Tuesday, November 8, 2022
हिंसा तो उपेक्षा भी है
-प्रतिभा कटियार
‘अम्मू’ फिल्म देखकर खत्म की है. लेटी हूँ. ख़ामोशी पसरी हुई है. भीतर भी, बाहर भी. ‘अम्मू’ की कहानी नयी नहीं है लेकिन नयी न होने से क्या कहानी नहीं रहती, क्या उस कहानी की तासीर कम हो जाती है. ‘डार्लिंग्स’ देखी थी तब ऐसी ख़ामोशी महसूस नहीं हुई थी. इस ख़ामोशी को बुरा लगने से जोड़कर देखना ठीक नहीं है. क्योंकि दोनों ही फिल्मों के अंत में बुरा महसूस नहीं होता लेकिन कुछ महसूस होता है. यह कुछ महसूस होना फिल्म की ताकत है.
कुछ लोग कहेंगे कि ‘डोमेस्टिक वायलेंस. क्या यह अब भी होता है?’ इनमें महिलाएं भी होंगी. खासकर मध्य वर्ग की महिलाएं. कुछ कहेंगी ‘मेरे ‘ये’ तो कभी तेज़ आवाज़ में बात भी नहीं करते.’ कुछ और इतरा के कहेंगी ‘मेरे ये तो मुझे किसी काम को करने से नहीं मना करते.’ कुछ पुरुष कहेंगे ‘भई, हमने कोई रोक-टोक नहीं की किसी तरह की. जैसे चाहें जियें, जो चाहें करें.’ इन संवादों के भीतर न जाने कितनी परतें हैं जिन तक उनकी खुद की भी नजर नहीं जाती. लेकिन अम्मू देखने के बाद मेरे मन में कुछ और ही बातें चल रही हैं और मुझे ‘थप्पड़’ फिल्म की याद बेतरह आ रही है.
जहाँ खुली हिंसा है, मारपीट है वहां भी लड़ाई कितनी मुश्किल है, स्त्रियाँ बार-बार बिना मांगी गयी माफियों को माफ़ करके उदार होती रहती हैं. परिवार को बचाने की कोशिश करती रहती हैं. सोचती रहती हैं, गुस्सा आ गया होगा किसी बात पर वैसे तो बहुत प्यार करते हैं, अम्मू भी यही कहती है, ज्यादा दिन तो अच्छे ही गुजरते हैं थोड़े ही दिन मारपीट वाले होते हैं. उन पर काम का दबाव रहा होगा शायद. फिर हिंसा का सिलसिला बढ़ता जाता है और जीवन और फिल्म दोनों अपने रास्ते तलाशते हैं.
‘थप्पड़’ फिल्म इसलिए ज्यादा करीब की लगी थी कि ‘सिर्फ एक थप्पड़ ही तो है’ कहकर रिश्ते को बचाने के लिए उसे सह जाने के खिलाफ खड़ी यह फिल्म थोड़ा ज्यादा बड़ा आसमान खोलती थी. लेकिन मेरे मन में लगातार कुछ सवाल हैं. क्या है हिंसा. कब कोई व्यवहार, कोई बर्ताव हिंसक होता है, कब नहीं.
लगभग हर दूसरी स्त्री अलग-अलग तरह की व्यवहारगत हिंसा का सामना कर रही है. हर रोज. सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक लेकिन यह सब हिंसा के दायरे में आता ही नहीं.
अक्सर पति अपनी पत्नियों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. उन्हें याद ही नहीं रहता कि उनकी पत्नी कितनी सुंदर दिखती है. वो प्रशंसा करना तो भूल ही चुके होते हैं लेकिन मजाकिया लहजे में अपमानित करना उन्हें खूब आता है. ‘कैसी दिखने लगी हो, कितना खाती रहती हो? ठूंस लो, फ़ैल तो रही ही हो? सजने से क्या लगता है तुम सुंदर लगने लगोगी? क्या घर में पड़ी रहती हो? ऑफिस जाती हो तो क्या अनोखा काम करती रहती हो इतना क्या इतराती रहती हो.’ दोस्तों से कहना, ‘अरे बीवी की तो आदत है किच किच करने की, अब क्या करें.’
पत्नियाँ जानती हैं कि पति ने न जाने कितने नए एप पर कितने अलग नामों से अपने सुख के कोने तलाश रखे हैं, लेकिन वो इग्नोर करती रहती हैं. सामने मिले एविडेंस को मुस्कुरा कर उपेक्षित करती हैं. और अगर झगड़ा करती हैं तो उन्हें ही बेकार की शक्की औरत के रूप में साबित करके नयी कहानियां गढ़कर उन्हें ही अपराधी बना देना बिलकुल भी नया नहीं है.
स्त्रियाँ सहती हैं और खुद ही अपराधबोध में मरी जाती हैं.
सोचती हूँ क्या यह सब हिंसा नहीं है? उनके काम को एप्रिशिएट न करना, उनके गुणों के बारे में बात न करना, उपहास करना, ताना देना, या हर बात के जवाब में चुप लगा जाना, घर की कलह का दोष उनके सर मढ़कर दूसरे रिश्तों क खोज में निकल पड़ना क्या यह सब हिंसा नहीं.
हर दिन ऐसी हिंसा का सामना करने वाली स्त्रियाँ राहत की सांस लेते हुए जब इतराकर करवा चौथ का व्रत रखकर खुश होती हैं और यह कहती हैं कि ‘मेरे ये तो कभी हाथ नहीं उठाते’ तो उनकी मासूमियत पर न हंसी आती है, न रोना.
विवाह संस्था इस कदर दमघोंटू है कि अक्सर इसके भीतर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है. बहुत सारे रिश्ते वेंटिलेटर पर चल रहे हैं. दुःख इस बात का है कि खुद वेंटिलेटर पर चल रहे रिश्ते में जूझ रहे लोग दूसरों को शादी न करने पर ताने देने से, उपहास करने से बाज नहीं आते.
समय आ गया है कि विवाह संस्था को या तो खारिज किया जाय या इसकी पुनर्निर्मित हो. वरना अम्मू, डार्लिंग्स पर तो फिर भी बात हो जायेगी, थप्पड़ पर भी हो जायेगी लेकिन वो लोग घेरे में नहीं आयेंगे जो बिना मारे हर वक्त अपने साथी के सम्मान को, उनके आत्मविश्वास को चोटिल करते रहते हैं.
व्यवहारगत हिंसा को भी हिंसा के दायरे में लाना जरूरी है जिसमें उपेक्षा, उपहास और धोखेबाजी भी शामिल है.
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4 comments:
आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ। ये व्यवहारिक हिंसा अधिकतर महिलाएँ सहन कर रही है और उन्हे शायद पता ही नही चलता कि मानसिक हिंसा का भोग बन रही हैं वो ।
बहुत अच्छी सामयिक चिंतन प्रस्तुति
आदरणीया मैम , बहुत ही सुंदर, सामयिक मन को झकझोरता हुआ लेख । कितनी महिलाएँ इस उपेक्षा रूपी हिंसा को नीती क्षण करके भी इससे अज्ञात रहतीं हैं , शायद इसीलिए क्योंकि इस प्रकार का कटु व्यवहार अपने जीवन का हिस्सा मन कर, स्वीकार कर लेती हैं कि पति से इतना तो सुनना ही पड़ता है , औरत होने के नाते इतना तो झुकना है । शायद अपने परिवार और समाज कि महिलाओं को देख कर यही सीखतीं हैं, बचपन से यही देखती हैं , इसीलिए । इस बहुत सशक्त रचना के लिए आभार व आपको प्रणाम ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति
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