़ जाता है, जैसे किसी की याद आती है और पल भर को नब्ज़ तनिक थम जाती है, जैसे किसी को देखकर पलकें झपकना भूल जाती हैं और 'घड़ी दो घड़ी' जीने की आकांक्षा से मन भर उठता है। बसंत त्रिपाठी का नया कविता संग्रह 'घड़ी दो घड़ी' ऐसी ही निर्मल अनुभूतियों का कोलाज है। सघन अभिव्यक्तियों का ऐसा जादू जिसके कभी न टूटने की दुआ बरबस जन्म ले।

बसंत समय और संवेदना का ताना-बाना रचते हैं लेकिन बिना किसी अतिरेक के। उनकी कविताओं में  बिना किसी शोरगुल के जीवन के हर रंग मौजूद हैं। सरलता उनकी कविताओं का ऐसा गुण है कि ये किसी को भी अपना बना लें। कविताओं को ऐसा ही तो होना चाहिए कि किसी शाम जब आप तन्हा हों, चाय पीते हुए किसी की याद में गुम हों वे आयें और बिना तन्हाई को तोड़े करीब बैठ जाएँ।

इन कविताओं में प्रकृति प्रतीक के तौर पर आती है और विराट अर्थ ध्वनित करती है। हर पंक्ति के भीतर एक बड़ा संसार है। एक संसार जो शब्द के अर्थ में ध्वनित होता है और दूसरा संसार जो उसके भीतर है, जो लंबी यात्रा करके यहाँ तक पहुंचा है। जिसमें एक सुंदर कल का सपना है, यथार्थ पर नज़र है और प्रेम पर भरोसा है। संग्रह की पहली कविता भूमिका की ये लाइनें 'मैं संभावनाएं लिखता हूँ/जो बुद्धि के दुर्ग में/लहू के सिक्त/दिल के राग छेड़ती है।' इसी कविता में 'मैं वो स्वप्न लिखता हूँ/जो सचमुच की नींद में/सायास उभरते हैं/मैं दुस्वप्न लिखता हूँ/जो कच्ची नींद में कुलबुलाते हैं/' 

कविता भाषा का खेल नहीं विचार और संवेदना का साम्य है। पुश्किन की बात को अगर अपने ढंग से कहूँ तो भाषाई कौशल को साधना आसान है लेकिन जीवन के पथरीले, जटिल यथार्थ को कविता में साधना आसान नहीं। यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब कवि दुनिया को बेहतर बनाने के सपने का हाथ नहीं छोड़ता। यथार्थ की लहूलुहान हथेलियों पर उम्मीद के फाहे रखती कवितायें जीवन में भरोसा बचाए रखती हैं। यही बसंत की कवितायें करती हैं। उनकी कविता मैं पानी हूँ की एक लाइन देखिये,'मैं पानी हूँ/मैं तुम्हारी प्यास ढूँढता हूँ।' 
एक तरफ प्यास की तलाश में निकला पानी है दूसरी तरफ बादलों में गुम एक मन, 'भीगा मन लिए/बादलों के भीतर उड़ रहा हूँ/'। ऐसी पंक्तियाँ पढ़े मानो जमाना बीत गया। एक और कविता में छाया के रंग की बात सुनिए तो, 'छाया का रंग/लेकिन अब भी वही/वही जरा सुस्ताने के आमंत्रण का रंग।' कितनी बड़ी रेंज है इन पंक्तियों की,कि छाया ने कभी अपना रंग नहीं बदला, कितना कुछ बीता, फिर भी। और हम?  

कविता घड़ी दो घड़ी में प्रेम के रंग देखिये,'तुम बैठो/थोड़ी देर और/पेड़ की परछाई को/पूरब की ओर।थोड़ा और बढ़ने दो/बच्चों को शिक्षा की जेल से/शोर मचाकर निकलने दो।' एक कविता के एक ही हिस्से में प्रेम, सामाजिक सरोकार, चिंता और और उस चिंता की कारागार को तोड़ने का स्वप्न सब एक साथ बुन पाना सरल तो नहीं, यह जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण दृष्टि, राजनैतिक, सामाजिक समझ और लंबी अनुभव यात्रा से ही संभव है।  

एक कविता है युद्ध के बाद का जीवन उसकी कुछ पंक्तियों को देखिये, 'टैंक और बमवर्षक विमान/जब ध्वस्त हो जाएँगे लड़ते-लड़ते/ठीक उसके बाद/मैं तुम्हें लिखूंगा पोस्टकार्ड/और ख़ुशबू से भरी हवा की पत्र पेटी में डाल आऊंगा।' 'मैं अंधड़ से भरे तुम्हारे दिल में/रख दूंगा दुनिया में अभी ही जन्मी/एक कत्थई कोमल पत्ती/युद्ध के बाद/घायल पसलियों, टूटी हड्डियों/और अपराजेय सपनों से/ऐसे हो तो बाहर आता है जीवन।' कविता आत्मनाश की पंक्तियाँ, 'मैं वह भूख/जो हर बार पानी से ही मिटाई जाती रही/मैं इस महान लोकतन्त्र में/नागरिक अधिकारों का वह उपेक्षित अध्याय/जिसे आठवीं के बच्चे/केवल परीक्षा पास होने के लिए पढ़ते हैं/वह भी अपनी नैसर्गिक खीझ के साथ।'

इस संग्रह की कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों के साथ मैं सिर्फ यह कह सकती हूँ कि यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है, इसे पढ़ा जाना चाहिए, कविताओं को अपने भीतर उतरने देना चाहिए और कुछ देर उन कविताओं के साथ चुप रहकर वक़्त बिताना चाहिए। 

संग्रह का सुंदर कवर निकिता ने बनाया है और भीतर कुछ रेखांकन भी हैं जो कविताओं को थोड़ा विस्तार देते हैं। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को पढ़िये और अपने पास संभालकर रखिए, ठीक उसी तरह जैसे बुरे से बुरे वक़्त में संभालकर रखते हैं उम्मीद।  

Tuesday, August 6, 2024

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों



'घास को घुटन हो रही होगी, तुम्हें बगीचे की सफ़ाई करा लेनी चाहिए।' यह पंक्ति पढ़ी और बादल फटने की आवाज़ कानों में आई...

काफी दिनों से बारिश का इंतज़ार था। अटके हुए भरे-भरे बादल खिड़की पर टंगे-टंगे ऊँघ रहे थे। 'मैंने मांडू नहीं देखा...' मेरे साथ रात दिन चल रही है कई दिनों से। जब शुरू की थी तो यही लगा कि कैसी अहमक़ हूँ कि इतनी देर से पढ़ रही हूँ। लेकिन अब किताब खत्म हो चुकी है और मैं दो दिन से लगभग अवसन्न अवस्था में डोल रही हूँ। शब्दातीत।

मैंने इस किताब को तो नहीं ही पढ़ा था इसके बारे में भी कुछ नहीं पढ़ा था। कुछ भी नहीं। बस ये सोचती रही किताब के बारे में नहीं सिर्फ किताब पढ़ूँगी। और अब लग रहा है कि अच्छा हुआ पहले नहीं पढ़ी। कई बार जीवन हमें चुनता है, जबकि हमें लगता है हमने जीवन को चुना है। ठीक ऐसा ही किताबों के साथ है वो न सिर्फ अपना पढ़ा जाना चुनती हैं, समय भी चुनती हैं। मेरे साथ ऐसा कई किताबों के साथ हुआ। इसलिए मैं पढ़ने को लेकर कभी भी मशक्कत नहीं करती बस पन्ने पलटती हूँ और इंतज़ार करती हूँ कि किताब मेरा हाथ थामे और आगे की यात्रा पर ले जाये।
मांडू ने हाथ लिया....

मेरी पढ़ने की गति तेज़ है। लेकिन कुछ किताबें अपनी गति भी तय करती हैं। मैंने हर दिन इस किताब के कुछ पन्ने पढ़े और पूरे वक़्त पढ़े हुए के साथ रही. क्या कभी भी इस पढ़े हुए से मुक्त हो सकूँगी। पढ़ते हुए बीच-बीच में संज्ञा से बात करती रही किताब के बारे में।

क्या यह सिर्फ किताब है...बिलकुल नहीं। क्या इसे सिर्फ पढ़कर परे रखकर आसानी से दूसरी दुनिया में जाया जा सकता है? गीता, सुकान्त, पारुल, विकास राय, डॉ चारी, डॉ प्रताप और मायाविनी...क्या कभी मुक्त हो पाएंगे।

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों से कहना आसान होता काश।

मैं सच में सोच रही हूँ मैंने बिलकुल ठीक समय पर इस किताब को पढ़ा, पहले पढ़ती तो शायद संभाल न पाती. जिस दिन किताब का अंतिम हिस्सा पढ़ा. देर तक आसमान देखती रही। कुछ ही देर में बारिश उतर आई। मैंने हमेशा की तरह हथेली बढ़ा दी। वही हथेली जिसमें मैंने मांडू नहीं देखा लगातार रहती है। संज्ञा को बस इतना लिखा, पूरी हो गयी किताब...अनकहे शब्दों को पढ़ने में माहिर संज्ञा ने अपनी चुप की हथेली मेरी चुप पलकों पर रख दी।

आज शाम उसने एक लिंक भेजा...यह उस किताब के आगे की कथा है। सुकान्त दीपक का लिखा। ये आज ही हिंदवी पर आया है। क्या यह महज संयोग है?
 
मैंने दफ्तर से लौटते हुए लिंक खोला...बारिश ने रफ्तार पकड़ ली...जैसे कोई बादल फटा हो कहीं...

(https://hindwi.org/bela/sukant-deepak-memoir-papa-elsewhere-translation-nishiith?fbclid=IwZXh0bgNhZW0CMTEAAR1nUjwzPtaXGMTstOpSV3MqnuEDxvpUv7XMaFtrwLY_tOa8KSxxMBjOV98_aem_CRwgUVR7M5bABwMODxqNJg)

Thursday, August 1, 2024

तारिक का सूरज


तारिक का सूरज एक ऐसी कहानी है जो कल्पना के कैनवास पर अपने मन की दुनिया का एक कोना गढ़ती है। ऐसा कोना जहां रोशनी तनिक अधिक है। तारिक का सूरज दुनिया को थोड़ा ज़्यादा रोशन करती है।

कहानी कुछ यूं है कि तारिक को भी बाकी बच्चों की तरह खेलना बहुत पसंद है और उसका खेलना निर्भर है दिन पर। सूरज डूबा, रात हुई और खेल बंद। शाम होते ही अम्मी की पुकार कि तारिक शाम हो गयी आ जाओ, पढ़ाई करो, खाना खाओ सो जाओ के अनकहे निर्देश कहानी में हैं जो तारिक को खास पसंद नहीं। वो तो रात में भी खेलना चाहता है। इसलिए उसे रात में सूरज की कमी खलती है। अब तारिक कर भी क्या सकता है। एक रोज यूं ही वो कागज पर गोचागाची करते हुए सोचने लगा कि काश रात में भी सूरज उगता तो उसे खेलने को और समय मिलता। सोचते-सोचते तारिक कागज पर सूरज बना देता है और वो सूरज रात को चमकने लगता है। यही है इस कहानी की दुनिया।

तारिक का सूरज पढ़ते हुए हम कल्पना की ऐसी दुनिया में जा पहुँचते हैं जहां दुनिया के सारे बड़े और समझदार लोगों को पहुँच ही जाना चाहिए। क्योंकि असल में तो हम सब के भीतर भी एक तारिक है, जो कहीं खो गया है।

कल्पना, तर्क और संवेदनशीलता के बीच का समन्वय बनाती यह बाल कहानी बच्चों के लिए कल्पना के नए द्वार खोलती है। संवेदना के ऐसे महीन रेशे हैं इस कहानी में कि सूरज रात को उगे तो किसी को परेशानी भी न हो। तो कैसे सब संभाल लिया जाय सब यहाँ काम आती है तारिक की तरकीब।

किसी भी मनःस्थिति में पाठक इस कहानी के पन्ने पलटें कहानी से गुजरते हुए एक खामोशी से भर उठेंगे। ऐसी खामोशी जो दुनियादारी की तमाम पेचीदीगियों से दूर ले जाती है।

इस छोटी सी कहानी में बड़ी से दुनिया के तमाम बड़े-बड़े सवालों के जवाब मिलते दिखते हैं। जितनी बार इस कहानी को पढ़ते हैं एक संवरी हुई दुनिया का ख़्वाब मुस्कुराता नज़र आता है।

नन्हा तारिक रात में भी खेलने की ललक में अपने कागज पर बनाए सूरज को सेम की बेल पर टांग देता है। बेल चढ़ जाती है आम के पेड़ पर और उसका सूरज दिप दिप करने लगता है। तारिक की दुनिया में अब रात में भी सूरज उगने लगता है।

तर्क कहता है कि भला रात को भी कहीं सूरज उगता है? लेकिन कल्पना के आकाश पर क्या नहीं हो सकता। पिछले दिनों आई फिल्म ‘स्काई इज़ पिंक’ का एक संवाद याद आता है जिसमें माँ अपने बच्चे से कहती है, ‘अगर तुम्हारा स्काई पिंक है तो स्काई का कलर पिंक ही है। तुम्हें किसी के भी कहने से अपने स्काई का रंग बदलने की जरूरत नहीं है।‘

शिक्षक जब बच्चों को कल्पना और सृजनात्मक होने के अवसर देते हैं तब भी उसमें काफी दीवारें खड़ी होती हैं जो सामाजिक संरचना के तमाम कारणों ने मिलकर बनाई हैं जो खुलेपन को भी खुलने नहीं दे पाती। ऐसे में यह कहानी बताती है कि इस कहानी और ऐसी तमाम कहानियाँ, कक्षा में मौजूद बच्चों के जीवन के अनुभवों को किस तरह पिरोना है, किस तरह उनका हाथ थामकर आगे बढ़ना है।

बात सिर्फ तारिक के सूरज के रात में भी उगने तक सीमित नहीं रहती है बल्कि उल्लू की उस परेशानी तक जा पहुँचती है जब रात में उगे सूरज के कारण उल्लू जो रात में खाने की तलाश में निकलता है परेशान होकर तारिक की खिड़की पर जा बैठता है।

मासूम तारिक खुद के खेलने के लिए रात में सूरज तो चाहता है लेकिन वो यह भी नहीं चाहता कि उल्लू भूखा रहे। वह उसे खाने के लिए दूध रोटी देता है। अब यहाँ ठहरकर सोचने की बात यह है कि क्या यह सिर्फ उल्लू की बात है, उसकी भूख की बात है। तारिक का उसे दूध रोटी देना कितनी बड़ी रेंज खोलता है मासूमियत का हाथ थामे इस दुनिया को संवार देने की।

उल्लू का या कहना कि ‘लेकिन मैं तो कीड़े खाता हूँ’ तारिक को सोचने पर मजबूर कर देता है। खुद के लिए कुछ चाहना क्या सिर्फ खुद के लिए कुछ चाहना भर होना चाहिए। सवाल और जवाब दोनों इस नन्ही कहानी के बड़े से फ़लक में समाये हैं।

रात को भी तो परेशानी है न सूरज के रात में उगने से। वो हवा से शिकायत करती है। हवा समझती है उसकी बात।

ये जो एक-दूसरे को समझना, अलग होना स्वभाव में फिर भी सहगामी होना अलग-अलग होकर भी साथ मिलकर सुंदर दुनिया को बनाने में, बचाने में अपनी भूमिकाओं को निभाना कितना जरूरी है इसकी कहन है कहानी।

यह कहानी शिक्षकों को ढेर सारे अवसर उपलब्ध कराती है। वे इस कहानी के बहाने बच्चों के मन की दुनिया में क्या-क्या चलता है, कैसे वो सोचते हैं, क्या हो अगर जब वो सोचते हैं वो हो जाए तो जैसे बिन्दुओं पर चर्चा कर सकते हैं, उन्हें सोचने, तर्क करने, कल्पना के आसमान में ऊंची उड़ान लेने को मुक्त कर सकते हैं।

‘इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है...’ जैसे नीरस हो चुके वाक्य से दूर अगर इस कहानी के बारे में एक लाइन में कहें तो यह कहानी बच्चों को मजेदार लगने वाली और अपनी सी लगने वाली कहानी है।

दिन के सूरज में तारिक के सूरज की भी रोशनी है यह पंक्ति हम सबके हिस्से की पंक्ति है। हम सबका होना कहाँ-कहाँ शामिल है, कहाँ-कहाँ खिल रहा है। हमारे होने ने क्या इस दुनिया को जरा भी बेहतर बनाने में कोई भूमिका निभाई है। अगर नहीं तो सोचने की ओर इशारा करता है तारिक का सूरज।

लेखिका शशि सबलोक ने क्या ही तरल और सरल गद्य का प्रयोग इस कहानी में किया है। कम शब्दों के उपयोग के साथ कैसी एक बड़ी दुनिया में गोता लगाया जाता है यह इस कहानी में देखने को मिलता है।

तविशा सिंह ने सुंदर चित्र बनाए हैं। उन्होंने कहानी के मर्म को जस का तस पकड़ा है और कहानी के चित्र वैसे ही बनाए हैं जैसे तारिक ने बनाए हों। नन्हे मासूम हाथों की लकीरों की छुअन महसूस होती है इसमें। अनगढ़पन का भी एक रंग होता है उसकी भी एक खुशबू होती है लेकिन उसका उपयोग कम ही लोग कर पाते हैं। तविशा इन चित्रों को बनाते हुए सीधे तारिक के मन की दुनिया में प्रवेश करती हैं और धीरे से उनकी उँगलियाँ तारिक की उँगलियाँ होने लगती हैं। कहानी के चित्र कहानी का विस्तार हैं। रंगों और लकीरों का लिखी गयी कहानी से अच्छा सामंजस्य है।

तक्षशिला के अंतर्गत जुगनू प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है।

शिक्षकों को इस कहानी के जरिये कक्षा में काम करने के तमाम अवसर नज़र आएंगे। इस कहानी को बार-बार पढ़ने की जरूरत है। हर बार कुछ नयी समझ नए एहसास की परतें खुलती हैं। पढ़ते हुए हमें महसूस होगा कि आसमान में जो सूरज है उसमें तारिक के सूरज की रोशनी तो शामिल है ही थोड़ी सी हमारे मन के रोशन कोनों की खुशबू और चमक भी शामिल है।

-प्रतिभा कटियार

Tuesday, July 23, 2024

मौसम बने हैं डाकिया



एक रोज लड़की ने रेगिस्तान में बोयी
इश्क़ की बारिश
पीले कनेर भर उठे बूंदों से
और धरती को लग गए पंख

एक रोज नदियों ने गुनगुनाए
कश्तियों के गीत
और मुसाफिरों ने जानबूझकर
गुमा दिये रास्ते

एक रोज दुनिया भर की सेनाओं ने
गुमा दिये सारे हथियार
और सरहदों पर उगाये
सफ़ेद फूल

एक रोज लड़के ने
लड़की के माथे पर टाँक दिया चुंबन
दुनिया सुनहरी ख्वाबों की आश्वस्ति से
भर उठी

एक रोज दुनिया भर की किताबें
प्रेम पत्रों में बदल गईं
और सारे मौसम बन गये डाकिये

इस दुनिया को ख़्वाब सा हसीन होना चाहिए....



Monday, July 1, 2024

शहर का मौसम जैसे रुबाई कोई...



देर रात बैंगलौर की सड़कों से गुजरते हुए स्मृतियों के तमाम पन्ने उलटने-पलटने लगे। मानो कल की ही तो बात है जब मैंने डरते-सहमते इस शहर में कदम रखा था। वह मेरी पहली यात्रा थी बिना किसी बड़े का हाथ थामे खुद निकलने की। छुटकी सी बिटिया का हाथ थामे तमाम असहमतियों और नाराजगियों को निकलते वक़्त के किसी नेग की तरह आँचल में बांधे बस निकल पड़ी थी। थोड़े से पैसे जमा किए थे इसलिए पैसों के लिए किसी पर निर्भर नहीं थी वरना किसी तरह यह संभव नहीं होता। थोड़ी सी हिम्मत भी बचाकर रखी थी ऐसे मौकों के लिए। हिम्मत और आर्थिक निर्भरता ने कंधे थपथपाये और हम माँ बेटी निकल पड़े थे।


 हम दोस्त ज्योति के घर आए थे। न शादी था, न ब्याह न मुंडन न जनेऊ और न ही कोई रिश्तेदार थी ज्योति। कोई कैसे समझे इस जरूरत को, इस यात्रा की जरूरत को। ऊंहू यात्रा नहीं, दहलीज़ के बाहर पहला कदम। अजीब सा लग रहा है न सुनने में। बिलकुल। मुझे कहने में भी लग रहा है। जीने में भी लग रहा था। कि मैं नौकरी में थी, लिबरल फैमिली की परवरिश में पली बढ़ी फिर भी यूं कभी न सोचा निकलने के बारे में, न घरवालों को इसकी आदत पड़ी।

कभी-कभी सोचती हूँ कितना आसान है हर बात का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना। हालात, आस-पास के लोग, सामाजिक बेड़ियाँ, अलां, फलां। ये सब होते हैं मुश्किल का सबब निसंदेह लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है हमारी खुद की इच्छा, हिम्मत। हम खुद कहाँ आँख भर सपने देखते हैं। हम कहाँ सांस लेने से आगे का जीवन जीना चाहते हैं। जैसा कहा गया वैसा जीने लगना, जैसा कहा गया वैसे ही सोचने लगना, जो तय किया गया उस रास्ते पर चलना कितनी तो सुविधा है इस सबमें।

मैंने खुद कहाँ आँख भर सपने देखे कभी। सपने जिसमें मैं थी।

कल रात जब बैंगलोर की सड़कों पर अकेले थी, कोई डर नहीं था। अब मुझे किसी शहर, किसी देश में किसी भी वक़्त डर नहीं लगता। झिझक नहीं होती। इस निडर प्रतिभा में उस लम्हे का जब अकेले निकलने का निर्णय लिया था, उस पहले सफर का बड़ा योगदान है।

 

शहर का मौसम सच में सुंदर है। हवा गालों को छू रही थी, मानो दुलार रही हो।

एक रोज किसी ने कहा था, ‘तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हैं’ और मैंने यूं ही लापरवाह सी अल्हड़ हंसी में डूबे हुए कह दिया था, ‘सपनों से भरी हैं न, इसलिए’ कहने वाले को क्या समझ आया क्या नहीं, नहीं जानती लेकिन कहने के बाद मेरे भीतर एक छोटी सी रुलाई फूटी थी। कब देखे मैंने सपने, काश देखे होते। मैंने सपने क्यों नहीं देखे। कौन सा डर मुझे रोके रहा। सपनों के टूटने का डर या कुछ और। पता नहीं।

इसके बाद जब भी आईना देखा अपनी आँखों को सूना ही पाया।

एक रोज एक दोस्त ने पूछा था, ‘तुम क्या चाहती हो अपने जीवन से’ और मेरे पास कोई जवाब ही नहीं था। फिर कुछ देर सोचने के बाद मैंने कहा, ‘मैं खूब सारी बारिश में भीगना चाहती हूँ। नदी के किनारे की बारिश में, समंदर के किनारे की बारिश में, जंगल की बारिश में, सड़क पर भीगते हुए भागना चाहती हूँ....मैं बहुत भीगना चाहती हूँ।‘ ‘बस...बस...इतना भीगोगी तो बुखार आ जाएगा।‘उसने हँसकर कहा था।

मैंने अपनी मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए कहा,’तो पैरासीटामाल खा लूँगी...’ हम दोनों हंस दिये थे।

हाँ, सच में इतनी सी ही तो हैं मेरी ख़्वाहिशें...कि दुनिया में बेहिसाब मोहब्बत हो इतनी कि किसी को किसी से झगड़ने का वक़्त ही न मिले। और बेहिसाब बारिश हो कि धरती का कोई कोना सूखा न रहे, हाँ, बाढ़ भी न आए ख़्वाहिशों में समझ का यह पुच्छल्ला अपने आप आकर चिपक गया था।

जिस कमरे में ठहरी हूँ वो चौदहवीं मंजिल पर है। रात कमरे में जब दाखिल हुई तो जाने कब लिखकर भूल गयी ख़्वाहिश की एक पर्ची टेबल पर रखी मिली जिस पर लिखा था, ‘तुम्हारा एक नन्हा ख्वाब’। ये ख़्वाब मैंने देखा था याद नहीं। हाँ, शायद यूं ही कोई इच्छा उछाल दी थी हवा में कि ऐसे कमरे में होने का ख़्वाब जहां से शहर, आसमान, बादल सब एकदम करीब नज़र आयें। बस पर्दा हटाओ और बादलों को छू लो। ये क़ायनात भी न, सुन तो लेती है।

देर रात में अपने कमरे से, अपने बिस्तर से टिमटिमाते शहर को देखती रही। सुबह उठी तो आसमान एकदम उजला था। शहर शायद अभी काम पर निकलने की तैयारी में है। मैंने मुस्कुराकर आसमान की ओर हाथ बढ़ाया और उससे पूछा, ‘तुम देहरादून के आसमान से मिले हो कभी? बहुत सुंदर है वो भी?’ ये बैंगलोर का आसमान है, इसने कोई जवाब नहीं दिया शायद काम पर निकलने की जल्दी में होगा। न सही, मुझे क्या। मैं तो दो कप चाय पीकर आराम से वक़्त के करतब देख रही हूँ। और बीता हुआ कल स्मृतियों के झरोखे में बैठे हुए मुस्कुराते हुए मुझे देख रहा है।

सोचा था, नए शहर में उसकी याद जरा कम आएगी...पर देख रही हूँ सबसे पहला धावा याद ने ही बोला है और चाय पर मुझे अकेला नहीं छोड़ा है।

Friday, June 21, 2024

बहुत दिन हुए


बहुत दिन हुए 
किसी झरे हुए पत्ते को
हथेली पर रखकर
देर तक निहारा नहीं

बहुत दिन हुए
किसी सूखी नदी से नहीं सुना
पानी की स्मृति का गीत

बहुत दिन हुए
किसी सपने से टकराकर
चोट नहीं खाई

बहुत दिन हुए 
किसी ने दिल नहीं तोड़ा 
कोई छोड़कर गया नहीं 

बहुत दिन हुए 
किसी कविता ने माथा नहीं सहलाया 
गले से नहीं लगाया 

बहुत दिन हुए कोई दुख
बगलगीर होकर गुजरा नहीं

कितना सूना है जीवन
बहुत दिनों से....

Tuesday, June 18, 2024

स्क्रीन पर प्रेम रचता है ये लड़का


एक बदली पलकों पर आ बैठी है...उस बदली को मेरे मुस्कुराने का इंतज़ार है और मुझे उसके बरसने का। हम दोनों इंतज़ार की ड्योढ़ी पर बैठी हुई हैं। बारिशें बस होने को हैं। राहत की बारिशें, उम्मीद की बारिशें... 

इन दिनों यात्राओं में नहीं हूँ लेकिन यात्रा पर ही हूँ। अक्सर ऐसा महसूस होता आया है किसी यात्रावृत्त को पढ़ते हुए लेकिन इन दिनों ऐसा हो रहा है यात्रा में किसी को देखते हुए। तकनीक के बढ़ते कदम कितनी राहतें लेकर आए हैं। बस हमें ढूंढनी हैं ये राहतें। इन दिनों मेरी राहतें हैं कनिष्क गुप्ता के ट्रैवेल वीडियो। पहली बार जब कनिष्क का वीडियो देखा था तब ही लगा था कि ये कुछ अलग है। ट्रैवेल वीडियो के नाम पर दृश्य, सूचनाओं के ढेर और अति उत्साह में की गयी कमेंटरी कुल मिलाकर कुछ खास कनेक्ट नहीं कर पाते।

कनिष्क ने कुछ प्रयोग किए हैं। उनके वीडियो शुरू होते हैं और स्क्रीन पर सुंदर दृश्यों के साथ ठहरा हुआ स्वर उभरता है। कितनी ही बार रोएँ खड़े हुए इन वीडियो को देखते हुए। कितनी बार सुख आँखों से फिसलकर गालों पर टहलता हुआ भी मिला है। कनिष्क खूब रिसर्च करते हैं लेकिन उस रिसर्च को सूचनाओं की तरह नहीं किसी प्रेमगीत की तरह साझा करते हैं। आप उनके साथ मेघालय जाइए, दार्जिलिंग जाइए, हर्षिल, स्पीति, अरुणाचल या कहीं और आप भूल जाएंगे कि आप किसी कमरे में बैठे हैं और देख रहे हैं। 

कनिष्क स्क्रीन पर कोई जादू रचते हैं। बादलों का उठता हुआ सैलाब, हरियाली का उगता समंदर, घर, जंगल, फल, फूल, रोटी, चाय, लोग, मुस्कुराहटें ऐसे संग आ बैठते हैं करीब कि मन हल्का होने लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा जैसे बारिश गुनगुनाने लगी हो, धरती नृत्य करने लगी हो। एक ही वीडियो को न जाने कितनी बार देखने के बाद भी मन नहीं भरता तो किसी दोस्त को भेज देती हूँ कि लो, तुम भी तो देखो। काम की आपाधापियों के बीच में एक छोटे से ब्रेक में भी इन वीडियोज़ ने राहत दी है।

घूमना कैसा होना चाहिए, कैसे होना चाहिए ये बताते हैं कनिष्क। कैमरा वर्क तो शानदार है ही कनिष्क की कमेंटरी जैसे कोई संगीत सा झरता हो। कोई हड़बड़ी नहीं, कहीं पहुँचने की कोई जल्दी नहीं, कुछ बताने की जल्दबाज़ी नहीं। कनिष्क वीडियो के बहाने हर लम्हे को जी भरके जीते हैं, खुश रहते हैं और यह उनके बोलने में, चलने में, मुस्कुराने में, थक कर बैठ जाने में भी खूब झलकता है।

इन दिनों ये वीडियो राहते हैं....प्रकृति और प्रेम को बचा लीजिये सब बचा लेंगे। प्रकृति के प्रेम में डूबा यह लड़का दुनिया में कितना कुछ बचा रहा है, ये बात शायद ये खुद भी नहीं जानता। फिलहाल कनिष्क राहत हैं...प्रेम हैं...भरोसा हैं, सुख है।
@KanishkGupta
https://www.instagram.com/knishkk/

Saturday, June 15, 2024

अब जीने से डरती नहीं हूँ



जैसे कोई अपना ही ख़्वाब रखा हो जरा सी दूरी पर। टुकुर-टुकुर ताक रहा हो। हाथ बढ़ाते हुए भाग जाता हो। जैसे बचपन का कोई खेल। ऐसे ही तुम आए थे जीवन में। 'आए थे'...इसे लिखते हुए जैसे खुद का ही कोई हिस्सा कटकर गिर गया हो। मैंने वाक्य को दुरुस्त किया और लिखा ऐसे ही तुम आए जीवन में।

कोई भी जिया हुआ लम्हा हमसे कभी जुदा नहीं होता। और हम व्यक्ति के जुदा होते ही उस खुश लम्हे की स्मृति में भी उदास रंग घोलने लगते हैं। हमें जीना नहीं आता। हमें खुश होना नहीं आता। हमें उदास होना भी नहीं आता। आज जब अपने जिये हुए लम्हों को छूकर देखती हूँ तो वो हँसकर पूरे घर में बिखर जाते हैं। मेरी देह में जैसे सावन उतर आता है। वो सारा जिया हुआ संगीत, सारी जी हुई शरारतें, सारा साथ पैदल चला हुआ, सारा साथ में भीगा हुआ सब कुछ पोर पोर में खिल उठा है।

हम कहते हैं एक लम्हे का मुक्कमल सुख पूरे जीवन की मुश्किलों पर भारी होता है। वो एक लम्हा जो हमारे समूचे वजूद को रूई के फाहे की तरह हल्का बना देता है। तमाम उलझनों से निकाल लेता है, वही लम्हा तो जीवन है।

मैंने उन लम्हों को यादों के कोठार में बंद करके उन लम्हों की प्रतिकृति बनाने की कोशिश में खुद काफी जख्मी कर लिया। और तब अक्ल आई कि प्रतिकृति सिर्फ प्रतिकृति ही है। मैंने कोठार का दरवाजा खोला और घर स्मृति में बसे खुश लम्हों की खुशबू से भर गया। Keeny G का संगीत मेरी मुस्कुराहट का सबब कभी भी बन सकता है।

मैं अब ख़्वाब देखने से डरती नहीं हूँ। उन्हें छूने से भी नहीं घबराती। और हाँ, अब मैं जीने से भी नहीं डरती हूँ। इस सुबह में जीवन खिला हुआ है। नींद खुल गयी है और ख़्वाब टूटा नहीं है।

Thursday, May 9, 2024

भला हुआ मोरी गगरी फूटी....


ये चायल के नगाली गाँव में मेरी आखिरी सुबह थी। जाने से पहले सारी हवा, सारा हरा अकोर लेना चाहती थी। सिर्फ मैं जानती थी कि कितनी बेचैनियां लिए घर से निकली थी इस सफर के लिए। कितनी अनिश्चितता लिए। ऐसी अनमयस्कता कि कहीं न मन लगे न पैर टिकें। अकेले रहते ऊब जाऊँ तो भी किसी से बात करने का जी न करे। जो कभी कर भी जाय बात करने का जी तो समझ न आए कहाँ से शुरू हो संवाद का सिलसिला। दूसरा संभाले ये ज़िम्मेदारी तो लगे थक गयी सुनते-सुनते। बात करना आजकल बात सुनना हो चला है।

कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ  समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ। 

हाल ही में देखी हुई फिल्म Irish Wish याद हो आई। सच में, हम कहाँ जानते हैं अपने बारे में कुछ भी...जानता तो कोई और है हम तो बस उसे जीते हैं। तो बस नागली गाँव की उस सुबह के आगे बाहें पसार दी थीं। 

गाँव सब गाँव जैसे ही तो होते हैं। सीधे, सरल मुस्कुराते। उन पगडंडियों पर एक जगह चारा काटने की मशीन देख बचपन की याद खिल गयी जब चारा मशीन में लटक जाने के बावजूद उसे हिला तक नहीं पाती थी। सर पर चारे का गट्ठा लेकर चलने की जिद हो या कुएं से मटकी में पानी भरकर ले जाने की जिद...हर जिद पर होती अपनी मासूम हार की याद खिल गयी। कितना तो खुशकिस्मत बचपन है जो ऐसी प्यारी यादों से भरा हुआ है। 


अभी बचपन की याद का हाथ थाम नगाली गाँव में घूम ही रही थी कि एक अजब सी चीज़ दिखी। कुछ काला गोल जिसमें से धुआँ निकल रहा था और उसमे पानी जैसी टोटी भी लगी थी। पास ही खड़े एक युवक ने बताया यह पानी गरम करने की चीज़ है। भीतर आग जलती हुई किनारे पर पानी जमा होने की व्यवस्था और टंकी से गरम पानी के निकास की तरतीब। यह लोगों का खुद का जुगाड़ है। 

इस देश का वैभव अप्रतिम है। बस हम इस वैभव से इतर न जाने कहाँ उलझे हुए हैं और यही है मूल प्रश्न। इन उलझे सवालों के साथ और ज़िंदगी को खूब जी लेने की कशिश के साथ मैं भागती फिर रही थी गाँव में। तभी मेरा पाँव फिसला और सर्रर्रर्र....गिरी तो कोई उठाने वाला भी नहीं था। खुद उठी और खुद की तलाशी ली। दाहिने हाथ की कलाई ने देह का सारा बोझ उठा लिया था सो मैडम दर्द से कराह उठीं। थोड़ी चिंता तो हुई मुझे कि अभी एक लंबा सफर करना है ऐसे में अगर हाथ ने हाथ खड़े कर दिये तो कैसे होगा। 

कमरे पर लौटी, हाथ धोया और छिली हुई जगह पर डेटोल लगाया। दर्द मूसलसल जारी थी। पैकिंग करते हुए मुस्कुराहट थी इर्द-गिर्द। कल शाम कहानी में विक्टर ऐसे ही फिसल गया था जिसे देख शैलवी देर तक हँसती रही थी और विक्टर नाराज हो गया था। और आज सुबह मैं फिसल गयी। अब मुस्कुराने की बारी विक्टर की थी। 
हाथ में दर्द तो था लेकिन वो मुड़ रहा था और इस बात का सुकून था कि शायद फ्रैक्चर तो नहीं है। कैब आ चुकी थी...चला चली की बेला थी...मिताली आई और मुस्कुराकर गले लगी। मैंने महसूस किया कि वो सिसक रही है। आर्यन बाबू खड़े हुए थे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी थी और फिक्र भी। रास्ते के लिए बेसन के चीले पैक करके देते वक़्त आर्यन मूव और पट्टी लेकर भी खड़ा था। मिताली ने मूव लगाया और कॉटन बैंडेज बांधी। 


कुछ ही दिनों में कैसे ये अनजान दुनिया अपनी हो चली थी। मैंने आँख भर सामने खड़े पेड़ों को देखा वो लहरा उठे। कैब सड़क पर दौड़ रही थी मन वहीं छूट रहा था....

मेरे पास वक़्त थोड़ा बचा हुआ था, मैंने संतोष को बोला, कसौली होते हुए चलें तो देर तो न होगी। उसने कुछ कहे बिना कसौली की सड़कों पर कैब मोड दी। कैब में उसने अपनी पसंद के गाने बजाए और मुझे सब अच्छे लग रहे थे। कभी-कभी खुद को दूसरों की पसंद के हवाले भी करना चाहिए। कसौली की सड़कों से फिर से गुजरना यूं लग रहा था मानो अपने ही एक ख़्वाब को फिर से छू लिया हो। 

संतोष ने एक जगह ब्रेक के लिए कैब रोकी और मैं उस कैफे की छत पर पड़ी खाट पर पसर गयी। करीब 40 मिनट बाद आँख खुली। ऐसी गहरी नींद...ऐसे राह चलते मिलेगी सोचा न था। कसौली होते हुए ही कालका स्टेशन समय से पहले ही पहुँच गयी थी। 

वेटिंग रूम में छुपी तमाम कहानियों की स्मृतियाँ कौंध गईं। वापसी की ट्रेन में बैठे हुए देह और मन को जैसे पंख लग गए थे...चलते वक़्त हिमाचल ने नींद साथ रख दी थी। 

देहरादून पहुँचकर ऊँघते हुए सुबह की चाय बनाते हुए कलाई का दर्द किसी तोहफे सा लगा...न कोई फ्रैक्चर नहीं था बस जरा सा दर्द था कुछ दिन साथ रहा और फिर चला गया जैसे भेजने आया हो मुझे मेरे शहर तक। 

Tuesday, May 7, 2024

उसके चेहरे में कई चेहरे थे...


'जिंदा रहना क्यों जरूरी होता है?' कॉफी पीते-पीते मिताली के होंठों से ये शब्द अनायास ही निकले हों जैसे। जिन्हें खुद सुनने पर वो झेंप गयी। शायद यह सोचकर कि भीतर चलने वाली बात बाहर कैसे आ गयी। जबकि सामने कोई अजनबी यानि मैं थी। उसकी झेंप समझ गयी थी इसलिए यूं जताया मानो कुछ सुना ही नहीं मैंने। उसकी आँखों में बादल डब-डब कर रहे थे। वो उठकर छत के किनारे पर टहलने लगी थी।

क्या हुआ होगा कि इस खूबसूरत प्रवास की पहली सुबह में ऐसे सुंदर लम्हों में इस लड़की की उदासी को ज़िंदगी को यूं कटघरे में खड़ा करना पड़ा होगा। अभी इस देश में लड़कियों का अकेले ट्रैवेल पर निकलना बहुत सहज तो नहीं है। 

मिताली की कहानी जानने की इच्छा हो रही थी लेकिन उसकी प्राइवेसी में किसी सवाल को कैसे भेज देती सो चुप रही। कोई पंछी डाल पर बैठा अपने पंख खुजा रहा था, जैसे वक़्त का पंछी हो, खुद में खुद को खँगालता। एक ठंडी आह निकली मन से लड़कियों का अकेले यात्राओं पर निकलना लड़कों के अकेले यात्राओं पर निकलने से काफी अलग होता है। 

इस बीच एक कहानी स्क्रीन के आसपास मंडराने लगी थी। विक्टर और शैलवी की कहानी। उस कहानी की गलियों में घूमना अच्छा लग रहा था। 

दिन रंग बदल रहा था। बदली और धूप का खेल जारी था। मिताली छत पर लगे झूले पर सो गयी थी। बड़ी प्यारी लग रही थी। जी चाहा उसका माथा सहला दूँ फिर देखा मौसम ने ये जिम्मा ले रखा है। वो दे रहा है थपकियाँ और सहला रहा है माथा। उसे सोता छोड़कर कमरे में आ गयी। 

शाम की वाक पर विक्टर और शैलवी साथ थे। उनमें किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। विक्टर रूठी हुई शैलवी को मनाने की बजाय खुद ही रूठकर बैठा था...ये लड़के भी कमबख्त। इन्हें बिगाड़ना तो आता है, संभालना जाने कब सीखेंगे। अरे, पास जाकर गले से लगा ले या माथा ही चूम ले...बस मान जाएगी वो। लेकिन दुनिया जहान की बातें कर लेंगे बस मना नहीं पाएंगे। शैलवी की बड़ी-बड़ी आँखें विक्टर की बाहों में समा जाने को किस कदर बेताब हैं ये सारे जमाने को दिख जाएगा सिवाय विक्टर के। मैं उनके रूठने मनाने के खेल को देखकर मुस्कुरा दी। 

ऐसी खूबसूरत शाम, ऐसे हसीन रास्ते और ऐसा सूनापन...सड़क के सीने से लगकर पसर जाने का जी किया। इन रास्तों पर घंटों बाद ही कभी कोई गुजरता है सो मैं सड़क पर पसर गयी। 


कुछ देर लेटी ही रही तभी कुछ खिलखिलाहटों का रेला सा आता सुनाई दिया। 4 महिलाएं पैदल गप्प लगाती, हँसती खिलखिलाती चली आ रही थीं। ये कितनी दूर से पैदल आ रही होंगी, कितनी दूर जाएंगी इसका कोई हिसाब नहीं...लेकिन वो सब खुश दिख रही थीं। मुझे सड़क पर पसरे देख वे ठिठक गईं, लेकिन मेरी मुस्कान ने उन्हें सहज किया। मैंने उठते हुए पूछ लिया आप लोग इसी गाँव से हैं? उन्होंने हाँ कहा। उनमें से दो शिक्षिकाएँ थीं। एक युवा लड़की थी जो बार-बार फोन में सिग्नल तलाश रही थी। 

तभी मुझे मिताली आती दिखाई दी...ऐसा लगा कोई अपना आता दिखाई दिया हो। वो भी उसी अपनेपन से मुस्कुरा दी। जाती हुई शाम को हम दोनों ने मुठ्ठियों में बंद कर लिया और एक नए रास्ते पर चल पड़े...मिताली का चेहरा अब थोड़ा रिलेक्स लग रहा था। इन पहाड़ों ने अपना काम कर दिया था। 

शाम मैं और मिताली देर तक साथ बैठे रहे। उसका दिल खुलने को व्याकुल था और मैं भी लंबी चुप्पी से उकता चुकी थी। मिताली की कहानी साझा करना उसके निज की चोरी करने जैसा होगा इसलिए वो बात तो नहीं कर सकती सिवाय इसके कि ज़िंदगी की सताई यह लड़की इन पहाड़ों पर राहत लेने आई है। ऐसा लगता है दुनिया भर की औरतों को ऐसी राहतों की जरूरत है, कुछ को इसका एहसास है, कुछ को नहीं है। लेकिन वो औरतें जो पहाड़ों पर ही रहती हैं उनका क्या। उन्हें भी तो कभी राहत की दरकार होती होगी। 


मिताली की ओर देखकर मैं सोचने लगी, इसका चेहरा तो मेरे जैसा ही है एकदम...इसके चेहरे में न जाने कितनी औरतों के चेहरे हैं जो अपने-अपने जीवन युद्ध में जूझ रही हैं। 

अगले दिन वापसी थी...और नींद दरवाजे पर खड़ी थी...मिताली ने जाते-जाते सिरहाने पानी रखा और नींद को दरवाजे से बुलाकर मेरे पास बैठा दिया। 

(जारी)

Saturday, May 4, 2024

अच्छा लगने की उम्र कम क्यों होती है....



बचपन में ड्राइंग बनाते थे। एक पहाड़, एक नदी, एक घर, घर के आगे पेड़ और पहाड़ के पीछे सूरज हुआ करता था। सूरज की किरणें साइकिल की तीली जैसी नुकीली होतीं और पहाड़ समोसे जैसे तिकोने। ड्राइंग की कॉपी में हमने जैसे भी सूरज, नदी, पहाड़ बनाए हों लेकिन उस ड्राइंग ने जीवन में पहाड़, सूरज, नदी, जंगल सब शामिल कर दिये थे। जैसे ड्राइंग का वो पन्ना ज़िंदगी का बढ़ा हुआ हाथ हो...जिसे थामकर आज इन विशाल पहाड़ों  के सम्मुख बाहें फैलाये खड़ी हूँ। ड्राइंग में बनाई वो टेढ़ी-मेढ़ी नदी कब आकर आँखों में बस गयी पता नहीं। पता तब चला जब वो जब-तब छलकने को व्याकुल होने लगी। ये नदी सुख में ज्यादा लहराती है। इस नदी का बहना जैसे टूटती साँसों को संभाल लेना।

गालों पर बहती इस नदी पर सूरज की किरणों का पड़ना कितना सुंदर होता होगा नहीं जानती थी। चायल के उस नगाली गाँव की मुट्ठी में जो सुबह छुपी थी उसके पास हुनर थे तमाम उधड़ी रातों को रफू करने के। ठंडी हवा और मध्धम धूप मिलकर बालों से खेल रहे थे। ऐसी बेफिक्र सुबहें कितनी कम आती हैं। कम क्यों आती हैं भला ये सवाल पूरी दुनिया के लिए है।

कुछ देर सूरज को ताकने के बाद नई पगडंडी पर कदम रखे। यह पगडंडी गाँव के भीतर उतर रही थी। सुबह का जीवन अंगड़ाई ले रहा था। मवेशियों की जुगाली, बच्चों का स्कूल के लिए तैयार होना, औरतों का जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाना...बरतन माँजती सुशीला जी के करीब बैठकर चुपचाप उनका गुनगुनाना सुनती रही। वो मुस्कुराकर मुझे देख रही थीं। मैंने हाथ के इशारे से उन्हें गाते रहने का इसरार किया जिसे उन्होंने मान लिया। गाना बर्तन साफ होने से पहले खत्म हुआ और उन्होंने मुझसे हँसकर कहा, 'आपको समझ तो न आया होगा'? मैंने कहा, 'हाँ, समझ तो नहीं आया लेकिन सुंदर था। आप इतनी खुश दिख रही थीं गाते हुए'। उन्होंने बताया कि इस गीत में हिमाचल की खूबसूरती के बारे में बताया गया है। मुझे अपने नरेंद्र सिंह नेगी जी याद आ गए और उनका गाना...'ठंडो रे ठंडो मेरे पहाड़ का पानी ठंडो हवा ठंडी...'.

पेट में भूख की कुलबुलाहट शुरू हुई तो घड़ी पर नज़र पड़ी। ओह दस बज गए। 4 घंटे हो गए यूं आवारगी करते हुए। वापस लौटी तो आर्यन ने पूछा नाश्ते में क्या खाएँगी? मैं अकेली ही रुकी थी यहाँ तो जो मैं बोलती थी वही बन जाता था। इस जो बोलती हूँ बन जाने में कद्दू भी शामिल है।

मैंने कहा, 'क्या बना सकते हो जल्दी से, तेज़ भूख लगी है।' उसने हँसते हुए कहा, 'जो आप कहें।
वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।
वो खुश हो गया।

जब वो छोले पूड़ी का नाश्ता बालकनी में टेबल पर रख रहा था तब उसने बताया एक और मैडम आई हैं कल रात। उन्होंने ही रात ही बोल दिया था छोले पूड़ी के लिए। वैसे आपको अच्छा लगेगा। मैंने मुस्कुराकर उसके गाल थपथपा दिये। सत्रह बरस का वो किशोर शरमा गया।

छोले सच में अच्छे बने थे हालांकि पूड़ी की साइज़ ने डरा दिया। लेकिन भूख और शायद लगातार चलते रहने के कारण मैं जिन दो पूरियों को देखकर घबरा रही थी आराम से डकार गयी। नाश्ते के बाद वहीं लुढ़क गयी...हाथ में थी 'धुंध से उठती धुन....'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो तो जागने का सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे हो।'

निर्मल को पढ़ना जैसे अपने ही खोये हुए मन को पा लेना। जब सफर के लिए घर से निकली थी तो लोर्का और निर्मल वर्मा साथ हो लिए थे। आज नगाली गाँव के इस कोने में देवदारों की छाया में गुनगुनी धूप में लेटे हुए न जाने कितनी बार पढ़ी हुई इन लाइनों को फिर से पढ़ना सुख दे रहा था। पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी। बालकनी में झुक आई शाखें लगातार पंखा झल रही थीं।
 
मौसम बदला, बदली घिरी और ठंडी हवा ने गुदगुदाया। भीतर जाकर रज़ाई में धंस जाना आह, कैसा तो सुख था। हालांकि नींद जा चुकी थी लेकिन यूं लेटे रहना अच्छा लग रहा था। ऐसा बेफिक्र समय कितना कीमती होता है। कबसे तो चाहती थी कि काश! बस चंद लम्हों को तमाम जिम्मेदारियों से, दुश्वारियों से आज़ाद हो सकूँ।
चाय पीने की इच्छा हुई लेकिन बनाने की नहीं हुई...

घड़ी में सिर्फ 12 बजे थे। एक पूरा दिन सामने था और मैं थी। चाय बनाई और बाहर छाई बदलियों को देख मुस्कुरा दी। स्वाति की आवाज़ में 'कहाँ से आये बदरा...' बजा लिया। फुर्सत तलाशती तो रहती हूँ लेकिन फुर्सत से बनती नहीं है मेरी। वर्कोहलिक का टैग बहुत पहले ही लग चुका है। कमरे से लेकर देह तक रेंगती फुर्सत में स्मृतियों का पानी घुलने लगा। लिखने का सुर तो जाने कबसे रूठा हुआ है लेकिन उस रोज कुछ लिखने का दिल चाहा। लैपटॉप लेकर छत पर चली गई। लिखने का दिल चाहना, लैपटॉप खोलने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि लिख ही पाऊँगी ये जानती हूँ क्योंकि यह खेल अब पुराना हो चला है। खाली स्क्रीन को ताकते रहना, वाक्यों को लिखना मिटाना और हारकर आसमान देखने लगना।

छत बहुत सुंदर थी। कुछ देर तक छत पर टहलती रही फिर लैपटॉप में कुछ तलाशने लगी। तभी किसी के आने की आहट हुई। एक साँवली सी दरमियाना कद की दुबली सी लड़की आई। आँखों से हमने एक-दूसरे को हैलो कहा और मैं लिखने का नाटक करने लगी। अब मैंने खुद पर लिख रही हूँ का लेवल चिपका लिया था और ये किसी ने देख लिया था इसलिए कुछ देर तो यह नाटक चलाना ही था। चेहरे पर बेमतलब के गंभीर भाव ओढ़े मैं शब्दों की जुगाली करने में लगी थी। जाने क्यों लग रहा था वो मुझे ही देख रही होगी। चोर नज़रों से मैंने उसे देखा वो तो मेरी तरफ पीठ करके किसी से फोन पर बात कर रही थी।

लिख रही हूँ के ढोंग से जरा राहत मिली। हंसी भी आई कि कितने आवरण बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने ही ऐसा व्यवहार करते हैं जिसकी हमें खुद से भी उम्मीद नहीं होती।

ज़ेहन में कितना कुछ चलता है लिखने बैठो तो एक शब्द पर टिकने का मन न करे...कैसी तो धुंध होती है ये। न लिख पाने की पीड़ा को सहना जबरन लिखने की कोशिश से बेहतर हमेशा ही पाया है। कोशिश करके कभी एक वाक्य न लिख पायी हूँ। हालांकि न लिख पाने की पीड़ा की किरचों की चुभन को खूब सहा है।

'आप कॉफी पिएंगी?' इस वाक्य ने मुझे बेकार के सोच-विचार के दलदल से बाहर खींच लिया। मुझे यह वाक्य बड़ा मीठा लगा इस वक़्त। कॉफी पीने की इच्छा न होने के बावजूद मैंने हाँ कह दिया। इस हाँ में उस लड़की से संवाद के द्वार जो खुलते नज़र आ रहे थे। आर्यन ने अच्छी कॉफी बनाई थी। कॉफी पीते हुए उस लड़की ने अपना नाम बताया, 'मेरा नाम मिताली है। कल रात ही आई हूँ'।

मैंने अपना नाम बताया और उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उस साँवले चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ नज़र आ रही थी...उन लकीरों में कई कहानियाँ छुपी थीं...

(जारी...)

Wednesday, May 1, 2024

विदाई का नेग बारिश...



सा...गा...म...ध...नी....स...
ध....नी...स...म...ग...म...ग...स
स...म..म...ग...म...ग ...स....

जाने कितने बरसों बाद राग मालकोश मेरे होंठों पर खुद-ब-खुद चला आया था...उस नन्ही बुदबुदाहट में अजब सा सुकून था। वो दिन याद आए जब सितार सीखा करती थी और पड़ोस में चल रही गायन की कक्षा के बाहर खड़े होकर एक सुर में गाती लड़कियों को देखा, सुना करती थी।  खुद भी गा सकती हूँ का भरोसा जाने कभी क्यों न आया लेकिन उस कक्षा के बाहर से सुने हुए को अकेले कमरे में गुनगुनाया कई बार। शायद तभी से वृंदावनी सारंग और मालकोश प्रिय राग हो गए। 

ये देवदार के जंगलों का जादू है या स्मृति के सन्दूक से निकल भागी कोई याद....कि अनायास आज मेरी देह पर मालकोश झर रहा था। 'नव कलियन पर गूंजत भँवरा....' इस लम्हे में घुटनों तक की आसमानी स्कर्ट, सफ़ेद शर्ट में दो चोटी वाली लड़की ज्यादा थी। उस लड़की की ओर हाथ बढ़ाया, उसने मुझे अजनबी नज़रों से देखा। मैंने उसे गले लगा लिया। कुदरत आलाप ले रही थी और मैं उस लड़की को सीने से लगाए हुलस रही थी। 


अजनबी चेहरों में कई बार बहुत सारा भरोसा, अपनापन छुपा होता है, ठीक वैसे ही जैसे अनजानी राहों में सुंदर दृश्यों की भरमार। जोखिम भी होते हैं लेकिन इन जोखिमों के होने की आशंका से तो पार पाना ही पड़ेगा। ऐसी ही एक अजनबी पगडंडी पर चलते हुए इस छोटी लड़की से मुलाक़ात हो गयी। हम दोनों देर तक एक पेड़ के नीचे बैठे रहे। कितनी लंबी यात्रा...वहाँ से यहाँ तक। उस लड़की को देखती...उसकी भोली आँखों में आत्मविश्वास का 'आ' भी नहीं दिख रहा था...न सपना कोई। देर तक उसका हाथ थाम जंगल में घूमती रही। मैं उसके लिए अनजानी थी, वो मेरे लिए नहीं। हम दोनों बिछुड़ी सखियाँ थीं, असल में हम दो थीं भी कहाँ... 

चायल पैलेस में यह मेरा आखिरी दिन था। चलते-चलते फिर एक और चक्कर लगाने निकल पड़ी इस प्यारी सी लड़की का हाथ थाम। सामान पैक था। कैब का इंतज़ार था। कमरे के बाहर इन अमृत वनों को जी भर के आँखों में अकोर लेना चाहती थी। हथेलियाँ फैलाईं और उस पर बूंदें आ बैठीं। ओह बारिश....मन थिरक उठा उस एक बूंद के स्पर्श से। मानो चायल पैलेस ने चलते-चलते हथेलियों पर विदाई का नेग रख दिया हो। नन्ही बूंदों को देवदार की पत्तियों पर झरते देखना चलते वक़्त लिपटकर रो लेने जैसा था। कैब आ गयी थी औरआगे की यात्रा शुरू हो चुकी थी।

मैं चायल से नहीं जा रही थी, चायल पैलेस से जा रही थी। चायल में ही अगला ठिकाना था यहाँ से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव में जिसका नाम था नगाली। 

नागली में तीन दिन रहना था। यह टूरिस्ट सीजन नहीं था इसलिए मुझे तो चायल भी शांत ही मिला और यह नगाली गाँव। यहाँ तो कई घंटे बाद कोई इंसान नज़र आता था। कोई बाइक, कोई कार शायद दिन में एक या दो बार गुजरते होंगे और कभी-कभार कोई पैदल जाता दिख जाता। 

जिस होम स्टे में रुकी थी वहाँ भी आवाज़ लगाने पर  सिर्फ केयर टेकर आर्यन नज़र आता वरना लगता है यह सारा संसार मेरा ही है, यहाँ सिर्फ मैं ही हूँ। बालकनी से जो खूबसूरत दृश्य दिखा उसके बाद लगा ये दिन सुंदर होने वाले हैं। सबसे पहले कमरे के सोफ़े को बालकनी में रखवाया और एक छोटी टेबल भी। बस फिर जम गया आसन मेरा और मेरी तनहाई का....

पहुँचते ही तेज़ भूख ने धावा बोला और इच्छा बुदबुदाई, 'दाल चावल'। इतना स्वादिष्ट दाल चावल आर्यन ने खिलाया कि मन खुश हो गया। थकन, सुकून और खाने की तृप्ति ने मिलकर नींद के समंदर में धकेल दिया। 


आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। सामने दिख रही वादियों में उतर जाने की ख़्वाहिश हिलोरें लेने लगी। सामने जितनी राहें थीं सब अनजानी थीं। किसी भी राह पर कदम रखा जा सकता था...सो रख दिया एक राह पर। रास्तों की खामोशी कानों में मिसरी घोल रही थी। 

जीवन साथ चल रहा था। मैंने उसे मुस्कुराकर देखा तो उसने पलकें झपका दीं। मैं मन ही मन हंस दी। यह जो जीवन है न इतना दुष्ट है कि क्या कहें। हमेशा हमारी बनाई हुई योजनाओं की धज्जियां उड़ाने की फिराक में रहता है। इसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलती। लेकिन इसके पास हमारे लिए कुछ और ही योजनाएँ होती हैं जिनका हमें पता नहीं होता। अब जीवन से लड़ती नहीं बस उसकी मुट्ठी खुलने का इंतज़ार करती हूँ कि देखूँ क्या है इसमें मेरे लिए। 



देवदार के घने जंगलों के बीच उस सर्पीली सी राह पर जीवन के साथ चलते-चलते वक़्त का कुछ पता ही नहीं चला। रात करीब सरक आई थी और चाँद भी अब हमारे साथ हो लिया था। घड़ी देखी तो कमबख्त वक़्त काफी दूर निकल चुका था। आज मुझे वक़्त की परवाह नहीं थी लेकिन बेखयाली में मैं कितनी दूर आ गयी हूँ अपने ठीहे से यह पता नहीं था सो लौटना जरूरी था। 

देर रात तक बालकनी में पड़े सोफ़े पर पसरे हुए सुनती रही जीवन राग...रात कब गयी पता नहीं, सुबह के आने की ख़बर परिंदों ने दी। 
(जारी)

Monday, April 29, 2024

ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...


बड़ी देर से स्क्रीन पर कुछ लिख रही हूँ, मिटा रही हूँ...आँखें झर झर झर रही हैं। सारा लिखा हुआ जिये हुए के आगे बौना लग रहा है। यह असल में यात्रा के केंद्र के बारे में है। नाभि केंद्र जहां से हमेशा ख़ुशबू फूटती रहती है। इस जिये हुए की ख़ुशबू जीवन भर संग रहेगी। दृश्यों को देखना और उनके भीतर खुद को देखना कैसा तो होता है...और फिर कुछ ही देर बाद खुद को न देख पाना और भी सुंदर। खुद से मुक्त होकर हम ही हो जाते हैं वह बौराया हुआ पाखी जो इस डाल से उस डाल लहराते हुए फुदक रहा है।

लिखने की यह बेचैनी इसलिए है कि मैं ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...देवदार के जंगलों की वो ख़ुशबू जो दुनिया भर के दर्द निवारकों से कहीं आगे की चीज़ है। उस ख़ुशबू की स्मृति इस लम्हे में मुस्कुराकर मुझे देख रही है। 'सब कुछ लिखा नहीं जा सकता, कुछ सिर्फ जिया जाता है,' उसने कहा। मैंने पलकें झपकायीं और उस सुबह की स्मृति की खिड़की खोल दी सुबह पूरी तरह से कमरे में बिखर गयी। स्मृति की सन्दूक बहुत बड़ी होती है इसमें पूरे पहाड़, नदियां, जंगल अपने पूरे वैभव के साथ समा जाते हैं।


सुबह उठी तो हरारत बाकी थी देह में। माँ ने फोन पर डपटा और कहा 'आज कहीं मत जाना, आराम करो'। मैंने मिमियाई सी आवाज़ में कहा 'ठीक है'। यूं भी मुझे जाना ही कहाँ था। और सुबह की एक सुंदर सैर तो मैं कर ही आई थी। सो रज़ाई में घुसकर चाय सुड़कना और सामने की खिड़की से देवदार के पेड़ों पर हवा और पंछियों के खेल देखना अच्छा विकल्प लगा।

लेकिन वो इश्क़ ही क्या जो तमाम सोचे-विचारे की तोड़-फोड़ न करे, तमाम योजनाओं की बैंड न बजा दे। देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े हिम्मत कर खिड़की के थोड़ा और करीब जा बैठी। बहुत सुंदर लग रहा था सब लेकिन इस देखने में हवा का स्पर्श और महक नहीं थी। लालच बढ़ा तो थोड़ा दरवाजा खोला...जैसे हवा भी इसी फिराक में हो कि कब मौका मिले और वो मुझे सराबोर कर दे। हवा का झोंका किसी नशे सा था...कुछ देर सुध-बुध खोये दरवाजे पर ही खड़ी रही। और कुछ ही देर बाद हथेली में पैरासीटामाल और पैरों में जूते देखे। 'तेरा प्यार पैरासीटामाल' वाली एक पुरानी बात याद आ गयी...किसी शरारती लम्हे की वो बात चेहरे पर खेलने लगी।

 

कल से अब तक इस जगह के लगभग के हर हिस्से तक मैं कई-कई बार जा चुकी थी। एक पगडंडी थी जो बची हुई थी। मेरे कमरे के सामने से दूर एक हरा बगीचा मुस्कुराता दिखता था। अकेले होने पर तनिक हिचक भी हुई कि कहीं अनजान रास्ते पर भटक न जाऊँ, तिस पर फोन में सिग्नल भी नहीं थे। देर रात तक पार्टी करने वाले बच्चे शायद सोये होंगे तो आसपास होने वाली थोड़ी सी हलचल भी बंद ही थी। ऐसी खामोशी कि पुकारूँ तो अपनी ही आवाज़ जरा अलसाकर ही लौटे अपने पास। संज्ञा ने ताकीद की थी जब निकलना तो एक छड़ी रखना हाथ में। सो एक छड़ी तलाशी और चल पड़ी उस पगडंडी पर। जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती, अच्छा लगता जाता।

एक जगह जाकर एक छोटा सा लकड़ी का गेट मिला जो न बंद था, न खुला। सोचा जाऊँ या न जाऊँ। फिर जाने का ही तय किया, कोई रोकेगा तो देख लेंगे यही तय किया मन में। लेकिन यह जो छोटा सा लकड़ी का गेट था असल में रोकने के लिए नहीं था यह बताने के लिए था कि अब आप एक दिव्य दुनिया में प्रवेश करने वाले हैं। उलझनें वुलझनें उतार फेंकिए। शानदार मंजर था। नीले और पीले फूलों की क्यारियां हाथ पकड़कर ले जाती हैं और वहाँ ले जाकर बैठा देती हैं, जहां होना असल में जहां में न होना है।

मंत्रमुग्ध उस मंज़र के आगे देर तक खड़ी रही। बैठना है, चलना है, आगे जाना है सब भूल गयी। आँखें झरना हो चुकी थीं। कुछ देर बाद होश आया तो मैं पहले वहाँ बनी बेंच पर बैठी फिर ज़मीन पर और फिर सचमुच वहीं लेट गयी। हरे कालीन पर नीले फूलों की ख़ुशबू के बीच। देवदार मानो पंखा झल रहे हों...और तभी सूरज के उगने की आहट हुई। सुबह से बादलों का खेल चल रहा था तो सूरज मियां आज तनिक देर से आए थे। सूरज की पहली किरन के साथ ही पूरा मंज़र अलौकिक हो गया। अंखुयाए हरे पर जब सूरज की पहली किरण झरती है तो कैसा दिप दिप कर उठता है संसार। हर उस सुनहरी रंगत में ज़िंदगी के हर गम को हर लेने वाली औषधि बन जाता है। मैं भागती फिरती थी यहाँ से वहाँ, नंगे पाँव। इस सुबह को अकोर लेने को व्याकुल, इसमें धंस जाने को बेताब। धूप ने माथा सहलाया और कहा, 'यह सुबह तुम्हारी ही है, यह सूरज तुम्हारा है। यह दृश्य, यह ख़ुशबू सब सिर्फ तुम्हारे हैं।' मैं फफक पड़ी। मैंने पाया कि सचमुच मेरे सिवा यहाँ कोई भी तो नहीं हैं। तितलियाँ हैं, भँवरे हैं और मैं हूँ।

 भीतर एक लंबी रुलाई धँसी हुई थी जिसे मैं लंबे समय से मुस्कुराहट बनाकर लोगों के बीच बाँट रही थी। लेकिन इस यात्रा में उस रुलाई को ठौर मिल रहा था। मैंने भीतर एक कंपन महसूस किया... किसी के आसपास न होने ने मुझे और आज़ाद किया। उस सुबह मैं उस सूरज के आगे फूट-फूटकर रोयी। जाने कितने बरसों की रुलाई थी वो। रोने की आवाज़ वादियों में घुल रही थी। कितनी देर तक रोई याद नहीं कि रोते-रोते वहीं सो गयी।

कोई होता तो पूछता कि क्या हुआ और शायद मैं झेंप जाती, असल में क्या हुआ जैसा कुछ नहीं होता। रोजमर्रा का जीवन जीते हुए हमारे भीतर न जाने कितना स्याह एकत्र होता रहता है क्योंकि दुनिया को मुस्कुराहटें चाहिए वो उदास होने को सामान्य होना नहीं मानती इसलिए हम खुश मुखौटों में खुद को कैद करते जाते हैं।

खैर, एक अच्छी मीठी नींद सो चुकने के बाद मेरी आँख खुली तो दस बज चुके थे। तीन घंटे हो चुके थे, पता ही नहीं चला। धूप की चादर पूरी देह को ढंके हुए थी। पैरासीटामाल भी अपना असर कर ही चुकी थी। मैं सोकर उठी तो लगा कोई और मैं हूँ। बहुत खुश और बहुत हल्कापन लिए। इस पल में मैंने माँ, बेटू, संज्ञा, देवयानी, श्रुति, पल्लवी, ज्योति और माया आंटी को याद किया, जरूर उन्हें हिचकी आई होगी।

मेरा उठकर जाने का मन ही नहीं कर रहा था। लेकिन कोई था नहीं कहने वाला कि जल्दी करो, वरना ब्रेकफ़ास्ट खतम हो जाएगा। इसलिए यह खुद ही कहना था खुद से। जाने से पहले एक बार फिर हर पेड़ के गले लगी, पत्तियों को छुआ और नंगे पाँव घास पर एक चक्कर लगाया और बेमन से लौटने लगी... 



नाश्ता करने वालों में सबसे देर से पहुंची थी जाहिर है उस रॉयल रेस्तरां में मैं अकेली थी। बीती रात जिस बार टेंडर ने पीनाकोलाडा पीने के लिए मुझे कंविन्स किया था और जिससे बाद में ढेर सारी गप्पें मारी थीं वही सुबह की चाय पर नमूदार हुआ। मेरे ब्रेकफ़ास्ट की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं साहब की थी। जिस अंदाज़ से मुस्कुराकर उसने कहा, 'गुड मॉर्निंग' सुबह सच में और भी ज्यादा सुंदर हो गयी। मैंने उसका नाम रात ही पूछा था। 'आड्रिक' उसने बताया था जिसका अर्थ होता है पहाड़ों के बीच उगता सूरज। सुंदर नाम है मैंने कहा था और वो मुस्कुरा दिया था। इस सुबह की आड्रिक की मुस्कान में बीती रात की सैर की संगत भी थी।

बीती रात जब आड्रिक से मुलाक़ात हुई थी...और जिसका किस्सा मैंने छुपा लिया था। उसने बताया था, 'मुझे पहाड़ों से बहुत प्यार है।' कहकर वो रुक गया। यह वाक्य कि मुझे किसी से प्यार है इतना सघन है कि इसे सुनने के बाद वक़्त ही ठहर जाय। 

कुछ देर बाद उसने फिर कहा, ' शायद मेरे पैरेंट्स को भी पहाड़ों से प्यार रहा होगा तभी उन्होंने मेरा यह नाम रखा। आड्रिक के बात करने में एक हिचक थी जो उसे मासूम बना रही थी। उसे संकोच था शायद कि कस्टमर से कितना क्लोज होना है, कहीं बुरा न मान जाऊँ। उसकी उलझन मैं समझ गयी और मैंने उसे ज्यादा बात करने के लिए कुरेदा नहीं, उसकी चुप के साथ उसे छोड़ दिया। वो एक से एक मेरी पसंद के गाने बजाता रहा और मैं वो बेकार सी पीनाकोलाडा गटकती रही। कुछ देर बाद मैं यानि उसकी आखिरी कस्टमर बाहर निकली तो वो बार बंद करने लगा। लॉगहट्स का रास्ता सुंदर है, जंगलों से बीच से जाता है। बीच-बीच में लाइट्स भी लगी हैं फिर भी मैं तलाशने लगी कोई मिल जाता उधर जाने वाला तो एक आहट तो साथ चलती।


आड्रिक बार बंद करके निकल रहा था। मुझे अकेले जाता देख उसने पूछा, 'कोई परेशानी है? आपको कोई मदद चाहिये?' मैंने कहा मदद तो नहीं जरा सा साथ चाहिए। इस रास्ते पर अकेले जाने में वो भी इतनी रात में थोड़ी सी हिचक हो रही है। उसने कहा, 'मैम आपको होटल की गाड़ी से भी छोड़ा जा सकता है, किसी स्टाफ को आपके साथ भेज सकते हैं। या आप कहें तो मैं आपको छोड़ दूँ, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।'

मैंने मुस्कुराहट को छुपाते हुए कहा, लास्ट ऑप्शन ठीक रहेगा। उसने कहा, मुझे दो मिनट दीजिये मैं रजिस्टर पर साइन करके और बैग लेकर आता हूँ।

सच कहूँ, इस समय आड्रिक का होना बड़ा अच्छा लग रहा था। रास्ते भर हम बातें करते रहे। उसने बताया कि वो यह काम अपनी च्वायस से करता है। नए लोगों से मिलना, घूमना उसे पसंद है। उसने एमबीए किया, कुछ जगह नौकरी की लेकिन मन लगा नहीं। उसे दुनिया भर की शराब के बारे में भयंकर जानकारी थी। कई सारे कोर्स किए हुए हैं जनाब ने। अच्छा शराब की जानकारी के लिए भी कोर्स होते हैं ये मुझे नहीं पता था।

उसने हँसकर कहा, 'यह एक ज़िम्मेदारी वाला काम है, खुशी की तलाश में आने वालों को खुशी देना। बात सिर्फ ड्रिंक की नहीं होती उस माहौल की, व्यवहार की भी होती है जिससे कस्टमर स्ट्रेस फ्री रहे।'

'अच्छा, तुमने मेरी पसंद के गाने कैसे बजाए?' उन पगडंडियों पर चलते हुए मैंने उससे पूछ ही लिया। उसने कहा, 'कुछ राज बताने के नहीं होते मैम।' यह कहकर वो जरूर मुस्कुराया होगा जिसे अंधेरे ने ढँक लिया था।

'आप सोलो ट्रैवल पर हैं न?' उसने मुझसे पूछा। मैंने कहा 'हाँ'। 'ये बेस्ट होता है'। उसकी आवाज़ में चहक थी। 'आप क्या करती हैं'? उसने पूछा तो मुझे समझ ही नहीं आया, मुझे इस सवाल का जवाब कभी समझ नहीं आता। मैंने कहा 'नौकरी करती हूँ वैसे तो और ज़िंदगी जीने की कोशिश करती हूँ सुंदरतम तरह से'।

'आह, आप तो पोयट हैं'। उसकी आवाज़ पिघलने लगी थी। मैंने शरारत में कह दिया 'हाँ, हूँ शायद'।
'मुझे लगा था, आप पोयट ही हो सकती हैं।'
मैंने कहा, 'अच्छा है ये फ़्लर्ट। मुझे बुरा नहीं लगा'। और मैं ज़ोर से हंस दी। इतनी रात गए चायल के घने जंगलों में मेरी हंसी गूंज रही थी। मैं खुद अपनी ऐसी मुक्त हंसी को सुनकर हैरत में थी। हंसी रुक ही नहीं रही थी। 'आप हंस लीजिये फिर बताता हूँ,' उसने तसल्ली भरी आवाज़ में कहा।

'बताओ, चलो मैं रुक जाती हूँ।' यह कहकर फिर से हंसी का झरना फूट पड़ा...ये मुझे हुआ क्या है। मैं खुद हैरत में थी। मैंने महसूस किया कि रात के जंगल दिन के जंगलों से अलग होते हैं....चाँदनी में नहाये जंगलों में मेरी हंसी ज्यादा ही गूंज रही थी।

हम रुक गए थे, क्योंकि मेरी हंसी मुझे चलने नहीं दे रही थी। ज़िंदगी की किस शाख पर कब कौन सा लम्हा बैठा मिलेगा कोई नहीं जानता। आड्रिक पहाड़ी दीवार से टिककर मुझे देख रहा था और शायद सोच रहा होगा, कि ये रुके तो हम आगे बढ़ें।

खैर, हंसी का तूफान थमा और हम आगे बढ़े। उसने कहा, 'मैं फ़्लर्ट नहीं कर रहा था। हालांकि अब लग रहा है कि काश वो फ़्लर्ट ही होता...' कहकर वो मुस्कुराया। इस बार अंधेरे में भी उसकी मुस्कुराती आँखें छुप न सकीं या शायद उसने छुपाया नहीं। क्योंकि ऐसा कहते वक़्त पहली बार वो मेरे चेहरे की ओर देख रहा था। अब अचकचाने की बारी मेरी थी। 

ऐसे मौकों पर चुप्पी को आसपास नहीं ठहरने देना चाहिए यह बात वो जानता था इसलिए उसने तुरंत एक वाक्य ओढ़ लिया, 'ठंड तो नहीं लग रही आपको।' मुझे असल में लग रही थी ठंड फिर भी मैंने कहा 'नहीं, मैं ठीक हूँ'। उसने छूटी हुई बात का सिरा थामा और बोला, ' मुझे पोयट्री करने वाले लोग पहचान में आ जाते हैं। मेरी माँ भी पोयट थीं।' एक ठंडी हवा के झोंके ने उस वाक्य के'थीं' की तपिश को सहला दिया। 
क्या हुआ था? मैंने ठहरी हुई आवाज़ में पूछा।
'कोविड...' कहकर वो चुप हो गया। उसकी चुप की उदासी मुझे छू रही थी। मैंने उसकी हथेलियों को थामा। कहा कुछ नहीं।

उसने बात का सिरा बदला और आवाज़ में चहक लाते हुए बोला, 'आप कैसी पोयट्री लिखती हैं?'
मैंने कहा, ' आड्रिक, अभी तुम ऑन ड्यूटी नहीं हो कि खुश रखना तुम्हारा काम हो। ईज़ी रहो।

कुछ देर चुप्पी हमारे साथ चली हवा की आवाज़ और तेज़ और साफ सुनाई दे रही थी। मेरा ठिकाना आने ही वाला था। मुझे वहाँ छोड़कर जाते वक़्त गुड नाइट से पहले आड्रिक ने कहा, 'आप हँसती रहा करिए, अच्छी लगती हैं।'

मैंने उसकी मुस्कुराहट को आँखों में भर लिया और सोचा रिवर्स बैक वाला कॉम्प्लीमेंट नहीं करूंगी। रात नींद देर से आई थी... 

नाश्ते के टेबल पर मैंने उससे कहा, 'तुम्हारे नाम का उपयोग अपनी कहानी में करूंगी।' तुम रोक नहीं सकते। 'श्योर मैम' कहकर वो फिर एक बार नाश्ते के साथ मुस्कुराहट रखकर चला गया। नाश्ते के वक़्त मुस्कुराहटों का यह खेल चलता रहा। जिसका नतीजा यह हुआ कि मुझे ज्यादा खाना पड़ा और दो बार चाय पीनी पड़ी। खुद की ही शरारतों पर खुद ही हँसते हुए वहाँ से निकली।

कुछ देर धूप में बैठने के बाद एक और ट्रैक की तरफ पैर बढ़ गए, बढ़ते गए...अनजान रास्तों की पुकार में अजीब सा आकर्षण होता है, आप रुक नहीं सकते...

(जारी...)

Saturday, April 27, 2024

तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिये?


'तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिए...?' चायल ने मेरी हथेलियों को थामते हुए पूछा। धूप बिखरी हुई थी उस वक़्त और चिड़ियों का शोर संगीत सा कानों में बज रहा था। हाथों में चाय का प्याला था और सामने देवदार चायल के राजा के किस्से अपनी हथेलियों में छुपाए खड़े थे।

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए...' सवाल पर मैं मुस्कुरा दी। कोई और पल होता या कोई और मौका तो शायद  अचकचा जाती, भ्रमित हो जाती, थोड़ी उदास भी लेकिन अभी इस लम्हे में यह सवाल ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे की गेंद मेरी गोद में आ गिरी हो और मैंने उस गेंद को वापस करने के बहाने से बच्चे के गाल छू लिए हों। मियां चायल की हथेलियों में मुस्कुराकर अपना जवाब रख दिया...'मुझे जिंदगी से चाहिए था यह लम्हा' कहते हुए मेरी पलकें भीगी हुई थीं। तेज़ हवा का झोंका कुछ इस कदर लिपटा मुझसे कि कसकर लपेटी हुई शॉल मनोकामिनी की खुशबू सी बिखरने लगी। देवदार के जंगलों की मुस्कुराहट चाँदनी के गुच्छों समेत सर पर बरस रही थी। उफ़्फ़...वो लम्हा...उसे दर्ज करते हुए भी इस लम्हे में सारे रोएँ खड़े हैं। 

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए' यह सवाल असल में स्वागत की तैयारी के लिए था। क्योंकि पूरे चायल प्रवास के दौरान ऐसे न जाने कितने लम्हे मिले जिनके बारे में शायद सोचा भी नहीं था। 'यह लम्हा' पूरे प्रवास में बरसता रहा...और हर बार मन यही कहता यह लम्हा...इसे जी लिया फिर ज़िंदगी से शिकायत कैसी।  


कोई राग सुनते हुए हम उस राग की खुशबू में हम डूबे होते हैं लेकिन कोई एक जगह ऐसी आती है जहां रोएँ खड़े हो जाते हैं, आँखें भर आती हैं और लगता है बस...बस यही। कभी-कभी ऐसा नहीं भी हो पाता। ऐसे में सुनने वाले और राग छेड़ने वाले दोनों का एक 'सम' पर होना जरूरी होता है। ठीक ऐसा ही होता है यात्राओं में। तमाम यात्राओं में अब तक यह एहसास सिर्फ तीन बार ही हुआ है जब पूरा वजूद खुद-ब-खुद समर्पण के लिए व्याकुल हो उठा था। यह जादू है, हम चाहें तब नहीं घटेगा इसकी तैयारी होती होगी शायद। नहीं जानती कुछ भी लेकिन उस जादू की खुशबू अब तक पूरे वजूद पर महसूस करती हूँ। 

नहीं जानती थी कि चायल कैसा होगा। चायल और कसौली को चुना था कि भीड़ नहीं चाहती थी, कहीं जाकर कुछ देखने की इच्छा नहीं थी बस कि खुद के करीब होने का जरा सा मन था। 

चायल पैलेस को कुछ दिन का ठिकाना बनाया था। चायल का यह महल महाराजा भूपिंदर सिंह ने क्यों बसाया इसके किस्से तो सबको पता ही होंगे लेकिन एक किस्सा उनके प्रेम से जुड़ा भी सुनने को मिला कि वो जिससे प्यार करते थे उसके लिए यह महल बनाया उन्होंने। सच हो या न हो लेकिन उनकी रंगीनियों के किस्सों के बीच यह प्यार वाली बात सुनना सुखकर तो लगा।  

चायल पैलेस में रहते हुए मैंने महसूस किया मेरी चाल थोड़ी बहक रही है। गर्दन में तनिक बल आ रहा है और आंखों में कोई सुरूर। थोड़ा राजसी महसूस होने लगा था मुझे भी...सोचकर अकेले ही देर तक हँसती रही। 
उस हरे मैदान में देवदार से बतियाते हुए मैं घंटों टहलती रहती। न जाने कितनी बार मेरी खुली हुई हंसी बिखरी उस शाही बागान में। ठंड उम्मीद से ज्यादा थी और सुकून भी। 


कभी-कभी सुकून के इन पलों में होते हुए थोड़ा गिल्टी सा भी महसूस होता है। कि जब दुनिया में इतने मसायल हों, जब बच्चे भूख से लड़ रहे हों, राजनीति कितने ही मासूमों का गला घोंट रही हो, बेवजह सताये जा रहे लोगों की आहों की आवाज़ भी दबा दी जा रही हो ऐसे में खुद के लिए सुकून तलाश करना...यह एक किस्म की लग्ज़री ही तो है। न जाने कितने चेहरे, कितनी आवाजें, कितनी सिसकियाँ, कितनी खामोश डबडबाई हुई आँखें जेहन में तैर गईं। पैर चलते रहे...मैंने चाँदनी से ढंके देवदारों से कहा, सुनो तुम सबके दर्द दूर कर दो न, अपनी ठंडी हवा के फाहे भेजो न उन माओं के दर्द तक जिन्होंने खो दिये हैं अपने बच्चे।' 
माँ का कहा साथ चलने लगा,'जाने किस मिट्टी की बनी है यह लड़की जरा सा जी लेती है तो मरने लगती है।'  

ओवरथिंकिंग का टोकरा उठाए मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ ही रही थी कि कानों में गानों की आवाज़ पड़ी। पास ही रुके युवाओं ने कैंप फायर किया हुआ था। अब तक गुड मॉर्निंग और मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान भर की दोस्ती हो चुकी थी उन सबसे। एक प्यारी सी लड़की झिझकते हुए मेरे पास आई, 'आप बुरा न मानें तो आप भी हमें ज्वाइन करिए न।' इसके पहले मैं कुछ सोचती वो मेरा हाथ पकड़कर ले गयी। ऊपर से ठंड झर रही थी नीचे जल रही थी आग। 'आप यहाँ आए किसलिए...आपने बुलाया इसलिए' गाने पर बच्चे थिरक रहे थे। दुनिया में इतना कुछ है प्यार करने को, सबको चाहिए प्यार फिर क्यों ये हँगामा बरपा है आखिर। जो समझ लेते हम तो दुनिया में कोई मसायल होते ही क्यों। 

कुछ देर कैंप फायर में आग के उस गोले के आस पास थिरकते हुए मैंने खुद को खुश पाया। ये आज़ाद और खुश लम्हा मैं दुनिया भर की उदास औरतों को तोहफे में देना चाहती हूँ। सबके गले लगना चाहती हूँ। इसके सिवा भला और मैं कर भी क्या सकती हूँ... 

वहाँ से उठी तो देर तक अपने कमरे के बाहर पड़े झूले पर बैठी रही...सर्द हवा मेरा माथा सहला रही थी। 
बिना नींद की दवा के नींद आ गयी लेकिन बीच रात देह पर हरारत महसूस हुई। देखा तो बुखार चढ़ चुका था, सर का दर्द बता रहा था मौसम मन में ही नहीं देह में भी उतर चुका है। बुखार की दवा खाते हुए मैं मुस्कुरा दी। प्रतिभा किसी के प्रेम में हो और उसे बुखार न चढ़े ऐसा कैसे हो सकता है।  

ये हरारत मियां चायल से हुए ताजे-ताजे इश्क़ की खुशबू है जो देह पर तारी है...

जारी...