सा...गा...म...ध...नी....स...
ध....नी...स...म...ग...म...ग...स
स...म..म...ग...म...ग ...स....
जाने कितने बरसों बाद राग मालकोश मेरे होंठों पर खुद-ब-खुद चला आया था...उस नन्ही बुदबुदाहट में अजब सा सुकून था। वो दिन याद आए जब सितार सीखा करती थी और पड़ोस में चल रही गायन की कक्षा के बाहर खड़े होकर एक सुर में गाती लड़कियों को देखा, सुना करती थी। खुद भी गा सकती हूँ का भरोसा जाने कभी क्यों न आया लेकिन उस कक्षा के बाहर से सुने हुए को अकेले कमरे में गुनगुनाया कई बार। शायद तभी से वृंदावनी सारंग और मालकोश प्रिय राग हो गए।
ये देवदार के जंगलों का जादू है या स्मृति के सन्दूक से निकल भागी कोई याद....कि अनायास आज मेरी देह पर मालकोश झर रहा था। 'नव कलियन पर गूंजत भँवरा....' इस लम्हे में घुटनों तक की आसमानी स्कर्ट, सफ़ेद शर्ट में दो चोटी वाली लड़की ज्यादा थी। उस लड़की की ओर हाथ बढ़ाया, उसने मुझे अजनबी नज़रों से देखा। मैंने उसे गले लगा लिया। कुदरत आलाप ले रही थी और मैं उस लड़की को सीने से लगाए हुलस रही थी।
अजनबी चेहरों में कई बार बहुत सारा भरोसा, अपनापन छुपा होता है, ठीक वैसे ही जैसे अनजानी राहों में सुंदर दृश्यों की भरमार। जोखिम भी होते हैं लेकिन इन जोखिमों के होने की आशंका से तो पार पाना ही पड़ेगा। ऐसी ही एक अजनबी पगडंडी पर चलते हुए इस छोटी लड़की से मुलाक़ात हो गयी। हम दोनों देर तक एक पेड़ के नीचे बैठे रहे। कितनी लंबी यात्रा...वहाँ से यहाँ तक। उस लड़की को देखती...उसकी भोली आँखों में आत्मविश्वास का 'आ' भी नहीं दिख रहा था...न सपना कोई। देर तक उसका हाथ थाम जंगल में घूमती रही। मैं उसके लिए अनजानी थी, वो मेरे लिए नहीं। हम दोनों बिछुड़ी सखियाँ थीं, असल में हम दो थीं भी कहाँ...
चायल पैलेस में यह मेरा आखिरी दिन था। चलते-चलते फिर एक और चक्कर लगाने निकल पड़ी इस प्यारी सी लड़की का हाथ थाम। सामान पैक था। कैब का इंतज़ार था। कमरे के बाहर इन अमृत वनों को जी भर के आँखों में अकोर लेना चाहती थी। हथेलियाँ फैलाईं और उस पर बूंदें आ बैठीं। ओह बारिश....मन थिरक उठा उस एक बूंद के स्पर्श से। मानो चायल पैलेस ने चलते-चलते हथेलियों पर विदाई का नेग रख दिया हो। नन्ही बूंदों को देवदार की पत्तियों पर झरते देखना चलते वक़्त लिपटकर रो लेने जैसा था। कैब आ गयी थी औरआगे की यात्रा शुरू हो चुकी थी।
मैं चायल से नहीं जा रही थी, चायल पैलेस से जा रही थी। चायल में ही अगला ठिकाना था यहाँ से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव में जिसका नाम था नगाली।
नागली में तीन दिन रहना था। यह टूरिस्ट सीजन नहीं था इसलिए मुझे तो चायल भी शांत ही मिला और यह नगाली गाँव। यहाँ तो कई घंटे बाद कोई इंसान नज़र आता था। कोई बाइक, कोई कार शायद दिन में एक या दो बार गुजरते होंगे और कभी-कभार कोई पैदल जाता दिख जाता।
जिस होम स्टे में रुकी थी वहाँ भी आवाज़ लगाने पर सिर्फ केयर टेकर आर्यन नज़र आता वरना लगता है यह सारा संसार मेरा ही है, यहाँ सिर्फ मैं ही हूँ। बालकनी से जो खूबसूरत दृश्य दिखा उसके बाद लगा ये दिन सुंदर होने वाले हैं। सबसे पहले कमरे के सोफ़े को बालकनी में रखवाया और एक छोटी टेबल भी। बस फिर जम गया आसन मेरा और मेरी तनहाई का....
पहुँचते ही तेज़ भूख ने धावा बोला और इच्छा बुदबुदाई, 'दाल चावल'। इतना स्वादिष्ट दाल चावल आर्यन ने खिलाया कि मन खुश हो गया। थकन, सुकून और खाने की तृप्ति ने मिलकर नींद के समंदर में धकेल दिया।
आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। सामने दिख रही वादियों में उतर जाने की ख़्वाहिश हिलोरें लेने लगी। सामने जितनी राहें थीं सब अनजानी थीं। किसी भी राह पर कदम रखा जा सकता था...सो रख दिया एक राह पर। रास्तों की खामोशी कानों में मिसरी घोल रही थी।
जीवन साथ चल रहा था। मैंने उसे मुस्कुराकर देखा तो उसने पलकें झपका दीं। मैं मन ही मन हंस दी। यह जो जीवन है न इतना दुष्ट है कि क्या कहें। हमेशा हमारी बनाई हुई योजनाओं की धज्जियां उड़ाने की फिराक में रहता है। इसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलती। लेकिन इसके पास हमारे लिए कुछ और ही योजनाएँ होती हैं जिनका हमें पता नहीं होता। अब जीवन से लड़ती नहीं बस उसकी मुट्ठी खुलने का इंतज़ार करती हूँ कि देखूँ क्या है इसमें मेरे लिए।
देवदार के घने जंगलों के बीच उस सर्पीली सी राह पर जीवन के साथ चलते-चलते वक़्त का कुछ पता ही नहीं चला। रात करीब सरक आई थी और चाँद भी अब हमारे साथ हो लिया था। घड़ी देखी तो कमबख्त वक़्त काफी दूर निकल चुका था। आज मुझे वक़्त की परवाह नहीं थी लेकिन बेखयाली में मैं कितनी दूर आ गयी हूँ अपने ठीहे से यह पता नहीं था सो लौटना जरूरी था।
देर रात तक बालकनी में पड़े सोफ़े पर पसरे हुए सुनती रही जीवन राग...रात कब गयी पता नहीं, सुबह के आने की ख़बर परिंदों ने दी।
(जारी)
3 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 2 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....
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बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर रचना
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