Saturday, June 11, 2022

इच्छा का रंग कैसा होता है...



पीली धूप का गुच्छा अभी-अभी मेरी चाय के प्याले के पास गिरा है. उसके गिरने में एक खनक है. मैं जब हाथ में 'शर्ट का तीसरा बटन' लेकर बैठी थी तब भोर की रुपहली किरनों की मध्धम रौशनी थी, हवा का सुर मध्धम लगा हुआ था जिसमें बारिश का इंतज़ार शामिल था. मुठ्ठी भर आसमान आँखों के सामने टंगा हुआ था और मैं निकल पड़ी थी चोटी, राधे, गज़ल और और कथा के नायक के साथ.

अब जब पीली धूप का गुच्छा इसरार कर रहा है कि उससे बातें करूँ, उसे बताऊँ कि मैं क्या पढ़ रही हूँ तो मुस्कुरा देती हूँ, तुझे समझ नहीं आएगा, धूप के गुच्छे से कहती हूँ. वो मानता नहीं, वो एक प्रस्ताव रख देता है सामने, 'अगर तुम मुझे बताओगी तो मैं तुम्हारे लिए बारिश लेकर आऊँगा.' धूप बारिश लेकर आयेगी यह सुनना ही सुखद है. मैं प्रस्ताव मान लेती हूँ और अब धूप को सुना रही हूँ कुछ किस्से कुछ बातें...

'मैं बेहद खुश था. बिना किसी कारण के. जब भी मुझे बहुत ख़ुशी होती, ख़ासकर बिना कारण तो इच्छा जागती कि कैसे इस ख़ुशी को बरकरार रखा जाए. ऐसे में मैं भागकर नदी किनारे चला जाता. पर नदी किनारे ख़ुशी कभी रुकती नहीं थी. नदी अपने साथ हर चीज़ बहा ले जाती थी...'

'दुःख दोस्तों को करीब ले आता है'
'ठीक वक्त पर रो देना भी एक कला है.'
'इस वक़्त तुम्हारे हमारे धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण माँ है.'
'आप कितना ही जान लें उससे कहीं ज्यादा जानना हमेशा बचा रहता है.'
'माँ का कोई नाम हो सकता है यह बात मुझे हमेशा बहुत अजीब लगती थी.'
'एथेंस, रोम, प्राग, पेरिस, न्यूयार्क, वेनिस...मैं हमेशा कंचे खेलते वक़्त अपने सारे कंचों को अलग-अलग नाम दे देता था. अपनी सारी हार के बावजूद प्राग नाम का कंचा हमेशा मेरे पास रह जाता था.'
'मैंने आज तक जीवन में कोई निर्णय नहीं लिया था. मैं दूसरों के निर्णयों के पीछे हो लेता था. मैं किस स्कूल में जाऊं यह माँ का निर्णय था. मेरे बाल कैसे कटने चाहिए यह राजू नाई की उस वक़्त की मनस्थिति पर निर्भर करता था. खाना माँ तय करती थी और पढ़ने में किस विषय में कितनी मेहनत करनी है यह उस विषय के अध्यापक की क्रूरता पर निर्भर करता था. मैं बस धकेल दिया जाता था. और हर धक्के के बाद खुद को जहाँ भी पाता था मुझे वहां ठीक ही लगने लगता था.'

अभी मैंने बस ऐसे ही कुछ टुकड़े धूप को सुनाये...वो कुछ समझ नहीं पा रहा. उसने बस इतना पूछा, तुम्हारे पास भी तो प्राग बचा रहता है न? मैंने पलकें झपकाकर कहा हाँ. शायद पहले कभी मैंने उसे यह बताया होगा.
और? कोहनी टिकाये वो और सुनना चाहता है. मैं उसे कहती हूँ, आज इतना ही...और यह कहकर मैं गज़ल और नायक के बीच चल रहे प्रेमिल क्षणों को छुपा लेती हूँ.
धूप का गुच्छा उठकर लीची के गुच्छों के पास जाकर झूमने लगा है. मेरे हाथों में एक आसमान खुला हुआ है जिसमें नायक अपना होना तलाश रहा है....शायद हम सब भी...

इस सुबह में प्राग जाने की इच्छा का रंग भी घुल गया है. इच्छा का रंग कैसा होता है कभी देखा है तुमने?

2 comments:

Onkar said...

बहुत सुंदर

Onkar said...

बहुत सुंदर