- प्रतिभा कटियार
‘तेरी खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे...’ ये गज़ल किशोर वय के दिनों से दिल के करीब रही. शायद पत्रों से मोहब्बत होने की वजह भी बनी हो. मुझे पत्र लिखने का खूब शौक था.
मैंने छुटपन से खूब खत लिखे. स्कूल के दिनों में जब कोई दोस्त एब्सेंट होती तो उसके लिए पत्र लिखती और उसके आसपास रहने वाले के जरिये उस तक पहुंचाती. फिर यह सिलसिला इस तरह चला कि मुझे भी दोस्तों ने खूब पत्र लिखे. स्कूल से कभी-कभी इसलिए भी नागा कर लेती कि छुट्टी में ढेर सारे पत्र मिलेंगे दोस्तों के. फिर डाकबाबू के दिन आये. हंस, उत्तर प्रदेश और अखबारों में कुछ कहानियां छपने लगीं जिनमें पता भी होता था. उस पते पर न जाने कहाँ-कहाँ से पत्र आने लगे. अनजाने लोगों के पत्र, अपनेपन की रौशनी से भरे पत्र. एक पत्र तिहाड़ जेल से एक कैदी का भी आया था. अज़ीज़ दोस्त ज्योति जब शादी के बाद बंगलौर गयी तब खूब पत्र लिखे. अन्तरदेशी में कहाँ समाती हमारी बातें. हम तो खर्रे लिखा करते थे.
मेरे पत्र मित्र जिन्हें पेन फ्रेंड कहते हैं लोग भी बने कुछ. लेकिन सबसे लम्बा सिलसिला चला कवि मित्र बसंत त्रिपाठी के संग. मुझे किसी की कोई रचना अच्छी लगती तो मैं उसे पत्र लिखती. मैंने ममता कालिया जी को पत्र लिखा, गुलज़ार को पत्र लिखा, नासिरा शर्मा जी को पत्र लिखा, कुलदीप नैयर को पत्र लिखा. मजे की बात यह हुई कि सबके जवाब आये. अगर किसी पत्र का जवाब कभी नहीं आया तो वो महबूब को लिखे पत्रों का. जाने उसने पढ़े भी या नहीं.
मैंने अपने प्रिय लेखकों के पत्रों को ढूंढ-ढूंढकर पढ़ा. हमेशा दिलचस्पी रही कि दो दोस्तों की, दो प्रेमियों की, माँ बेटे की, पिता पुत्री की पत्र में क्या बातें होती होंगी. वो जब अनौपचारिक ढंग से एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब वो कितने सहज होते हैं. पत्र से मेरा जो लगाव हुआ उसके चलते मैंने दुनिया के मशहूर प्रेम पत्रों को अनुवाद भी किया.
फिर इंटरनेट का ज़माना आ गया और कागज की जगह ले ली मेलबॉक्स ने. मेल से भी खूब पत्र लिखे. न जाने कितने पत्र तो ड्राफ्ट में अब भी मौजूद हैं. लिखने की सहजता डायरी और पत्र ने मुझे खूब दी. डायरी लिखते हुए लगा यह मेरी दुनिया है, और पत्र लिखते समय उस दुनिया कोई एक प्रिय उस दुनिया में शामिल हो गया. डायरी और पत्र दोनों गोपन चीज़ें हैं, मैं विधा के नहीं अभिव्यक्ति के तौर पर देखती हूँ इन्हें. कोई बाधा नहीं, कोई नियम नहीं कोई जज किये जाने का जोखिम भी नहीं.
अच्छा समय हुआ तो पत्र लिखे, बुरा समय हुआ तो भी पत्र ही लिखे. जिसे पत्र लिखे उसके सामने होना अभिव्यक्ति में बाधा ही लगा. कल्पना ही सच है की तर्ज पर अगर देखूं तो पत्रों ने मुझे मेरे माफिक वो जगह दी जहाँ मैं अपनी तरह से जी सकूं, साँस ले सकूँ. प्रेमी का शुक्रिया कि उसने मेरे पत्रों का जवाब कभी न देकर पत्र के जवाब में लिखे गए पत्रों के इंतज़ार से बचा लिया और पत्र मेरे लिए और गहन हो गये. मेरे खुलने की जगह, मेरी साँस लेने की जगह बन गये.
जब कोरोना ने पाँव पसारे और बाहर सब कुछ बंद हो गया तब मन की बेचैनी ने एक बार फिर पत्र लिखने की तरफ मोड़ा. मैंने पूरे लाकडाउन हर रोज पत्र लिखे. ये किसी को भेजे नहीं गए बस लिखे गए. क्यों लिखे गए ये कोई पूछे तो एक ही जवाब है मेरे पास कि न लिखती तो जी न पाती शायद. हर रोज सुबह अपनी हिम्मत को सहेजते हुए ज़िन्दगी पर भरोसे को सहेजते हुए चाय की प्यालियों के बीच मैं लगातार पत्र लिख रही थी. जैसे कोई बैठा हो इबादत में कि ‘सब ठीक हो...सब ठीक हों...’ यही धुन रहती थी लिखने के दौरान. जैसे कोई मन्त्र जप रही हूँ. प्रकृति और प्रेम के भरोसे मैं लगातार ज़िन्दगी में आस्था बनाये रखने की कोशिश में लगी रही. कई विचलन आये लेकिन हर विचलन के समय मैं लिखती रही.
किसे लिखे गए ये पत्र के जवाब इन पत्रों में ही हैं. कई बार लगा ये सब खुद के ही लिखे हैं कि प्रेमी मुझसे अलग है भी कहाँ. कई बार लगा सारे जमाने के प्रेमियों को सारे जमाने की प्रेमिकाओं की तरफ से लिख रही हूँ और कभी लगा मैं लिख कहाँ रही हूँ मैं तो सांस ले रही...इतनी सी बात है इन कठिन दिनों के प्रेम पत्रों की बाबत.
‘तेरी खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे...’ ये गज़ल किशोर वय के दिनों से दिल के करीब रही. शायद पत्रों से मोहब्बत होने की वजह भी बनी हो. मुझे पत्र लिखने का खूब शौक था.
मैंने छुटपन से खूब खत लिखे. स्कूल के दिनों में जब कोई दोस्त एब्सेंट होती तो उसके लिए पत्र लिखती और उसके आसपास रहने वाले के जरिये उस तक पहुंचाती. फिर यह सिलसिला इस तरह चला कि मुझे भी दोस्तों ने खूब पत्र लिखे. स्कूल से कभी-कभी इसलिए भी नागा कर लेती कि छुट्टी में ढेर सारे पत्र मिलेंगे दोस्तों के. फिर डाकबाबू के दिन आये. हंस, उत्तर प्रदेश और अखबारों में कुछ कहानियां छपने लगीं जिनमें पता भी होता था. उस पते पर न जाने कहाँ-कहाँ से पत्र आने लगे. अनजाने लोगों के पत्र, अपनेपन की रौशनी से भरे पत्र. एक पत्र तिहाड़ जेल से एक कैदी का भी आया था. अज़ीज़ दोस्त ज्योति जब शादी के बाद बंगलौर गयी तब खूब पत्र लिखे. अन्तरदेशी में कहाँ समाती हमारी बातें. हम तो खर्रे लिखा करते थे.
मेरे पत्र मित्र जिन्हें पेन फ्रेंड कहते हैं लोग भी बने कुछ. लेकिन सबसे लम्बा सिलसिला चला कवि मित्र बसंत त्रिपाठी के संग. मुझे किसी की कोई रचना अच्छी लगती तो मैं उसे पत्र लिखती. मैंने ममता कालिया जी को पत्र लिखा, गुलज़ार को पत्र लिखा, नासिरा शर्मा जी को पत्र लिखा, कुलदीप नैयर को पत्र लिखा. मजे की बात यह हुई कि सबके जवाब आये. अगर किसी पत्र का जवाब कभी नहीं आया तो वो महबूब को लिखे पत्रों का. जाने उसने पढ़े भी या नहीं.
मैंने अपने प्रिय लेखकों के पत्रों को ढूंढ-ढूंढकर पढ़ा. हमेशा दिलचस्पी रही कि दो दोस्तों की, दो प्रेमियों की, माँ बेटे की, पिता पुत्री की पत्र में क्या बातें होती होंगी. वो जब अनौपचारिक ढंग से एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब वो कितने सहज होते हैं. पत्र से मेरा जो लगाव हुआ उसके चलते मैंने दुनिया के मशहूर प्रेम पत्रों को अनुवाद भी किया.
फिर इंटरनेट का ज़माना आ गया और कागज की जगह ले ली मेलबॉक्स ने. मेल से भी खूब पत्र लिखे. न जाने कितने पत्र तो ड्राफ्ट में अब भी मौजूद हैं. लिखने की सहजता डायरी और पत्र ने मुझे खूब दी. डायरी लिखते हुए लगा यह मेरी दुनिया है, और पत्र लिखते समय उस दुनिया कोई एक प्रिय उस दुनिया में शामिल हो गया. डायरी और पत्र दोनों गोपन चीज़ें हैं, मैं विधा के नहीं अभिव्यक्ति के तौर पर देखती हूँ इन्हें. कोई बाधा नहीं, कोई नियम नहीं कोई जज किये जाने का जोखिम भी नहीं.
अच्छा समय हुआ तो पत्र लिखे, बुरा समय हुआ तो भी पत्र ही लिखे. जिसे पत्र लिखे उसके सामने होना अभिव्यक्ति में बाधा ही लगा. कल्पना ही सच है की तर्ज पर अगर देखूं तो पत्रों ने मुझे मेरे माफिक वो जगह दी जहाँ मैं अपनी तरह से जी सकूं, साँस ले सकूँ. प्रेमी का शुक्रिया कि उसने मेरे पत्रों का जवाब कभी न देकर पत्र के जवाब में लिखे गए पत्रों के इंतज़ार से बचा लिया और पत्र मेरे लिए और गहन हो गये. मेरे खुलने की जगह, मेरी साँस लेने की जगह बन गये.
जब कोरोना ने पाँव पसारे और बाहर सब कुछ बंद हो गया तब मन की बेचैनी ने एक बार फिर पत्र लिखने की तरफ मोड़ा. मैंने पूरे लाकडाउन हर रोज पत्र लिखे. ये किसी को भेजे नहीं गए बस लिखे गए. क्यों लिखे गए ये कोई पूछे तो एक ही जवाब है मेरे पास कि न लिखती तो जी न पाती शायद. हर रोज सुबह अपनी हिम्मत को सहेजते हुए ज़िन्दगी पर भरोसे को सहेजते हुए चाय की प्यालियों के बीच मैं लगातार पत्र लिख रही थी. जैसे कोई बैठा हो इबादत में कि ‘सब ठीक हो...सब ठीक हों...’ यही धुन रहती थी लिखने के दौरान. जैसे कोई मन्त्र जप रही हूँ. प्रकृति और प्रेम के भरोसे मैं लगातार ज़िन्दगी में आस्था बनाये रखने की कोशिश में लगी रही. कई विचलन आये लेकिन हर विचलन के समय मैं लिखती रही.
किसे लिखे गए ये पत्र के जवाब इन पत्रों में ही हैं. कई बार लगा ये सब खुद के ही लिखे हैं कि प्रेमी मुझसे अलग है भी कहाँ. कई बार लगा सारे जमाने के प्रेमियों को सारे जमाने की प्रेमिकाओं की तरफ से लिख रही हूँ और कभी लगा मैं लिख कहाँ रही हूँ मैं तो सांस ले रही...इतनी सी बात है इन कठिन दिनों के प्रेम पत्रों की बाबत.
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