Monday, July 1, 2024

शहर का मौसम जैसे रुबाई कोई...



देर रात बैंगलौर की सड़कों से गुजरते हुए स्मृतियों के तमाम पन्ने उलटने-पलटने लगे। मानो कल की ही तो बात है जब मैंने डरते-सहमते इस शहर में कदम रखा था। वह मेरी पहली यात्रा थी बिना किसी बड़े का हाथ थामे खुद निकलने की। छुटकी सी बिटिया का हाथ थामे तमाम असहमतियों और नाराजगियों को निकलते वक़्त के किसी नेग की तरह आँचल में बांधे बस निकल पड़ी थी। थोड़े से पैसे जमा किए थे इसलिए पैसों के लिए किसी पर निर्भर नहीं थी वरना किसी तरह यह संभव नहीं होता। थोड़ी सी हिम्मत भी बचाकर रखी थी ऐसे मौकों के लिए। हिम्मत और आर्थिक निर्भरता ने कंधे थपथपाये और हम माँ बेटी निकल पड़े थे।


 हम दोस्त ज्योति के घर आए थे। न शादी था, न ब्याह न मुंडन न जनेऊ और न ही कोई रिश्तेदार थी ज्योति। कोई कैसे समझे इस जरूरत को, इस यात्रा की जरूरत को। ऊंहू यात्रा नहीं, दहलीज़ के बाहर पहला कदम। अजीब सा लग रहा है न सुनने में। बिलकुल। मुझे कहने में भी लग रहा है। जीने में भी लग रहा था। कि मैं नौकरी में थी, लिबरल फैमिली की परवरिश में पली बढ़ी फिर भी यूं कभी न सोचा निकलने के बारे में, न घरवालों को इसकी आदत पड़ी।

कभी-कभी सोचती हूँ कितना आसान है हर बात का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना। हालात, आस-पास के लोग, सामाजिक बेड़ियाँ, अलां, फलां। ये सब होते हैं मुश्किल का सबब निसंदेह लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है हमारी खुद की इच्छा, हिम्मत। हम खुद कहाँ आँख भर सपने देखते हैं। हम कहाँ सांस लेने से आगे का जीवन जीना चाहते हैं। जैसा कहा गया वैसा जीने लगना, जैसा कहा गया वैसे ही सोचने लगना, जो तय किया गया उस रास्ते पर चलना कितनी तो सुविधा है इस सबमें।

मैंने खुद कहाँ आँख भर सपने देखे कभी। सपने जिसमें मैं थी।

कल रात जब बैंगलोर की सड़कों पर अकेले थी, कोई डर नहीं था। अब मुझे किसी शहर, किसी देश में किसी भी वक़्त डर नहीं लगता। झिझक नहीं होती। इस निडर प्रतिभा में उस लम्हे का जब अकेले निकलने का निर्णय लिया था, उस पहले सफर का बड़ा योगदान है।

 

शहर का मौसम सच में सुंदर है। हवा गालों को छू रही थी, मानो दुलार रही हो।

एक रोज किसी ने कहा था, ‘तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हैं’ और मैंने यूं ही लापरवाह सी अल्हड़ हंसी में डूबे हुए कह दिया था, ‘सपनों से भरी हैं न, इसलिए’ कहने वाले को क्या समझ आया क्या नहीं, नहीं जानती लेकिन कहने के बाद मेरे भीतर एक छोटी सी रुलाई फूटी थी। कब देखे मैंने सपने, काश देखे होते। मैंने सपने क्यों नहीं देखे। कौन सा डर मुझे रोके रहा। सपनों के टूटने का डर या कुछ और। पता नहीं।

इसके बाद जब भी आईना देखा अपनी आँखों को सूना ही पाया।

एक रोज एक दोस्त ने पूछा था, ‘तुम क्या चाहती हो अपने जीवन से’ और मेरे पास कोई जवाब ही नहीं था। फिर कुछ देर सोचने के बाद मैंने कहा, ‘मैं खूब सारी बारिश में भीगना चाहती हूँ। नदी के किनारे की बारिश में, समंदर के किनारे की बारिश में, जंगल की बारिश में, सड़क पर भीगते हुए भागना चाहती हूँ....मैं बहुत भीगना चाहती हूँ।‘ ‘बस...बस...इतना भीगोगी तो बुखार आ जाएगा।‘उसने हँसकर कहा था।

मैंने अपनी मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए कहा,’तो पैरासीटामाल खा लूँगी...’ हम दोनों हंस दिये थे।

हाँ, सच में इतनी सी ही तो हैं मेरी ख़्वाहिशें...कि दुनिया में बेहिसाब मोहब्बत हो इतनी कि किसी को किसी से झगड़ने का वक़्त ही न मिले। और बेहिसाब बारिश हो कि धरती का कोई कोना सूखा न रहे, हाँ, बाढ़ भी न आए ख़्वाहिशों में समझ का यह पुच्छल्ला अपने आप आकर चिपक गया था।

जिस कमरे में ठहरी हूँ वो चौदहवीं मंजिल पर है। रात कमरे में जब दाखिल हुई तो जाने कब लिखकर भूल गयी ख़्वाहिश की एक पर्ची टेबल पर रखी मिली जिस पर लिखा था, ‘तुम्हारा एक नन्हा ख्वाब’। ये ख़्वाब मैंने देखा था याद नहीं। हाँ, शायद यूं ही कोई इच्छा उछाल दी थी हवा में कि ऐसे कमरे में होने का ख़्वाब जहां से शहर, आसमान, बादल सब एकदम करीब नज़र आयें। बस पर्दा हटाओ और बादलों को छू लो। ये क़ायनात भी न, सुन तो लेती है।

देर रात में अपने कमरे से, अपने बिस्तर से टिमटिमाते शहर को देखती रही। सुबह उठी तो आसमान एकदम उजला था। शहर शायद अभी काम पर निकलने की तैयारी में है। मैंने मुस्कुराकर आसमान की ओर हाथ बढ़ाया और उससे पूछा, ‘तुम देहरादून के आसमान से मिले हो कभी? बहुत सुंदर है वो भी?’ ये बैंगलोर का आसमान है, इसने कोई जवाब नहीं दिया शायद काम पर निकलने की जल्दी में होगा। न सही, मुझे क्या। मैं तो दो कप चाय पीकर आराम से वक़्त के करतब देख रही हूँ। और बीता हुआ कल स्मृतियों के झरोखे में बैठे हुए मुस्कुराते हुए मुझे देख रहा है।

सोचा था, नए शहर में उसकी याद जरा कम आएगी...पर देख रही हूँ सबसे पहला धावा याद ने ही बोला है और चाय पर मुझे अकेला नहीं छोड़ा है।

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