और एक दिन सब बिखर गया. पापा दफ्तर में थे, हम सब महमूदाबाद में. मजदूर काम कर रहे थे कि एक बुलडोजर आया और उसने हमारा समूचा घर ढहा दिया...कुछ देर पहले जहाँ छत पड़नी थी वहां अब मलबे का ढेर था. बुलडोजर क्यों चला, अचानक कैसे चला, क्यों पापा के आने का इंतजार नहीं किया. वहां इतने सारे घर थे सिर्फ हमारे ही घर पर क्यों चला, ये सब सवाल बेमानी हो गये थे,
मुझे याद है पापा उस खंडहर में बैठकर रात को रोया करते थे, माँ उन्हें सँभालने की कोशिश में खुद रो भी नहीं पाती थीं. बुलडोजर ने सिर्फ दीवारें नहीं तोड़ी थीं, हम सबकी जिन्दगी तोड़ दी थी.
अरसे से मैंने टीवी चैनलों से दूरी बना ली है कि खुद को छुपा लेने की कोशिश कर रही हूँ जैसे. लेकिन यह भ्रम कब तक आखिर. कल रात एनडीटीवी प्राइम टाइम पर जब इलाहाबाद में एक घर पर बुलडोजर कार्रवाई होते देख रही थी तो मेरे आंसू रुक ही नहीं रहे थे, गुस्सा थम ही नहीं रहा था.
ऐसी कार्रवाई के पहले की कार्रवाई कहाँ है? किसकी जेब में है समूची व्यवस्था, प्रक्रिया?
सचमुच जिन्हें लगता है कि ये 'उनका' घर टूटा है और जो टूटते घर को देखते हुए डिनर कर रहे थे, चैनल बदलकर गाने सुन रहे थे उनसे कुछ भी कहना बेकार है. क्योंकि उन्होंने ही इस व्यवस्था को पोषित किया है. जो खुश हैं और जिन्हें लगता है कि बिलकुल सही हुआ है जो हुआ है, वो यह नहीं जानते कि एक रोज वो खुद 'उन' लोगों में तब्दील हो सकते हैं. बस बुलडोजर रूपी राक्षस को दिशा ही बदलनी है अपनी.
इतनी नफरत भी मत फैलाओ साथियों कि अपनी ही फैलाई नफरत की आंच एक रोज तुम्हें जला के मार दे. सत्ता किसी की नहीं होती इस बात का तो इतिहास गवाह है.
(तस्वीर लगाने की मेरी हिम्मत नहीं है)
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