Wednesday, April 20, 2016

हिंदीवालों को इंस्टेंट राइटिंग की कला सीखनी पड़ेगी- स्वयं प्रकाश




क्या लेखक राजनीति से बचा हुआ व्यक्ति है? उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धतायें पार्टीगत उसके लेखन में रिफलेक्ट करती है क्या?
नहीं। राजनीति से बचा हुआ कोई नहीं है. दलगत राजनीति यदि रचना में प्रतिबिंबित होगी तो वह साहित्यिक रचना नहीं . प्रचार एपोस्टर या पेम्फलेट होगा. अपने स्थान पर उसका भी महत्त्व है लेकिन हम यहाँ साहित्य की बात कर रहे हैं. साहित्य में दो प्रकार की राजनीति प्रतिबिंबित हो सकती है. एक  जनपक्षीय और दो  जनविरोधी. ज़ाहिर है यह वर्ग राजनीति की समझ है और इसे रचना में प्रकट नहीं तो प्रच्छन्न रूप में तो प्रतिबिंबित होना ही चाहिए।

कई बार लेखक की व्यक्तिगत जीवन की राजनैतिक प्रतिबद्धता दूसरी होती है और लेखकीय जीवन की दूसरी। मैं निजी तौर पर ऐसे लेखकों को जानती हूं जो निजी जीवन में दूसरे खांचे में खड़े होते हैं और लेखन में दूसरे। आप इस दोहराव को किस तरह देखते हैं?
हाँ , ऐसा होता है. कबीर राम के भक्त थे, एक स्थान पर तो उन्होंने खुद को राम का कुत्ता भी कहा लेकिन समग्रतः उनके विचार और रचना अग्रगामी और क्रांतिकारी है. हजारीबाबू शास्त्र.ज्योतिष.कर्मकांड इत्यादि में विश्वास करते थे लेकिन उनका साहित्य परम्परा का युगानुकूल भाष्य करता है जो कोई पोंगापंथी ब्राम्हण नहीं कर सकता था. टॉलस्टॉय ईसाई धर्म में अटूट निष्ठां रखते थे फिर भी लेनिन ने उन्हें रूसी क्रांति का दर्पण कहा . गोर्की को नहीं। बाल्ज़ाक सामंतवाद के समर्थक थेए फिर भी मार्क्स ने उनकी प्रशंसा कीण् रचना लेखक के हाथ से निकलने के बाद स्वायत्त हो जाती है और उसका अपना चरित्र होता है . जो मूल्यांकन का आधार बनता है.

प्रगतिशील लेखक संघ या ऐसे दूसरे संगठनों को किस तरह देखते हैं आप?
प्रगतिशील आंदोलन, अंजुमने तरक्कीपसंद मुसफ़्फ़ीन और इप्टा .तीनों एक ही संगठन के अनुषंग रहे जो आधुनिक भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन रहा है दरअसल भक्तिकाल के बाद इतना बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन हमारे देश में नहीं हुआ. आप किसी भी महान लेखक या कलाकार का नाम लीजिये  और आप पाएंगी कि वह प्रगतिशील आंदोलन का एक हिस्सेदार रहा है. यह आंदोलन भारत के सांस्कृतिक जगत की मुख्य धारा रहा है और इसका अवदान इतना बड़ा है कि उसे ठीक से मापना भी संभव नहीं है. आज भी कोई पूंजीवादी, यथास्थितिवादी या दक्षिणपंथी सांस्कृतिक आंदोलन ऐसा नहीं जो बगैर प्रगतिशीलता का नकाब ओढ़े इसके सामने खड़ा हो जाये। उतार.चढाव तो हर आंदोलन के जीवन में आते ही रहते हैं लेकिन इससे एक बेहतर दुनिया का सपना खरिज नहीं हो सकता।

आपने एक्टिविस्ट लेखन का विरोध किया था एक बार?
यह बड़ी मजेदार बात है कि हमारे देश में एक्टिविस्ट तो सैंकड़ों की संख्या में होंगे लेकिन एक्टिविस्ट के लिए आज तक हिंदी में कोई शब्द नहीं बन सका है. कार्यकर्त्ता कहने से एक्टिविस्ट का नहीं, वर्कर का बोध होता है. एक्टिविस्ट यानी वह जिसने अपना सारा जीवन एक्टिविटी के लिए समर्पित कर दिया होएयानी पूरी तरह समर्पित कार्यकर्ता, यानी पूरावक्ती,  सवैतनिक या अवैतनिक , कार्यकर्ता ।

मुझे हैरानी होती है कि क्रिया को विचार से पूरी तरह कैसे विछिन्न किया जा सकता है. कर दिया गया है. इस विचारहीन क्रिया से अक्सर सवैतनिक, से एक्टिविस्ट शब्द निकला है जो सुनने में तो बड़ा भला लगता है लेकिन जिसकी हैसियत मालिक के कारकून या चाकर से ज़्यादा कुछ नहीं होती। आप किसी भी एक्टिविस्ट से बात करके देखिये किसी भी विषय पर आधे घंटे में उसका वैचारिक झोल आपको दिखने लगेगा। आपको पता चलेगा कि उसे समग्र और सघन विचार के लिए न सिर्फ प्रोत्साहित नहीं किया गया है अपितु निरुत्साहित किया गया है  इसलिए उसकी मानसिकता एकांगी विचार को ही पर्याप्त मानने के लिए अनुकूलित की जा चुकी है.

यही एक्टिविस्ट दो.चार साल फील्ड में काम करने के बाद खुद अपना एनजीओ खोल लेता है .पैसा देनेवालों की कमी नहीं है. और फिर यह भी अपने स्तर पर विचारहीन एक्टिविस्टों की फ़ौज पैदा करता है.

यह सब इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने गाँव जाना बंद कर दिया है. हम सोच भी नहीं सकते कि यह कितना बड़ा संजाल है जिसने सरकार को अपने शिकंजे में कस रखा है. सरकार का अपनी नौकरशाही पर से विश्वास पूरी तरह उठ चुका है और वह अपनी हर योजना के कार्यान्वयन के लिए इन्ही एक्टिविस्टों पर निर्भर हो गयी है इस तरह देश में एक बुद्धिहीन माहौल पसर रहा है जिसे साम्राज्यवाद किसी भी तरह बहका सकता है.

क्या आपको लगता है कि इंस्टेंट राइटिंग का चलन बढ़ा हैघ्अगर हां तो इसे किस रूप में लेते हैं आप?
हम एक परम गतिशील समय में रह रहे हैं. इसलिए यदि तात्कालिक घटनाओं की प्रतिक्रिया हमें तुरंत मिल जाती है तो हमें इसका अभ्यस्त होना पड़ेगा। उलटे मुझे तो झूंझल इस बात पर आती है कि हम लोग अब भी १८५७ पर लिख रहे हैं और १९५७ की तरह सोच रहे हैं! हिंदी का नब्बे प्रतिशत शोध उन मूर्धन्यों के बारे में है जो मर चुके हैं और इतिहास में जिनकी भूमिका हमेशा के लिए समाप्त हो चुकी है । यदि तात्कालिक मसलों पर हिन्दीवाले चुप रहे तो अंग्रेजी वाले बोलेंगे और हिन्दीवाले उन्हें ही सुनेंगे। पिछले वर्षों में स्कूल.कॉलेज.विश्वविद्यालय.प्रकाशक.साक्षर.शिक्षित.पाठक.श्रोता सबकी संख्या बढ़ी है। ज्ञान की प्यास इतनी बढ़ी है कि हिंदीवालों को इंस्टेंट राइटिंग की कला सीखनी पड़ेगी . तभी वे ओपीनियन मेकर बन पाएंगे।

वरिष्ठ हिंदी लेखक जिनसे हमने पढना सीखा, जिनके लिखे से रौशनी मिली, समझ मिली उन्हें जब उदास, तनहा देखती हूँ तो अच्छा नहीं लगता. क्यों हर लेखक को हमेशा यही लगता रहता है की उसके साथ न्याय नहीं हुआ. आर्थिक पछ की बात अगर छोड़ भी दें तो भी यह पीड़ा हर लेखक की नज़र आती है. ये न्याय होना क्या है? पुरुस्कार, पाठक या आर्थिक मजबूती ये सवाल उस सन्दर्भ में भी है जहा आप लेखन को करियर के रूप में खड़ा होते हुए देखने की और उसे संवेदना से जुड़ने की बात भी कहते हैं. तो इस कंट्रास्ट को जरा खोलियेगा तो पाठकों को बेहतर समझ मिलेगी.
हमारे समाज में लेखक की छवि आज भी बेचारे वाली है. फिल्मों में भी लेखक की छवि ऐसी ही थी जिसे सलीम.जावेद ने पूरी तरह बदल दिया। अब हिंदी साहित्य में भी कोई सलीम.जावेद आएं तो शायद यह पेशा कुछ इज्जतदार बने और चिकित्सा.अभियांत्रिकी.फ़ौज.किसानी.कारीगरी आदि समाज के विभिन्न वर्गों से लेखक आएं ! फिलहाल तो हिंदी साहित्य मास्टर साहब लोगों से ही भरा पड़ा है !

लेखक अपने पाठक के लिए लिखता है या संपादक के लिए या अपने लिए? और उसे अपने लेखन से क्या चाहिए होता है? क्या चाहना चाहिए?
लेखक क्या चाहता है ? वह क्यों लिखता है ? लेखन की पहली मांग है सम्प्रेषण। मैं जो कह रहा हूँ वह आप सुन रहे हैं या नहीं यदि आप सुन ही नहीं रहे हैं तो मेरा बोलना निरर्थक है. लेखन की पहली माग है सम्प्रेषण और दूसरी मांग है सहचिन्तन और तीसरी मांग है मूल्यांकन चौथी मांग है प्रतिसाद या पुरस्कार. चाहे वह जिस रूप में हो. साहित्यकारों के साथ दिक्कत यह हो रही है कि पाठकों के साथ अंतर्क्रिया के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. पहले आपकी एक कहानी कहीं छपती तो उस पर आपको पाठकों के ढेरों पत्र मिलते थे एक हानी अच्छी हुई तो उस पर महीनों चर्चा होती थी ए चर्चा गोष्ठियां भी हो जाती थी दिनमान, सारिका और हंस में पाठकीय प्रतिक्रिया के स्तम्भ अत्यंत जीवंत और लोकप्रिय होते थे, राहुल बारपुते के संपादन में निकलने वाले अख़बार 'नयी दुनिया' में आधा पृष्ठ पाठकीय प्रतिक्रियाओं का होता था जिसे पाठक सबसे पहले पढ़ते थे. टीवी के आने के बाद अंतर्क्रिया के रास्ते बंद होने लगे और आस्वाद एकतरफा होने लगा. मैं जब टीवी पर हालातों एजज़्बातों जैसे गलत भाषिक प्रयोग देखता हूँ या किसी शेर को .जिसे आजकल शायरी कहा जाता है  गलत और भ्रष्ट तरीके से उद्धृत होते देखता हूँ तो मैं इसकी किसी से शिकायत करना चाहता हूँ लेकिन किससे करूँ . अच्छा साहित्य पाना है तो पाठक को भी अपनी प्रतिक्रिया देनी पड़ेगी .फोन से या एसएमएस से ही सही.

बाकी पुरस्कार वगैरह तो कम महत्वपूर्ण बात है. पुरस्कार से तो इतना भर होता है कि लेखक कुछ देर के लिए चर्चा में आ जाता है और कुछ देर के लिए उसे कुछ नए पाठक मिल जाते हैं.

हिंदी का लेखक अपनी भाषा को लेकर उतना आत्मविश्वासी क्यों नहीं होता जितना अंग्रेजी का लेखक? लेखक का अपने लेखन के प्रति आत्ममुग्ध होना या मह्त्वाकांची होना किस रूप में देखते हैं आप?
भाषिक विविधता, सौष्ठव और विश्वास जितना हिंदी के लेखकों में है उतना अंग्रेजी के लेखकों में नहीं। अंग्रेजी में लिखनेवाले कई भारतीय लेखकों की अंग्रेजी पर तो अँगरेज़ हँसते होंगे ! मेरी समझ से हिंदी के लेखकों का अनुभव संसार बहुत सीमित है इसलिए एक हद के बाद भाषा दम तोड़ देती है. हिंदी वैसे भी एक बनती हुई भाषा है. बाकी हमारी क्षेत्रीय भाषाएँ जिनके पास समुद्र है , युद्ध है,  जोखिम है , काफी समृद्ध हैं।

महत्वाकांक्षी होने में कोई हर्ज नहीं है,  आत्ममुग्ध किसी को नहीं होना चाहिए। आप ठोस उदहारण देतीं तो मैं और बेहतर समझ पाता।

क्या आपको लगता है कि नए लेखक काफी जल्दी में हैं? अगर ऐसा है तो यह जल्दबाजी उन्हें कहाँ ले जायेगी?
लेखक ही क्यों, चित्रकार, नर्तक, गायक, खिलाडी, अभिनेता, पत्रकार सभी जल्दी में हैं. चार.छह कहानियां लिखते न लिखते कहानीकार की किताब छप जाती है। किताब के फ्लेप पर उसे सदी का महानतम लेखक घोषित कर दिया जाता है. साल दो साल में उसे दो-चार बड़े पुरस्कार मिल जाते हैं जो लोगों ने अपने दिवंगत रिश्तेदारों की याद में चलाये होते हैं. सोशल मीडिया के माध्यम से ये अपने कुछ अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी बना लेते हैं और इनका ये महान उपक्रम दस-बारह साल में ख़त्म हो जाता है. दुसरे, तीसरे साल तो ये गुरु बन जाते हैं और दूसरों को सिखाने लगते हैं कि कैसे लिखा जाये ! संस्थाएं इनको बुलाकर सम्मानित करने लगती हैं.

यहाँ मैं देखता हूँ कि कोई आईआईएम में चयनित हो गया या आईएएस परीक्षा में पास हो गया या कोई छोटी-मोटी विदेशी स्कॉलरशिप पा गया तो स्कूलों में उसे भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगता है और वह बच्चों को सफलता के गुर बताने लगता है . इसमें न उसे संकोच होता है न बुलाने वालों को कोई शर्म आती है !जैसे टीवी के अत्यंत छोटे.मोटे रियलिटी शो में आते ही बच्चा बोलने लगता है कि आज मैं जिस मुकाम पर पहुंचा हूँ उसके लिए माँ, बाप,  भाई,  भाभी , साली, जीजा को इसका श्रेय देना चाहता हूँ ! अबे साले !ऐसा क्या हासिल कर लिया है तूने !

मैं सोचता हूँ बड़ा लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में असफल हो जाना गुनाह नहीं है, लक्ष्य छोटा रखना गुनाह है क्योंकि इस तरह हम अपनी अदेखी संभावनाओं की भ्रूणहत्या कर रहे होते हैं. आदमी को क्षुद्रताओं से बचना चाहिए। लेकिन क्या कीजिये एक शेर याद करने के अलावा कि

किसलिए फिर कीजिये गुमगश्ता जन्नत की तलाश !
जबकि मिटटी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग !!

 हिंदी में ओ हेनरी, चेखव, प्रेमचंद वगैरह की तरह की सादा सी कहानियां जो दिल को छू लेती थीं नज़र क्यों नहीं आतीं, जो रोजमर्रा के जीवन के छोटे-छोटे लम्हों से मिलकर बनती थीं वो अब कम नजर क्यों आती हैं? उस तरह की कहानियों के लिए क्यों बार-बार प्रेमचंद ही याद आते हैं? आजकल कहानियों में मुद्दे जबरन ठुंसा दिए गए से मालूम होते हैं? क्या हम गद्य लेखन में जटिलता को जन्म तो नहीं दे रहे?
वैसी कहानियां .वो प्यारी कहानियां मैं भी मिस करता हूँ आपकी ही तरह लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि अब वैसी कहानियां कभी नहीं लिखी जाएँगी। हमारा जीवन बहुत जटिल हो गया है छोटी.सी चीज़ पर विचार करो . मसलन मौसम या गरीबी या प्यार  तो वह सारी दुनिया के मुद्दों से जुड़ जाती है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ, वैश्याओं के जीवन पर लिखी गयी मंटो की किसी भी कहानी के समक्ष अनिल यादव की कहानी 'नगरवधूएं अखबार नहीं पढ़तीं' को रखकर देखिये। अनिल यादव की कहानी के केंद्र में वैश्याओं की समस्या है लेकिन इसके तार पुलिस.राजनीति .पत्रकारिता .भू माफिया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक से जुड़े हुए दिखाई देते हैं ! अब जो दिखाई दे रहा है उसे अनदेखा भी कैसे किया जाये ! इसलिए आज की कहानी क्लासिक कहानी की तरह भावोत्तेजन नहीं, विचारोत्तेजन करती है, वह आपको रुलाती या हंसाती नहीं, सोचने पर मजबूर करती है.

हाँ, इधर ऐसा भी देखने में आ रहा है कि कई रचनाकार अपनी रचना को जबरदस्ती जटिल और गाँठ.गुठ्ठल बनाने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें बेज़रूरत सूचनाएँ ठूंस रहे हैं या उसका एपीसोडीकरण कर रहे हैं और उसमें विदेशी लेखकों के उद्धरण घुसा रहे हैं, अपने ज्ञान से पाठक को आतंकित करने की कोशिश या सीधी .सादी सी बात को जटिल रूप देकर वाहवाही लूटने की चेष्टा निंदनीय है.

 साहित्यिक पत्रिकाओंए उनकी भूमिकाए अख़बार व पत्रिकाओं के साहित्य पन्नों के बारे मेंए साहित्य विशेषांकों के बारे में कुछ कहिये.
साहित्यिक पत्रिकाएं लेखकों के हाउस जर्नल की तरह हैं. उनमें अधिकतर सामग्री लेखकों के पढ़ने के लिए ही छापी जाती है. यदि आपने इंजीनियर्स या डॉक्टर्स या बेंकर्स की हाउस जर्नल देखी हैं तो आप इनका महत्त्व तुरंत समझ जाएँगी।
अख़बारों के पृष्ठों का बहुत महत्त्व है. लाखों की संख्या में ये पृष्ठ उन लोगों के हाथों में जाते हैं और पढ़े जाते हैं जो साहित्य के प्रशिक्षित पाठक नहीं हैं, जनपक्षीय लेखकों को इन्हें ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए और जनशिक्षणएजनजागृति और सूचना संचार के लिए इनका नियमित उपयोग करना चाहिए। मैं पिछले चालीस साल से बराबर इनका उपयोग कर रहा हूँ, हमें याद रखना चाहिए कि सूचित समाज ही प्रश्न पूछने वाला समाज होता है और प्रश्न पूछने वाला समाज ही परिवर्तनकारी समाज बनता है.

और साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक न होते तो कई महान लेखकों की सौवीं जयंतियाँ अनदेखी ही चली जातीं।

आपको लिखने के लिए सबसे ज्यादा क्या प्रेरित करता है, इसे मैं कौन जानबूझकर नहीं कह रही. आप जवाब से सवाल को बदल लेने के लिए स्वतंत्र हैं.
अक्सर तो ऐसा होता है कि जब भी मुझे कहीं साधारणता में असाधारणता दिखाई देती है. मैं उसे दर्ज करने और दोस्तों के साथ बाँटने को उतावला हो जाता हूँ. मैं  ऐसा मानता हूँ कि मनुष्य ईश्वर का सबसे सुन्दर स्वप्न है और ईश्वर मनुष्य बनने को बार.बार तरसता है, मैं यह भी मानता हूँ कि यदि स्वर्ग कहीं होगा भी तो वह हमारी धरती से ज़्यादा सुन्दर तो नहीं होगा। इसलिए जो भी चीज़ धरती की सुंदरता में इज़ाफ़ा करती है एमैं ख़ुशी.ख़ुशी और जिंदगी भर उसका गुणगान करूंगा।

 क्या लेखकीय अवरोधए रायटर्स ब्लॉक कुछ होता है?
शायद होता हो ! पता नहीं। मेरे साथ तो कभी नहीं हुआ.

आप काफी पढ़े जाने वाले लेखक हैं तो आपको कैसा लगता है अपने पाठकों का साथ, दूसरी चीज़ों के मुकाबले, मसलन पुरस्कार, प्रशंसा?
मुझे सौभाग्य से पाठकों का बहुत प्यार मिला है. प्रशंसा शुरू-शुरू में बहुत उत्तेजित करती थी . फिर उसका स्थान वैचारिक भागीदारी की चाह ने ले लिया। बहस करते हुए लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं . बशर्ते वे कुतर्क न कर रहे हों. पुरस्कारों को मैंने कभी ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया . हालाँकि पुरस्कार लेना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगा. खासकर पुरस्कार की राशि के कारण.

जितनी तेजी से हिंदी में कहानी या कविता में पहलकदमी बढ़ी है लेखकों की उतनी तेजी से आलोचना में नहीं, युवा आलोचकों में इक्का दुक्का नाम ही नज़र आते हैं. इसकी क्या वजह लगती है आपको. दुसरे जो समीछायें  प्रकाशित होती हैं वो लगभग प्रशस्ति गान सी हो रही हैं,

क्या लेखक में आलोचना को सुनने का धीरज कम हो रहा है?
यह सच है कि हमारे समाज में सहिष्णुता निरंतर कम हुई है. गनीमत है अभी लिखने.बोलने की आज़ादी है. पर इस पर लाठी चलते देर नहीं लगेगी। लोगों के पास टेलीफोन आने लगे हैं कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया और वैसा कैसे लिख दिया। ओम थानवी ने अपनी फेसबुक पर कहा था कि टीवी चर्चाओं में किसको बुलाया जाये किसको नहीं इसकी सूचियाँ बन गयी हैं.

समीक्षा का मेरा बहुत थोड़ा.सा अनुभव यह है कि आप सदाशयता से कोई बात कहो तो भी यदि वह अनुकूल नहीं है तो लेखक को अच्छी नहीं लगती। वे सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं और इसलिए समीक्षा की हैसियत विज्ञापन बराबर ही रह गयी है. व्यक्तिगत रूप से मुझे वह समीक्षा अच्छी लगती है जिसमें समीक्षक ने अपनी मौलिक सूझबूझ से रचना में से कोई ऐसी चीज निकालकर दिखाई हो जो पहले मुझे नज़र नहीं आ रही थी और ऐसा करनेवालों में नौजवान समीक्षकों की संख्या कम नहीं है. दुर्भाग्य से हिंदी साहित्य में समीक्षक को तब तक ध्यान देने योग्य नहीं माना जाता जब तक वह किसी या कुछ दिवंगत मूर्धन्यों पर कोई मोटा पुथन्ना न लिख दे!

आप फिल्मों से भी जुड़े रहे हैं. कुछ अनुभव साझा करिए?
मैंने कुल तीन फिल्मों में सहायक निर्देशक के रूप में काम किया जिनमें से एक ही पूरी हो पायी. लेकिन वह भी रिलीज़ नहीं हुई. चौथी दस्तक जो प्रसिद्ध लेखक और मेरे गुरु राजेन्द्रसिंह बेदी की फिल्म थी, पूरी भी हुई , चली भी और उसे राष्ष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। उसमें भी कुछ दिन मैंने सहायक निर्देशक के रूप में काम किया था.

फिल्म इंडस्ट्री के अपने अनुभवों को मैं अलग से लिख रहा हूँ

बच्चो के लिए लिखना क्योंकर चुना आपने? हालाँकि मैं खुद 'चकमक' नियम से पढ़ती हूँ अपनी बेटी के साथ और बहुत मजा आता है. भारत में बाल साहित्य को काफी उपेछा मिली है. बाल मनोविज्ञान से लोग कोसों दूर हैं. एक समूची पीढ़ी अपने होश सँभालते ही उपेछित होती है. दादा दादी की कहानियों का वक़्त विदा हो रहा है. गांव  में भी अलाव के किनारे सुलगते कीस्से गुम हो रहे हैं, सब रिमोट की हद में जा रहा है, ऐसे में लेखक या साहित्य की भूमिकाओं को किस तरह देखते हैं आप?
आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर छिपा है. इतना ही कह सकता हूँ कि बच्चों के लिए लिखने में मुझे बहुत सर खुजाना पड़ा है और अपनी क्षमताओं को एक नयी चुनौती के सामने रखना पड़ा है. मेरी समझ से हर लेखक को चाहिए कि वह बच्चों के लिए लिखने की परीक्षा में स्वयं को डाले। इससे उसे बहुत फायदा मिलेगा। जब मैं 'चकमक' का संपादक था, मैंने हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को 'चकमक' से जोड़ने की कोशिश की. उन्होंने मेरे अनुरोध पर लिखा भी लेकिन अनेक बार ऐसा भी हुआ कि वह हमें बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं लगाण् वहां मेरी यह गलतफहमी भी दूर हुई कि क्षेत्रीय भाषाओँ यथा बांग्ला एमराठी आदि में बच्चों के लिए बहुत अच्छा काम हो रहा है।

हाँ, पाकिस्तान में लिखे जा रहे बाल साहित्य में ज़रूर एक नयी पहलकदमी और कल्पनाशीलता दिखाई दी.


2 comments:

अखिलेश्वर पांडेय said...

स्वयं प्रकाश का आला दरजे का इंटरव्यू है यह. जिज्ञासा भरे मगर जरूरी प्रश्न और उसके सहज जवाब. तीन बार पढ़ा मैंने इसे. बधाई प्रतिभा जी एक उम्दा साक्षात्कार के लिए.

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21 - 04 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2319 में दिया जाएगा
धन्यवाद