Thursday, April 14, 2016

नजर और नजरिये के दरम्यिान स्त्री



- प्रतिभा कटियार
हम नहीं जानते कि हम नहीं जानते और इस न जानने को उम्र भर जीते जाते हैं। महसूस करते हैं वो जो महसूस करने के इंजेक्शन समाजीकरण की प्रक्रिया में हमें लगाये गये हैं। रास्तों का सही या गलत होना, लोगों का एक-दूसरे के साथ पेश आना, चीजों को देखने और समझने का हमारा नजरिया सब पहले से तय किया जा चुका है। चित्रलेखा में जिस तरह पाप और पुण्य की खोज शुरू होती है और एक समूची यात्रा तय करके जिस तरह प्रस्थान बिंदु की ओर बढ़ती है वैसी ही यात्रा हम सबके जीवन में भी चलती है बस कि उस यात्रा में हमारी खोज क्या है, यह हम जान नहीं पाते। ऐसी ही एक यात्रा स्त्री जीवन की भी है। समाजीकरण के घने बुने ताने-बाने ने किस तरह एक खंडित समाज को रचते हुए इंसान की इंसान के बीच दूरियां खींच दी हैं जिनमें से कुछ पर तो हमारी नज़र गई है लेकिन कहीं तो नज़र गई तक नहीं। नज़र की हद में आने से छूट गये ऐसे ही छोटे-बड़े टुकड़ों को समेटते हुए अपने समाज के बरअक्स स्त्री मन, उसके जीवन की चुनौतियों को समझने की कोशिश-

”आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।” उस अजनबी लड़के ने कहा। ”मुझे भी।” अजनबी लड़की ने जवाब दिया। वो अजनबी थे लेकिन दो दिनों से दोस्तों के एक समूह में थे। एक-दूसरे के नाम के सिवा वे एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते थे, जानने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। विदा के वक्त जब वो दोनों ही बचे थे और बचा था थोड़ा सा रास्ता भी तो बीच में कोई खामोशी आकर बैठ गई। उस खामोशी को तोड़ते हुए लड़की ने यूं ही पूछ लिया, ”आप क्या करते हैं, परिवार में कौन-कौन है।” लड़के ने बताया, कारोबार, पत्नी, दो बच्चे। फिर यही घिसा हुआ सवाल लड़के ने भी गाड़ी का गियर बदलते हुए दोहरा दिया। लड़की ने भी बता दिया, ऑफिस के बारे में, बच्चे के बारे में। ”और पति?” उसने पूछा। न दिये गये जवाब अक्सर उलझाते हैं...लड़की ने बेपरवाही से जवाब दिया, ”हमारा तलाक हो चुका है।” लड़का बोला, ”अरे...लेकिन आप तलाक लेने वाली औरतों जैसी लगती तो नहीं....” लड़की के भीतर कुछ दरक गया। उसने कुछ नहीं कहा, थोड़ी देर बाद वो उतर गई लेकिन वो लड़के का वो जवाब अब तक जेहन से उतरा नहीं। यूं तलाक, सेपरेशन, ब्रेकअप के भीतर की टूटन और समाज के व्यवहार इंसान को काफी हद तक सख्त बना ही देते हैं। लेकिन जब तथाकथित पढ़ी लिखी, सभ्य, सुसंस्कृत, नई पीढ़ी भी इस तरह पेश आती है तो थोड़ा बुरा तो लगता है...क्या ऐसा ही सवाल पुरुष से भी पूछा गया होगा या वो इसलिए बेचारा बना होगा समाज में कि कैसी तेज बीवी से पाला पड़ गया था बेचारे का। समाज की हर टूटन की जिम्मेदारी स़्त्री के मत्थे ही तो मढ़ी है। तभी तो पुराने लोग कहते हैं कि लड़कियां पढ़-लिखकर घर तोड़ रही हैं। सचमुच चेतना, टूटने की शुरुआत ही तो है...आखिर हर टूटन के लिए स्त्री को जिम्मेदार पाने वाली नज़र और नज़रिया कहां से आता होगा। कहां से आती होगी वो निजी सोच जिसमें खुलकर सांस लेने को गुनाह करार दिया जाता होगा। किस तरह एक स्त्री को दूसरी स्त्री के सम्मुख खड़ा कर दिया जाता होगा बतौर दुश्मन...वो नज़रिया न स्त्री गर्भ से लेकर आती है, न पुरुष। पीके की भाषा में कहें तो सब इसी गोले में रचा गया है, हमारा होना और न होना सब.
हम जिस तरह बर्ताव करते हैं, नजर आते हैं, अपनी बात को कहते हैं, जैसा जीवन जीते हैं यह सब कहां से आता है। कौन है जो हमें व्यक्ति बनाता है, हमारे सोचने-समझने के ढंग का निर्माण करता है, कब अनजाने हमारे सही, गलत, अच्छे बुरे तय होने लगते हैं...फेविकोल की जोड़ की तरह हमारे जेहन से चिपक जाते हैं। कमाल यह कि हम यह सोचते हैं कि यह तो हमारी ही इच्छा है, ऐसा हम ही चाहते हैं, यह हमारा अच्छा लगना है, हमारा बुरा लगना। यह समाज इसका ताना-बाना, इसकी जटिलताएं, रूढि़यां बच्चे के जन्म से पहले ही उसे जकड़ने को आतुर। सामाजिक सत्ताएं व्यक्ति निर्धारण करती हैं। हमारे जन्म से सैकड़ों बरस पहले ही हमारा होना तय किया जा चुका है। किस बात पर हंसना है हमें, किस बात पर रोना, किस बात पर गुस्सा बस आ ही जाना चाहिए। एक समाज के लोग एक ही जैसे चुटकुलों पर हंसते हैं, एक जैसे मनोरंजन के साधन तलाशते हैं, एक जैसी जीवनशैली अपनाते हैं, एक जैसे उनके अहंकार होते हैं और एक जैसी अनुभूतियां भी। हमें एक जैसी चीजों पर एक जैसा बुरा भला लगता है तभी तो नई सदी की नई पीढ़ी का वो अजनबी लड़का बिना कुछ भी जानने-समझने की इच्छा के सपाट ढंग से कह बैठता है कि ”आप तो नहीं लगतीं तलाक लेने वाली औरतों जैसी....” वो जो बोल गया वो कौन था, कोई चेहरा या नाम नहीं एक समूूची सोच। समूचा समाज। समाज जो कभी पड़ोस वाली आंटी, कभी बुआ, कभी चाची, कभी कामवाली बाई, कभी दफ्तर के सहकर्मियों और कभी तो दोस्तों के रूप में मिलता रहता है...हमें लगता है कि हम व्यक्तियों से व्यथित हैं, या हम व्यक्तियों का विरोध करते हैं, उनसे नाराज होते हैं....जबकि असल में हम व्यक्तियों से नहीं समूचे समाज से भिड़ रहे होते हैं, लहूलुहान हो रहे होते हैं।
स्त्री होती नहीं बनाई जाती है-
सिमोन को पढ़ते हुए, समाज के ताने-बाने को देखते हुए समझा था कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। साथ ही यह भी समझा था कि बनाये तो पुरुष भी जाते हैं, पैदा तो वो भी नहीं होते होंगे। स्त्री को शोषित होने के लिए तैयार करने वाला यह समाज पुरुषों को शोषण करने के लिए भी तो तैयार करता है। एक स्त्री को उसकी रची-बसी भूमिकाओं की ओर धकेलने वाला समाज उन भूमिकाओं की ओर पैर बढ़ाने वाले पुरुषों का मजाक भी तो बनाता है। बचपन में मालती जोशी की कहानी पढ़ी थी समर्पण का सुख। उसका एक किरदार राजू अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है, उसे सारा दिन घर के कामों में कोल्हू के बैल की तरह खटते देखकर उदास होता है लेकिन चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर पाता क्योंकि वो तो मर्द है और मर्दों को घरेलू काम करना बुरा माना जाता है, उन्हें ”मेहरा ” कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है। इसलिए वो रात में अपने कमरे में सबके सो जाने के बाद अपनी पत्नी की सेवा करता है उसके दर्द को कम करने की कोशिश करता है...। यह है बनाया जाना। राजू तो फिर भी महसूस करता था अपनी पत्नी की तकलीफ लेकिन कितने लोग तो महसूस करने से भी वंचित कर दिए गये हैं। उन्हें महसूस भी वही होता है, जो समाज चाहता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ गांवों के उदाहरण आंखों के आगे घूमते हैं जहां अपनी पत्नी की तबियत खराब होने और उसकी दवा के बारे में, दर्द के बारे में पूछने, इलाज की चिंता को जाहिर करने वाले पुरुष को ”जोरू का गुलाम” कह दिया जाता है। अगर पत्नी काम में व्यस्त है और बच्चा रो रहा है तो वो अपने बच्चे को गोद में उठाकर दुलरा नहीं सकता...क्योंकि यह तो स्त्रियों का काम है। पुरुषों के हाथ में सजा-संवरा, खिलखिलाता बच्चा आना चाहिए वो भी कुछ देर को। सिर्फ उनके बाप होने के रौब को बढ़ाने को (बच्चा अगर लड़की है तो वो भी कम हो जाता है) अगर बच्चा रोने लगता है तो पुरुष पिता चिड़चिड़ा जाते हैं. झुंझला जाते हैं...”ले जाओ यार इसे, पें पें करता रहता है...”कहकर स्त्री की गोद में पटककर निकल जाते हैं। उनका कलेजा बच्चे के रूदन से फटता नहीं। यह व्यक्ति का नहीं, समाज का व्यवहार है। इसी नई पीढ़ी के कई पुरुष जो कुछ हद तक अपने भीतर संवेदनाओं को बचा पाये हैं वो मेहमानों के आने से पहले, मां के जागने से पहले, पड़ोसियों से नजर बचाकर चुपके-चुपके अपनी पत्नी की मदद करते हैं...हालांकि इसका इलहाम भी उन्हें होता ही है कि वो कुछ खास पति हैं जिसका अहसानमंद उनकी पत्नी को होना चाहिए।
हमने तो कोई रोक-टोक नहीं रखी-
अक्सर नये जमाने के आधुनिक सोच वाले लोगों से मुलाकात होती है। वो जो कहते हैं समाज बदलना चाहिए, ये सूरत बदलनी चाहिए। वो जो अपने प्रेम के लिए जमाने से लड़ने को बुरा नहीं मानते। वो जो मानने लगे हैं कि मनुष्य का मनुष्य से बराबरी का रिश्ता होना चाहिए वो अक्सर कहते हैं, ”हमने तो अपने घर में, रिश्तों में कोई पाबन्दी नहीं लगाई। खुली छूट दे रखी है पत्नी को, मां को, बहन को।” और यह कहते हुए वो यह भूल जाते हैं कि वो खुली छूट ”दे रहे हैं...” यह छूट देने की सत्ता उनकी ही तो है। कहां से आई? किसने तय की? वो कौन होते हैं छूट देने वाले आखिर? पता ही नहीं चलता कि लोकतान्त्रिक होने का दावा करते-करते हम अनजाने ही कितने अलोकतान्त्रिक होते जाते हैं। ये समाज ही तो है जो हमारे समूचे व्यवहार पर अपना कब्जा करके बैठा है...हम जो हम हैं, लेकिन हम नहीं हैं। 

प्रेम भी बचा नहीं, न फिल्में -
हाल ही की एक फिल्म का उदाहरण आंखों के आगे घूम रहा है...बाजीराव मस्तानी। मस्तानी इतिहास की प्रेमिका है, बाजीराव भी। मस्तानी योद्धा है, वीर है। तमाम बैरिकेडिंग तोड़कर बाजीराव के प्रेम में पड़ जाती है। क्यों वो प्रेम में पड़ते ही नर्तकी बन जाती है. क्यों वो खुद को बुंदेलखंड की नाजायज बेटी कहती है और सिंदूर को महान...क्यों? क्यों इसी समाज की तमाम ढांचागत स़्ित्रयां काशी के प्रति दया से भर जाती हैं और तमाम प्रेमिकाएं मस्तानी में अपना अक्स देखने लगती हैं... कितने ही ऐसे संबंध आसपास सांस ले रहे हैं लेकिन चोरी से...समाज की मुहरों वाले रिश्ते क्यों दिल के रिश्तों को मुह चिढ़ा रहे हैं। प्रेम के लिए जमाने भर से लड़ जाने वाले प्रेमी भी क्यों आखिर समाज की मुहर लगवाने को मजबूर ही हैं अब तक...क्योंकि फिल्ममेकर भी तो इसी समाज में एक यात्रा जीकर आया है....। तनु वेड्स मनु की अति आधुनिक दत्तो सब कुछ कर सकने में सक्षम है, मेडल भी ला सकती है, चूल्हा भी फंूक सकती है, रिश्ते भी संभाल सकती है, बच्चे भी पाल सकती है...जमाने भर से लड़ भी सकती है लेकिन तनु के उस प्यार को नहीं समझ सकती जो इस तरह के समर्पण की सीमाओं में बंधा नहीं। वो कभी तनु को अपनी आदर्शवादिता का ताना मारती है तो कभी शादी के बीच में शादी से इनकार करके महानता का चोला ओढ़ लेती है....लोग दत्तो की महानता के कायल हो जाते हैं। क्यांे? क्यों एक स्त्री को महानता के तमाम लबादों मेें लदे हुए ही देखने की आदत है इस समाज को। ऑफिस भी संभालो, घर भी, बच्चे भी, पति भी, क्लब भी, मंदिर भी...सब। सादा सहज तनु ये सब करने से इनकार कर देती है तो उसे गलत साबित करने के लिए उसे फूहड़ बनाना जरूरी लगा फिल्मकार को कि कभी नशे में धुत, कभी तौलिए में घर के आंगन में बिठाने जैसी घटनाएं बुन दीं। दत्तो महान नहीं थी, दत्तो अब तक की ”कहानी घर घर की” भाभी जी का ही एडवांस वर्जन भर थी। तनु ने समाज की बनी बनाई मान्यताओं और स्त्री के तयशुदा खांचों में फिट होने से इनकार किया....तो उसे क्यों फिल्मकार को डार्क शेड में छुपाना पड़ा। क्योंकि फिल्मकार को समाज की सोच का ख्याल रखना था। जबकि तमाशा की दीपिका अपने उस प्रेमी की अंगूठी पहनने से इनकार कर देती है जिसके बिना वो एक पल नहीं जी पाती...क्यों? क्योंकि वो व्यक्ति रणवीर नहीं उसकी खुली हुई आत्मा से प्यार करती है। बिना आत्मा के देह का क्या अस्तित्व...यह बात समाज पर चोट करती है...हैप्पी एंडिग सिर्फ हीरो हीरोईन का मिल जाना नहीं...अपने आपको समझ लेना है...ऐसा ही नजर आया क्वीन में...कि जिसे वो प्रेम समझ के बिसूरती फिर रही थी वो तो प्रेम था ही नहीं...लेकिन इस बात को समझने में 3 घंटे लग गए...क्योंकि प्रेम को भी हम उसी तरह समझने के आदी हैं जिस तरह समाज तय करता है। चंद गुलाब के फूल, टेडी बियर, डेट, शादी, सेक्स, बच्चे और बस...”हां यही प्रेम है” से ”जाने कहां गये वो दिन” तक का सिलसिला...
कोई आरोपपत्र नहीं, युद्ध नहीं-
बहुत से लोग हैं आसपास जो किसी भी बात में स्त्री विमर्श तलाश लेते हैं, रच भी देते हैं स्त्री विमर्श की तमाम कहानियां कविताएं, आलेख, भाषण। जो संवदेना वो समझ सके हैं, जो उनकी रचनाओं से ध्वनित होता है वो जीवन जीते वक्त कहां गायब हो जाता है आखिर। इस बिना जिये सिर्फ उगल दिए गये विमर्शों के शोर ने अजीब सी उकताहट भर दी है लोगों में। स्त्रियों में भी, पुरुषों में। कोई नस चटखती मालूम होती है जब किसी अति संवेदनशील बात को लोग उकताकर खारिज कर देते हैं या उसका मजाक उड़ाते हैं यह कहकर कि ये लोग तो हमेशा स्त्री विमर्श का राग अलापते रहते हैं...
तो क्या जो लोग समझ रहे हैं कि वो समझ रहे हैं वो अपनी बात ठीक से समझा नहीं पा रहे हैं। या यह समझ पाना भी एक वहम है, या यह कोई चालाकी है...मालूम नहीं क्या है लेकिन जो भी है दुःखद है। दुःखद है सिनेमा के बलात्कार के दृश्यों में रस और आनंद ढूंढते लोग। बचपन के सेक्सुअल एब्यूज के बारे में बताती हुई आलिया को देखते हुए सीटियां बजाते हुए पीवीआर में बैठे दर्शक, बैंडिट क्वीन में आनंद तलाशती आंखें और 16 दिसंबर की खबरों को पढ़ते हुए कोई रस अनुभूत करते हुए बार-बार उन घटनाओं का विवरण करते लोग। वो क्या चीज होती है जो दर्द से फफककर रो पड़ने की बजाय या उफनकर छलक पड़ने की बजाय स्त्रियां भी कहने लगती हैं कि उसे रात में अकेले जाना ही नहीं चाहिए था....और घर के पुरुष अपने घर की औरतों के इस वक्तव्य पर गौरव महसूस करते है। हर बात पर स्त्री या पुरुष का राग छेड़े जाने का मसला नहीं, मसला यह है कि किस कदर हमारी रगों में दौड़ते खून के साथ एक पूरी साजिश, पूरी सत्ता, पूरी सोच भी दौड़ रही है। जिस तरह हमें अपनी सांस के आने-जाने का, रगों में दौड़ते खून का इल्म नहीं होता उसी तरह अपने व्यवहार अपनी सोच का भी इल्म नहीं होता...और एक रोज उकताकर कहने लगते हैं बस करो यह स्त्री पुरुष का राग। दरअसल यह राग...एक सुंदर जीवन की कल्पना है...कोई युद्ध नहीं। कि अपने भीतर सदियों से पड़ी जड़ताओं को टटोलने उन्हें तोड़ने उनसे आजाद होने की बात है...किसी का किसी के खिलाफ कोई आरोपपत्र नहीं...
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं-
यह हमारी मर्जी है कि हम अपने पति पर न्योछावर होते हैं, यह हमारी मर्जी है कि हम उनकी सत्ता मंे सुखी रहते हैं, यह हमारा सुख है कि हम उनके लिए भूखे प्यासे उपवास करते हैं, सब हमारी मर्जी है...ये चूड़ी, ये बिंदी, ये गहने, ये साज श्रृंगार...सब हमारी मर्जी है....भला इससे किसी के पेट में क्यों दर्द होता है. मेरा पति मुझे पीटता भी है तो क्या हुआ...प्यार भी तो करता है। मेरा उससे प्रेम और झगड़ा मेरा निजी मामला है. जब हम ”अपनी” ”इन मर्जियों” से जीते हैं तब तो किसी समाज का कोई नियम भी नहीं टूटता...फिर परेशानी किसे है...आईएएस, पीसीएस, सीईओ, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफसेर, आईपीएस, लेखिकाएं, फिल्मकार, अभिनेत्रियां, किसान, मजदूर, सारी औरतें इन अपनी मर्जियों के सफर पर मजे से चल रही हैं। समाज की सारी व्यवस्थाएं चाक-चौबंद हैं, बाजार की भी। सत्ताएं अपने-अपने ठिकानांे पर काबिज हैं बिना किसी खतरे के। कि एक रोज कोई स्त्री घूंघट में दम घुटने की शिकायत करती है, कोई स्त्री जेवरों से आजिज आकर उतार देती है, कोई स्त्री गर्भ धारण के फैसले अपने हाथ में ले लेती है, कोई स्त्री प्रेम की परीक्षा देने के लिए तमाम परंपरागत रिवाजों का पालन करने से इनकार कर देती है...और तब समाज में हलचल होने लगती है...खलबली मचने लगती है...क्यों भई, ये तो उनकी अपनी मर्जी का मामला था...आज मर्जी नहीं है...तो यह खलबली क्यों है आखिर...सोचा है कभी?
महानता का ताज और दुनियादारी-
सोचा है कभी क्या उन स्त्रियों ने कि जिस गर्व के साथ वो अपने सतीत्व और पारंपरिक होने के ताज को धारण किये बैठी हैं, उसका प्रचार कर रही हैं, उसका वैभव जी रही हैं वो एक बड़े तबके की त्रासदी है, जकड़न है, मजबूरी है। वो जिस तरह सोच रही हैं उन्हें इसी तरह सोचने के ईनाम में उनका महानता का ताज समाज से मिला है...वो अपनी मर्जियों से अनजान हैं और इस बात का उन्हें पता भी नहीं. महानता का तमगा, दैवीयता, प्रशंसाएं ये सब दुनियादारी के प्रपंच हैं क्या हम समझ पाते हैं। बहुत अच्छी स्त्री के मानक तय करके उसे लगातार तयशुदा दायरों में धकेलता जाना, तुम बहुत अच्छा पोछा लगाती हो, तुम गली में बहुत अच्छी झाड़ू लगाती हो, तुम बहुत सुंदर हो, तुम बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती हो, तुम एक अच्छे पति हो वक्त पर घर आते हो, वीकेंड को फैमिली को आउटिंग कराते हो, अच्छे बेटे हो तुम कि मां-बाप का ख्याल रखते हो, तीर्थ कराते हो....और इस तरह ये बहुत अच्छे होने के मानकों में समूचा व्यक्तित्व धंसता चला जाता है, बहुत अच्छे होने की कोशिश में अपने आप तक कभी पहुंच ही नहीं पाता। अंत में यह बहुत अच्छा होना भी छूट ही जाता है...एक रोज ऑफिस से देर हो जाने पर, एक रोज साफ पोछा न लगाने पर, एक रोज ठीक से सज संवर कर न रहने पर, एक रोज दाल में नमक तेज हो जाने पर, एक रोज मां-बाप को किसी काम के लिए इनकार करने पर अच्छे के सिंहासन से धकेल दिया जाता है। असंतोष ही है चारों ओर और एक रेस भी उस बहुत अच्छे होने के सिंहासन की ओर दौड़ने की। स्त्रियां इस दौड़ में ब्यूटीपार्लर की ओर भागती हैं, ज्वेलरी शॉप की ओर, नये फैशन के कपड़ों की ओर, पुरुष नये मॉडल की गाडि़यों की ओर, और ज्यादा कमाने की ओर....इस दौड़ से बाहर कोई अस्तित्व ही न हो जैसे। जो लोग खुद को इस दौड़ से बाहर निकाल लेते हैं वो समाज की आंख की किरकिरी बन जाते हैं।
टुकड़ों में दिखता है टुकड़ा-टुकड़ा विमर्श-
मैं तो भई इन स्त्री विमर्श वालों से दूर ही रहती हूं। इन्हें हर बात में पुरुषों के खिलाफ मोर्चा निकालने की हड़बड़ी रहती है...ऐसा कहने वाली स्त्रियों से कम मिलना नहीं होता। ऐसा कहते ही ये पावन स्त्रियां पुरुषों की प्रियता तलाशती हैं कि उन्हें विरोधी खेमे का समझ अपने से अलग न कर दिया जाए कहीं। दलितों को अपना दलित होना छुपाते भी देखा ही होगा हमने कि वो आरक्षण लेकर आये हैं इस बात का दंश समाज उन्हें रह-रहकर मारता ही रहता है। उनसे हुई एक गलती उनकी पूरे जाति पर, उनके चयन की प्रक्रिया पर सवालिया निशान भी होती है और मजाक का हिस्सा भी। एक दलित दूसरे दलित का अपमान होते देखकर भी चुप रहता है कि कहीं उसकी पहचान न सामने आ जाए, वो समाज की विद्रूपताओं का सामना करने की हिम्मत कहां से लाए। शक्तियों से वंचित इस समाज के सारे लोग चाहे स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो हाशिए पर हैं। उन्हें हाशिए पर ही पड़े रखने की कवायद जारी है जिसमें उन्हें ही मोहरा भी बनाया जा रहा है।
”भई, औरतों का मामला है हम बीच में नहीं बोलते...” कहकर मूंछों के नीचे मुस्कुराकर निकल जाने वाले घर की सत्ता के मालिक जानते हैं कि इन स्त्रियों के आपस में जूझते रहने पर ही उनका होना कायम है। क्योंकि ये वही लोग हैं जो एक स्त्री के प्रधान बनते ही उसकी साारी शक्तियां अपने हाथ में लेना नहीं भूलते। टुकड़ों में स्त्री या दलित या सामाजिक विमर्शों को देखने की दिक्कत यही है कि इसके तहत एक को दूसरे के सामने विरोधी खेमा बनाकर परोस दिया जाता है जो कि है नहीं, विरोध तो चेतना का जड़ता से है...लेकिन वो दिखता नहीं है। यही खेल सबसे बड़ा है। एक स्त्री दूसरी स्त्री के विरोध में नहीं होती एक ज्यादा शक्तिसंपन्न व्यक्ति अपने से कम शक्तिसंपन्न व्यक्ति पर रौब गांठ रहा होता है।
16 बरस बाद घर-
सोनू लोगों के घरों में झाडू पोछा का काम करती है। एक रोज सुबह खुश-खुश आई और बोली, दीदी आज मम्मी का फोन आया है। घर पे बुलाया है खाने के लिए। 16 बरस से सोनू एक ही शहर में रहकर अपनी मां-बाप, भाई से नहीं मिली थी। उसकी आंखें छलक रही थीं। नहीं मिली थी क्योंकि 16 बरस पहले उसने अपनी पसंद के लड़के से शादी कर ली थी। पिता और भाई ने उसे मरा हुआ घोषित कर दिया और मां के पास उनके साथ होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। उस घटना के कई साल बाद उस घर में एक बहू आई यानी सोनू की भाभी। उसने धीरे-धीरे बात करते हुए अपने पति को अपनी ननद के प्रति घृणा से बाहर निकाला। आाखिर घर की बहू ने घर की बेटी को घर से जोड़ने की कोशिश में सफलता पाई। कहां है वो इतिहास जो जुमलों में स्त्रियों को दुश्मन करार देता है स्त्रियों का। ऐसे उदाहरणों की संख्या बढ़ रही है और जाहिर है समाज की चूलें हिल रही हैं....।
मां को बेटा चाहिए-
कन्या भ्रूण हत्याओं का ठीकरा भी स्त्रियों के ही सर है। क्योंकि स्त्रियों को ही बेटा चाहिए होता है। क्यों चाहिए होता है स़्त्री को बेटा, क्यों वो अपनी ही कोख में अपनी बेटी के मार दिए जाने की पीड़ा बयान तक नहीं कर सकती। क्यों उसने समझ लिया है कि बेटियों को जन्म देकर वो अपना बचा-खुचा अस्तित्व भी खो देंगी। उसका सम्मान, उसका गौरव, उसके अधिकार सब एक पुत्र जन्म पर आश्रित हैं इसलिए वो बेटे की कामना करती है। असल में यह कामना तो पुरुष सत्ता की ही है जिसे आरोपित भी स्त्री पर किया गया है और जिसका दंश भी स्त्री को ही सहना पड़ता है। यहां से अहंकार का राज शुरू होता है। एक ही घर की तमाम बहुओं में से पुत्र को जन्म देने वाली बहू का मान बढ़ता जाता है और बेटियों की मांओं के हिस्से में उपेक्षा बढ़ती जाती है। जीवन भर स्त्री होने की उपेक्षा का दंश सहने के लिए पुत्री को जन्म देने की बजाय वे पुत्र जन्म देना चाहती हैं इसमें स्त्री को स्त्री का दुश्मन समझने वाली बात कहां से आ गई कोई समझाए तो।
आसान नहीं बेटियों की मां होना-
यह काला समाज है। स्त्री के लिए न कोई अधिकार हैं यहां, न सुरक्षा, न जीने लायक जीवन। जिस समाज में एक बरस की बेटी घर के सदस्यों की हवस की शिकार होती हो वहां मां का कलेजा उन्हें जन्म देते हुए क्यों नहीं कचोट उठेगा। एक ही वक्त पर दो दोस्तों ने अपने-अपने बच्चों को जन्म दिया। आज दोनों बच्चे 12 बरस के हैं। जहां बेटी की मां की नींद हराम रहती है सुरक्षा को लेकर वहीं बेटे की मां चैन से रहती है यह कहते हुए कि ”अच्छा हुआ लड़का है मेरा वरना मेरी भी नींद उड़ जाती।” यहां से आती हैं बेटों की ख्वाहिशें और बेटियों की उपेक्षा। और देखिए न यह इल्जाम भी उसी मां के सर पर है जो इस दंश को सह रही हैं वो तो जानती ही नहीं कि कब उन्हें उनके ही खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। कितने चुपचाप सदियों से हमसे हमारा होना छीना जाता रहा है और हम बेखबर हैं।
उड़ो न अपनी भरपूर उड़ान-
समय के साथ बदले स्त्री के साथ संवाद करने के ढंग भी। बच्चियों की परवरिश में उनकी थाली की रोटी और कपड़ों का भेदभाव स्कूल तक पहुंचा। जहां पहले समस्या इस रूप में थी कि लड़कियों को पढ़ने की क्या जरूरत है अब इसका रूप उन्हें सरकारी स्कूलों में पढ़ लेने की आजादी मिलने तक बदल गया है, (संभ्रांत परिवारों की कान्वेंटी लड़कियों के अलावा जो संसार है उसके बरक्स देखा जाए इस बात को)। लड़कियों का आर्थिकी में सहयोग बाजारवाद से लड़ने में सहयोग करने लगा था सो, गृहकार्य में दक्ष, सुशील, गोरी कन्या के साथ नौकरीपेशा भी जुड़ गया। लेकिन रोजगार करने की आजादी उन्हें यह कहकर थमाई गई कि देखो, टीचिंग या नर्सिंग कर लो आराम रहेगा। नर्सिंग तो खैर उनके सेवाभाव के चलते चिपका दिया गया होगा उनके पीछे।
मीडिया में, सेना में, मेडिकल में, बैंक में, बिजनेस में जाने वाली लड़कियों की बाहर की दुनिया तो बदली लेकिन घरेलू संघर्ष नहीं बदले। लेखन में उतरी महिलाओं की प्रशंसा के साथ ही ऐसा लिखो, ऐसा न लिखो की ताकीदें भी उभरने लगती हैं। उन पर आरोपों के शिकंजे भी कसे जाने लगते हैं, खेमेबंदियों का शिकार भी बनाया जाने लगा। इतने सुभीते से कि शिकार को खुद भी पता न चले और वो अपना शिकार हो जाने का आनंद अनुभूत करने लगे। शर्त यह है कि नौकरी और घर संभालते हुए आह नहीं निकलनी चाहिए। आह निकली या कोई और दुर्घटना घटी तो ये समाज तंज की तलवारें लेकर खड़ा मिलेगा, और निकलो घर से बाहर...और करो नौकरी...
और अंत में बाजार-
इस सारे पेचोखम में बाजार भी, मीडिया भी सब जाकर खड़े हो गये पितृसत्ता के साथ। श्रंृगार, अच्छी होने की छवि, ममता, वात्सल्य, विनम्रता, त्योहार, परंपराओं को स्त्री के साथ मिक्स एंड मैच करके चमचमाते बाजार में तब्दील कर दिया। दृश्यम फिल्म का यह डॉयलाग काबिले गौर है कि चीजें जो दिखती हैं उनका असर बहुत गहरा होता है...बाजार ने दिखाया स्त्री का सौन्दर्य, ग्लैमर कितना महत्वपूर्ण है। धारावाहिकों ने, फिल्मों ने एक आदर्श स्त्री की छवि परोसी जो समर्पण की देवी की हैे। एक ऐसी स्त्री जो सुपरवुमन है। जो घर से बाहर तक, क्लब से बिस्तर तक सब हंसते हुए संभाल लेती है...जो सबको समझ लेती है...सबके काम फुर्ती से निपटा लेती है. जो भले ही नाइटक्लब में जाती हो लेकिन मंगलसूत्र और करवाचौथ से विमुख नहीं होती।
इस समाज रूपी रेलगाड़ी के हर डिब्बे में वही बिक रहा है जिसकी इजाजत समाज ने दी है। यात्रियों को आजादी तो पूरी है लेकिन अपने-अपने डिब्बों के भीतर भर। आसमान देखा तो जा सकता है लेकिन पूरा नहीं। और इस बात का इल्म भी नहीं होने देना है कि हमारी जिंदगी से हम ही मिसिंग हैं...इसीलिए कोई भी भंसाली, कोई कपूर, कुछ भी परोस के चला जाता है और हम बजाय सवाल करने के अश अश करके फिदा हो जाते हैं....ये सिलसिला रुके इसके लिए पहले इस सिलसिले को समझना होगा...

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " भगवान खो गए - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !