लॉकडाउन खुल रहा है धीरे-धीरे. तुम्हारे शहर में भी तो खुला होगा न? मैं गयी थी बाजार कुछ जरूरी सामान लेने. पूरे 42 दिन बाद बाज़ार. अजीब उहापोह थी मन में. बाजार जाते ही खत्म हो गयी. इतनी भीड़ थी वहां कि बिना कुछ लिए ही वापस आ गयी. अब इसी तरह जीने की आदत डालनी होगी. आर्थिक स्थिति डांवाडोल पहले ही कम नहीं थी अब और बंटाधार होगा इसका. शराब की दुकानों पर लगी लाइनें मजाक और विमर्श का विषय नहीं हैं विमर्श का विषय है सरकार की वह मजबूरी जो पहले तो पूरे देश को घरकैद कर देती है सुरक्षा के नाम पर और फिर जरूरी दुकानों और दफ्तरों को कुछ नियमों के साथ खोलने की बात करती है और उस जरूरी की लिस्ट में शराब को रख देती है. क्यों? विमर्श का विषय है कि जब समूची दुनिया कोरोना से लड़ रही थी क्यों सरकार भूली नहीं अपना जातिवादी, धर्मवादी एजेंडा और चुन-चुनकर लोगों को जेल भेजती रही, केस ठोंकती रही. कहीं कोई चर्चा भी न हुआ. काम भी हो गया. कोविड की आड़ में क्या-क्या न झोली किया सरकार ने. अजीब बात है न? वैसे इतनी अजीब भी नहीं. अजीब और बहुत कुछ चलता रहता है इन दिनों. जैसे हम इतने जजमेंटल क्यों हैं. किसी के बारे में, किसी बात पर राय बनाने को लेकर इतनी जल्दी में क्यों रहते हैं. या तो किसी के गले में लटक जाने तक सहमत होते हैं या पिस्तौल तान देने की हद तक विरोध में खड़े हो जाते हैं. दुखद है यह. हम असहमत हो सकते हैं लेकिन उन बारीकियों को समझते हुए कि क्यों हैं असहमत. बिना किसी को कटघरे में खड़ा करे. हमारी किसी से असहमति हमारे सोचने की लेयर्स का अंतर भी हो सकता है. मुझे तो लगता है मेरी कम समझी भी हो सकती है. जानती ही कितना हूँ. अपने जाने हुए का विस्तार मुझे हमेशा असहमतियों के बीच ही मिला है.
मैंने बताया था न तुम्हें मैं मोनिका कुमार को पढ़ रही हूँ इन दिनों. अपने भीतर कुछ उगता हुआ लगता है उन्हें पढ़ते हुए. मेरे कम जाने को विस्तार जैसा. या जाने हुए का ज्यादा जानने की ओर बढाने जैसा. पिछले दिनों फिल्म थप्पड़ पर उनके लिखे को लेकर काफी चर्चा है. मैंने बताया था न तुम्हें उस लेख के बारे में. हाँ वही थप्पड़, मुझे पसंद नहीं आई. उस लेख में थोड़ा अतिवाद तो लगा था मुझे भी. कि आप एक फिल्म से कितनी अपेक्षा रख सकते हैं. बौलीवुड ने तो न जाने कितने संवेदनशील विषयों पर फ़िल्में बनाकर उनकी ऐसी तैसी की है और खूब पैसा भी कमाया है. चाहे वो वर्क प्लेस पर सेक्स्सुअल हैरसमेंट को लेकर बनी हो, दहेज के झूठे मामले में फंसाने वाली फिल्म हो, स्त्री को काम पर जाते और पुरुष को घर पर काम करते दिखाने वाली फिल्म हो. फिल्मों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती हालाँकि की जानी चाहिए. फिर भी जो थोडा बहुत सहयोग किया है फिल्मों ने उसके जरिये हम विमर्श को सहज ढंग से आम लोगों तक ले जाने में इस्तेमाल कर ही लेते हैं. थ्री इडियट, अस्तित्व जैसी फिल्मों को एकेडमिक सेशंस में इस्तेमाल होते देखा ही है. देखा तो मृत्युदंड को भी है.
मुझे भी फिल्म तो अच्छी नहीं लगी थी लेकिन यह अच्छा लगा था फिल्म में कि इसे देखकर यह विचार आना कि यह तो कितना कम है, जीवन में तो इससे कितना ज्यादा सहते हैं हम...और यह विचार ही इस फिल्म के बाद हर स्त्री के मन में आये, सोया हुआ अस्मिता बोध थोडा करवट ले तो भी कम नहीं. और पुरुष? उनका क्या? यह फिल्म पुरुषों के लिए भी तो थी न कि वो याद करें, महसूस करें कि जीवन भर साथ रह रही स्त्री को कितना कम समझ सके हैं वो, कितना कम हो सके हैं उसके मन के साथ.
मन, अपना मन, उसके साथ खड़े होना, दूसरे के मन को समझना ये सब अभी बहुत बड़ी बातें लगती हैं. तभी तो मुझे लगा था कि अमु तो खुशकिस्मत है उसे पड़ोसन भी समझ लेती है, उसकी भाई की गर्लफ्रेंड भी, पिता भी.
प्रोफेसर पिता बेटी को कैसे हाउसवाइफ होने देने से खुश हो सकता है? जबकि प्रोफेसर, अफसर, डाक्टर, इंजीनियर, सीईओ, आईएएस और लेखक पिताओं, पतियों की जड़ताएं कहाँ छुपी हैं भला.
मोनिका सोशल कंस्ट्रक्शन की बात करती हैं, ज्यादा गहरे उतरकर पड़ताल करती हैं. वो शायद सिर्फ फिल्म की बात नहीं करतीं, 'शायद' शब्द की आड़ ले रही हूँ शायद यह मेरे कम समझे को संभाल लेगा. वो फिल्म के बहाने पूरे समाज की पड़ताल करती हैं. वो छुटपुट चीज़ें से बहल जाने के खिलाफ दिखती हैं उनमें समुच्य में बदलाव की जो इच्छा है वो मुझे बहुत अच्छी लगती है. इतनी बड़ी इच्छाओं की मुझे तो शायद हिम्मत ही नहीं हुई कभी. जरा जरा सी चीज़ों में खुश हो ली मैं तो. लेकिन बड़े बदलाव के लिए बड़ी इच्छा होना लाजिमी है हालाँकि वो छोटे छोटे रेशों से होकर ही बड़ी होगी, परिपक्व होंगी इसमें भी कोई शक नहीं. बावजूद इसके एक फिल्म से इतनी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही लगती हैं.
स्त्री विमर्श का डिब्बा बड़ा है. कई स्तर पर बात करनी होगी, कई तरह से. हर किसी को साथ लेकर चलना होगा. तो मोनिका बात गलत नहीं करतीं बस वो फिल्म के बरक्स उस बात को रखती हैं तो अतिवाद लगने लगता है.
चलो, असहमत ही हो लेते हैं. लेकिन हम असहमत होते ही युद्ध में क्यों उतर जाते हैं. वो हमकदम हैं, हमविचार हैं. वो भी हमारी तरह स्त्री मुक्ति का सपना देखती हैं. गहराई से समझती हैं मुद्दों को. उनसे कितना कुछ सीखने को मिलता है. हमारे कितने अनकहे को शब्द देती हैं. तो सलीके से असहमत ही हो लेते हैं. बात कर लेते हैं, सुन लेते हैं.
लेकिन देख रही हूँ मोनिका की तरफ निशाना साधते नजर आ रहे हैं लोग. हम सब स्त्री मुक्ति का सपना देखने वाली स्त्रियाँ अगर दोस्त नहीं हैं तो कौन सी स्त्री मुक्ति, किससे. क्या हम असहमतियों का सम्मान करना नहीं सीख सकते. असहमति की भाषा इतनी तल्ख क्यों.
मैं तो सबसे सीखने की कोशिश करती हूँ. सबको पढ़ती हूँ. ज्यादा कुछ जानती भी नहीं हूँ लेकिन इतना तो समझ ही सकती हूँ कि हम सब एक ही सपने को आँखों में लिए हैं, एक ऐसा समाज जहाँ स्त्री पुरुष दोनों अपनी मर्जी को पहचानें और उसे जीने की ओर कदम बढ़ाएं. बिना एक-दूसरे के प्रति आफेंसिव हुए. क्या यह इतनी बड़ी बात है.
मैं एक पोस्ट पर मोनिका से आंशिक असहमत हूँ लेकिन उनके साथ हूँ. क्योंकि मैं जानती हूँ उनकी आँखों में भी वही सपना है जो मेरी आँखों में है. उनके साथ होने का यह अर्थ कैसे मान लिया कि जो उनसे असहमत हैं मैं उनके साथ नहीं हूँ. असल में हम सब साथ ही हैं. होना चाहिए. सब दोस्त ही हैं असहमति आरोप की तरह नहीं, अपनी बात रखने की तरह हो तो अच्छा होता है न ?
देश खुल रहा है, दफ्तर खुल रहे हैं, दुकानें खुल रही हैं हमारे जेहन कब खुलेंगे? खुलना सिर्फ ज्यादा चीजों को जानना नहीं होता, खुलना ज्यादा जानने के बाद असहमति की यात्रा तय करते हुए भी सह्रदय और विनम्र होना ही जाना है.
दो अलग रंग और आकार वाले फूल अलग खुशबू वाले फूल अलग-अलग तरह से एक ही काम करते हैं दुनिया को सुन्दर बनाने का, महकाने का. ऐसा विचारों के साथ क्यों नहीं हो सकता भला?