Friday, August 23, 2024

जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं- प्रियदर्शन

हम क्या देखते हैं, कितना देख पाते हैं। क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं। अपने जानने को लेकर, अपने समझे को लेकर कितने आग्रही हैं, कितने जिद्दी हैं इस बारे में सोचने की न कोई जरूरत किसी को महसूस होती है और न ही ऐसी कोई प्रक्रियायें हैं। हम बिना सोचे समझे, करते जाने वाले समाज का हिस्सा हैं। नतीजा यह कि जब समझना, सोचना तर्क करना  सीखा, शुरू किया भी तो उस पर पिछली सलवटें तारी रहीं। जिद की लौ बढ़ती रही और हिंसक होने में बदलने लगी। 

पहले किसी से असहमति होती थी तो गुस्सा आता था, अब नहीं आता। अब उदासी होती है कि सफर लंबा है अभी...यूं भी समझ के बीज जरा आहिस्ता ही उगते हैं यह सोचते हुए हालात की उथल-पुथल और उससे जुड़ी चिंताओं पर खिंचती भाषाई तलवारें (कई बार सचमुच की तलवारें भी) सोचने पर मजबूर करती हैं, पढ़ना क्या सच में पढ़ना है। लिखना क्योंकर आखिर? 

मेरे लिए हर वह वाक्य सार्थक वाक्य है जो बावजूद तमाम मतभेदों के अपनी अभिव्यक्ति की गरिमा को सहेजे हो और जो हाशियाकृत लोगों के साथ बैठकर चाय पीने की ख़्वाहिश रखता हो। वाट्स्प विश्वविद्यालयों के लंबे चौड़े सेलेबस और रीलों के संजाल में घिरे लोगों से थोड़ा सा लॉजिकल होने की उम्मीद भी इन दिनों बड़ी उम्मीद हो चली है।  

ढेर किताबें लिखने, पढ़ने वालों की भाषा में भी जब आक्रामकता देखती हूँ तो सोच में पड़ जाती हूँ। हमेशा से लगता रहा है कि सहमति की भाषा भले ही थोड़ी रूखी हो लेकिन असहमति की भाषा का ज्यादा तरल, ज्यादा मृदु और ज्यादा स्नेहिल होना जरूरी है। क्योंकि असहमति का अर्थ दुश्मन होना तो है नहीं। प्रियदर्शन जी को टुकड़ों में पढ़ती रही हूँ। दो कहानी संग्रह पढ़े हैं, एक उपन्यास और काफी कवितायें पढ़ी हैं। उन्हें सुना भी खूब है। वो जिस भी विषय पर बात करते हैं उसके कई पक्षों को समझकर बात करते हैं। उनकी गहरी समझ राजनैतिक, समाजशास्त्रीय विवेचना का जरूरी असबाब है लेकिन इन सबसे इतर मुझे उनकी भाषा और तेवर का सामंजस्य अच्छा लगता है। कोई उन्हें ट्रोल करे तो भी वो नाराज नहीं होते, हंस देते हैं। यही बात उन्हें अलग करती है। इन दिनों उनकी किताब 'जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं' पढ़ रही हूँ। 7 आलेख पढ़ चुकी हूँ। हैरत में हूँ कि घोर राजनैतिक मुद्दों पर, जिन पर लोग भाषाई युद्ध पर उतारू रहते हैं वो कितनी सहजता से, सरलता से बात करते हैं बात जिसमें पड़ताल के सिरे खुलते हैं। 

'हिंदुओं को कौन बदनाम कर रहा है', 'धर्म के नाम पर धंधा और नफरत की सियासत', 'एक पुराने मुल्क में ये नए औरंगजेब' जैसे लेख पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कितनी जरूरी किताब है ये। छोटे-छोटे लेख हैं। न कोई पक्ष है इसमें न विपक्ष सिर्फ आईना है। 

कुछ अंश- 

'दरअसल दुनिया भर के धर्मों की समस्या रही है कि उन्हें धंधे में बदल दिया जाता है। आज न कोई कबीर को याद करता है, न कबीर के राम को। लोगों को तो वाल्मीकि और तुलसी के राम भी स्मरण नहीं हैं उन्हें बस बीजेपी के राम याद हैं।'

हम इतिहास से कौन सा हिस्सा उठाते हैं और किसे आइसोलेशन में याद रखते हैं यह समझना जरूरी है। 'स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं।'

'कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में गालिब, मीर, ज़ौक़, दाग के नाम पर रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते।'

'वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर कुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं? किन्हे  अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहाँ खोजो? क्या वाकई ईश्वर की तलाश है?'  

सवाल बहुत सारे हैं और इन सवालों पर प्रियदर्शन का बात करने का ढब जितना सहज है वही इस किताब की ताक़त है। असल में तमाम मुद्दों को बहसखोर लोग जिस गली में घसीटकर ले जाते हैं बात कहीं पहुँचती नहीं, अतिरेक से जन्मा माहौल उन्माद, हिंसा, द्वेष जरूर बढ़ता है। बहस उद्देश्यविहीन होकर भटकती फिरती है। फिलहाल इस किताब की सोहबत थोड़ी उम्मीद जगा रही है...मुद्दे हैं लेकिन कोई अतिरेक नहीं। आप इसमें लिखे से असहमत तो हो सकते हैं लेकिन आक्रोशित नहीं होंगे, सोचने के लिए कुछ नया ढूँढेंगे....

किताब अभी पढ़ रही हूँ, बाकी बात आगे होगी। किताब संभावना प्रकाशन से आई है, चाहें तो मंगायें और पढ़ें... 

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुन्दर