उसकी नन्ही उँगलियाँ एक बड़ा सा घर बनाने के लिए तेजी से चल रही थीं. लकीरें तनिक टेढ़ी-मेढ़ी होतीं तो वो इरेज़र से दुरुस्त करती और पूरे मन से घर बनाने में लग जाती. वो महक थी. देहरादून के सरकारी स्कूल की कक्षा 2 की छात्रा. अपने ही स्कूल में चल रहे समर कैम्प का आनन्द लेते हुए वो तन्मयता से डूबी हुई थी. उसने घर बनाया, घर के बाहर एक बकरी, एक कुत्ता भी था. फिर उसने घर के पास कुछ फूल उगाये. एक पेड़ भी आकार लेने लगा. महक ने कहा ‘मैं दो सूरज बनाउंगी.’ मैं जो देर से उसे चुपचाप लकीरों से अपना आसमान, अपनी जमीन गढ़ते देख रही थी उससे पूछ बैठी, सूरज तो एक ही होता है न? तो दो सूरज क्यों? बड़ी देर बाद उसने अपना सर ऊपर उठाया, अपनी नजरें मेरे चेहरे पर रखीं और दृढ़ता से कहा, ‘मुझे दो सूरज चाहिए इसलिए.’ और वो फिर से झुककर सूरज बनाने लगी. कुछ ही देर में उसकी कॉपी में दो सूरज चमक रहे थे. महक अब खुश थी. मुझे फिल्म ‘स्काई इज़ पिंक’ का वह संवाद याद आया जब दूर देश में बैठी माँ अपने बच्चे से पूरे आत्मविश्वास से कहती है, ‘अगर तुम्हारे आकाश का रंग गुलाबी है तो वह गुलाबी ही है.’
मैंने महक से पूछा, ‘तुम्हारे घर की खिड़की से क्या-क्या दिखता है?’ उसने मुस्कुराकर कहा, ‘जो भी मैं देखना चाहती हूँ’ मैंने पूछा क्या-क्या, तो उसने कहा, ‘पेड़, नदी, पहाड़, आसमान पूरा, हवाई जहाज...रसगुल्ले वाले की दुकान और...और आइसक्रीम और काम से लौटती मम्मी.’ महक से बात करते हुए मेरे भीतर कोई खुशबू फूटने लगी थी. महक के कल्पना के संसार में गोते लगाते हुए, उसके दो सूरज की मुस्कुराहट को सहेजते हुए अचानक लगने लगा था कि यह दुनिया सच में किस कदर खूबसूरत है जब तक ये नन्ही आँखों, नन्हे कदमों और नन्ही उँगलियों के हवाले है. और हम समझदार लोग इन्हें अपने जैसा बनाना चाहते हैं. क्योंकर आखिर? निदा फाज़ली साहब का शेर मौजूं हो उठा था, बच्चों के नन्हे हाथों में चाँद सितारे रहने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे.
इसके बाद कुछ देर मैं पूजा के पास बैठी. उसे देखती रही कि उसकी कल्पना की दुनिया में कैसे-कैसे रंग हैं. उसने सुंदर से घर के बाहर एक प्यारी सी लड़की बनाई थी. बेहद खूबसूरत थी वो लड़की. मैंने पूजा से पूछा ‘ये तुम हो?’ पूजा अचकचा गयी. ‘नहीं नहीं...मैं नहीं. मैं तो काली हूँ न. और सुंदर भी नहीं हूँ. ये तो ईशा है मेरी बहन. वो बहुत सुंदर है.’ और पूजा ईशा की ड्रेस में रंग भरने लगी. मेरे भीतर कुछ दरक गया. नन्ही पूजा किस कदर मान चुकी है कि वो सुंदर नहीं है. किसने बताया उसे यह. और क्यों, किस आधार पर. मैंने बहुत देर तक पूजा से बात की और उसे कहा कि वो बहुत खूबसूरत है लेकिन वो मानी नहीं.
राहुल की दुनिया में झाँका तो वहां खिलौने थे बहुत सारे. एक हवाई जहाज था. घर उसका भी बड़ा था लेकिन उसके घर के बाहर जो पेड़ था उसके नीचे वो अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. रंग चटख थे राहुल की दुनिया के. उसने फूल कम बनाये थे खिलौने ज्यादा.
सिध्धार्थ ने पूछा, ‘क्या अपने मन से कुछ भी बना सकता हूँ?’ जब शिक्षिका ने कहा हाँ, कुछ भी बना सकते हो तो उसने कहा ‘मैं धरती बनाऊंगा.’ वो धरती बनाने लगा. गोल-गोल धरती. सिध्धार्थ कक्षा 1 में पढ़ता है. उसने एक गोला बनाया और उसमें कुछ गोचागाची कर दी. उसकी शिक्षिका ने कहा, ‘शाबास तुमने बहुत सुंदर धरती बनाई है. अब इस धरती में कुछ पेड़ भी लगा दो.’ लेकिन सिध्धार्थ का मन नहीं था पेड़ लगाने का. उसने उस गोचागाची वाली अपनी ड्राइंग में एक महिला की तस्वीर बनाने की कोशिश की. तस्वीर तो बन नहीं पा रही थी लेकिन यह समझ आ रहा था कि यह कोई स्त्री है. उसकी शिक्षिका ने उसके सर को चूमते हुए कहा, ‘जाओ जाकर बाहर खेल लो और फ्रूटी पीना मत भूलना.’
सिध्धार्थ धीमे कदमों से बाहर चला गया. शिक्षिका ने बताया कि इसने अभी स्कूल आना शुरू किया है. कोरोना में इसकी माँ की मृत्यु हो गयी है. इसके पापा काम पर जाते हैं. अक्सर वो इसे स्कूल से ले जाना भूल जाते हैं. बच्चा अभी बिना माँ के जीना सीख रहा है. उसने धरती पर जो स्त्री बनाई है शायद अपनी माँ को बनाया है. उस लगभग न समझ में आने वाले अनगढ़ से चित्र के भीतर के उस कोमल संसार को सिर्फ वो शिक्षिका समझ पा रही थी जो सिध्धार्थ को जानती है, उसके मन को जानती है.
इस जानने का, महसूस करने का शिक्षा में कितना गहरा उपयोग हो सकता है यह बात सर्वविदित है ही.
इस बार के ये समर कैम्प कई मायनों में अलग हैं. यहाँ रंगों और खेलों का जो संसार है न जाने कितने जख्मी दिलों पर मरहम भी रख रहा है. न जाने कितने नन्हे मन की उड़ान को खुला आसमान दे रहा है. शिक्षक बच्चों के और करीब आ रहे हैं, बच्चे अपने ही और करीब आ रहे हैं. शिक्षक चाहते हैं कि समर कैम्प के बहाने बच्चों के मन की सारी जकड़न टूट जाए, बच्चे चाहते हैं कि वो अपनी दुनिया के दो सूरज से इस दुनिया को और रोशन कर दें.
रही बात सीखने की तो मैंने महसूस किया कि इस दौरान बच्चों और शिक्षकों दोनों का जिस तरह का सीखना हो रहा है उसी की कमी से तो सारा समाज जूझ रहा है.
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