Tuesday, May 7, 2024

उसके चेहरे में कई चेहरे थे...


'जिंदा रहना क्यों जरूरी होता है?' कॉफी पीते-पीते मिताली के होंठों से ये शब्द अनायास ही निकले हों जैसे। जिन्हें खुद सुनने पर वो झेंप गयी। शायद यह सोचकर कि भीतर चलने वाली बात बाहर कैसे आ गयी। जबकि सामने कोई अजनबी यानि मैं थी। उसकी झेंप समझ गयी थी इसलिए यूं जताया मानो कुछ सुना ही नहीं मैंने। उसकी आँखों में बादल डब-डब कर रहे थे। वो उठकर छत के किनारे पर टहलने लगी थी।

क्या हुआ होगा कि इस खूबसूरत प्रवास की पहली सुबह में ऐसे सुंदर लम्हों में इस लड़की की उदासी को ज़िंदगी को यूं कटघरे में खड़ा करना पड़ा होगा। अभी इस देश में लड़कियों का अकेले ट्रैवेल पर निकलना बहुत सहज तो नहीं है। 

मिताली की कहानी जानने की इच्छा हो रही थी लेकिन उसकी प्राइवेसी में किसी सवाल को कैसे भेज देती सो चुप रही। कोई पंछी डाल पर बैठा अपने पंख खुजा रहा था, जैसे वक़्त का पंछी हो, खुद में खुद को खँगालता। एक ठंडी आह निकली मन से लड़कियों का अकेले यात्राओं पर निकलना लड़कों के अकेले यात्राओं पर निकलने से काफी अलग होता है। 

इस बीच एक कहानी स्क्रीन के आसपास मंडराने लगी थी। विक्टर और शैलवी की कहानी। उस कहानी की गलियों में घूमना अच्छा लग रहा था। 

दिन रंग बदल रहा था। बदली और धूप का खेल जारी था। मिताली छत पर लगे झूले पर सो गयी थी। बड़ी प्यारी लग रही थी। जी चाहा उसका माथा सहला दूँ फिर देखा मौसम ने ये जिम्मा ले रखा है। वो दे रहा है थपकियाँ और सहला रहा है माथा। उसे सोता छोड़कर कमरे में आ गयी। 

शाम की वाक पर विक्टर और शैलवी साथ थे। उनमें किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। विक्टर रूठी हुई शैलवी को मनाने की बजाय खुद ही रूठकर बैठा था...ये लड़के भी कमबख्त। इन्हें बिगाड़ना तो आता है, संभालना जाने कब सीखेंगे। अरे, पास जाकर गले से लगा ले या माथा ही चूम ले...बस मान जाएगी वो। लेकिन दुनिया जहान की बातें कर लेंगे बस मना नहीं पाएंगे। शैलवी की बड़ी-बड़ी आँखें विक्टर की बाहों में समा जाने को किस कदर बेताब हैं ये सारे जमाने को दिख जाएगा सिवाय विक्टर के। मैं उनके रूठने मनाने के खेल को देखकर मुस्कुरा दी। 

ऐसी खूबसूरत शाम, ऐसे हसीन रास्ते और ऐसा सूनापन...सड़क के सीने से लगकर पसर जाने का जी किया। इन रास्तों पर घंटों बाद ही कभी कोई गुजरता है सो मैं सड़क पर पसर गयी। 


कुछ देर लेटी ही रही तभी कुछ खिलखिलाहटों का रेला सा आता सुनाई दिया। 4 महिलाएं पैदल गप्प लगाती, हँसती खिलखिलाती चली आ रही थीं। ये कितनी दूर से पैदल आ रही होंगी, कितनी दूर जाएंगी इसका कोई हिसाब नहीं...लेकिन वो सब खुश दिख रही थीं। मुझे सड़क पर पसरे देख वे ठिठक गईं, लेकिन मेरी मुस्कान ने उन्हें सहज किया। मैंने उठते हुए पूछ लिया आप लोग इसी गाँव से हैं? उन्होंने हाँ कहा। उनमें से दो शिक्षिकाएँ थीं। एक युवा लड़की थी जो बार-बार फोन में सिग्नल तलाश रही थी। 

तभी मुझे मिताली आती दिखाई दी...ऐसा लगा कोई अपना आता दिखाई दिया हो। वो भी उसी अपनेपन से मुस्कुरा दी। जाती हुई शाम को हम दोनों ने मुठ्ठियों में बंद कर लिया और एक नए रास्ते पर चल पड़े...मिताली का चेहरा अब थोड़ा रिलेक्स लग रहा था। इन पहाड़ों ने अपना काम कर दिया था। 

शाम मैं और मिताली देर तक साथ बैठे रहे। उसका दिल खुलने को व्याकुल था और मैं भी लंबी चुप्पी से उकता चुकी थी। मिताली की कहानी साझा करना उसके निज की चोरी करने जैसा होगा इसलिए वो बात तो नहीं कर सकती सिवाय इसके कि ज़िंदगी की सताई यह लड़की इन पहाड़ों पर राहत लेने आई है। ऐसा लगता है दुनिया भर की औरतों को ऐसी राहतों की जरूरत है, कुछ को इसका एहसास है, कुछ को नहीं है। लेकिन वो औरतें जो पहाड़ों पर ही रहती हैं उनका क्या। उन्हें भी तो कभी राहत की दरकार होती होगी। 


मिताली की ओर देखकर मैं सोचने लगी, इसका चेहरा तो मेरे जैसा ही है एकदम...इसके चेहरे में न जाने कितनी औरतों के चेहरे हैं जो अपने-अपने जीवन युद्ध में जूझ रही हैं। 

अगले दिन वापसी थी...और नींद दरवाजे पर खड़ी थी...मिताली ने जाते-जाते सिरहाने पानी रखा और नींद को दरवाजे से बुलाकर मेरे पास बैठा दिया। 

(जारी)

2 comments:

Anita said...

राहतों को पाने के लिए पहाड़ों पर जाने की सहूलियत ही भला कितनों को मिल पाती है, संयुक्त परिवार में रहने वाली महिलाओं को चंद घड़ियाँ अपने लिए निकालने की मोहलत नहीं मिलती, आपका लेखन दिल को छू जाता है, प्रेम से भीगे हुए लम्हों में लिखा जाता है शायद इसीलिए

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 9 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

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