बार-बार बाहर जाती हूँ, हवाओं को टटोलती हूँ. कोई संदेशा तो नहीं इन हवाओं में टटोलती हूँ. नहीं मिलता कोई संदेशा. लौट आती हूँ. समय यूँ भी कम उदास नहीं, उस पर स्मृतियों का यह बवंडर.
बात करने से कुछ नहीं होता फिर भी जाने क्यों बात करने की इच्छा मरती ही नहीं.
गिरे हुए हर पत्ते को उठाकर देखती हूँ
कोई सन्देश तो नहीं
तितलियों से पूछती हूँ उसने कुछ कहा तो नहीं
नम सुबहों से पूछती हूँ
तुम्हारे शहर के मौसम का हाल
अख़बार के पन्ने पलटते हुए सोचती हूँ
क्या तुम भी पढ़ते होगे
मेरे शहर की ख़बरें
और पूछते होगे मौसमों से मेरा हाल
कि रंग गुलाबी था आज दिन का
तुम्हारी भेजी ओढ़नी
रही सर पर दिन भर....
4 comments:
वाह एहसास का स्पंदन बेहद सुंदर।
मार्मिक...
पद्य कहूँ या गद्य कहूँ इसको।
वाह !
नेह की बारिश !
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