Tuesday, April 5, 2016

लिखने की बजाय झाड़ू लगाना ज्यादा अच्छा लगता है


कोई रात बरसती है तो बस बरसती ही जाती है. न सुबह रुकने को राजी, न दोपहर. मैं दिन के पीछे भागती हूँ वो मेरे पीछे, हम सब एक-दुसरे के पीछे भागते जाते हैं. कभी रंग छूटते हैं इस भागाभागी में तो कभी राग. बस जिंदगी का कोई सिरा पकड़कर किसी लम्हे में रूककर सुस्ता लेने को जी चाहता है. अरसा हुआ जैसे खुद को छुआ नहीं, हालाँकि ऐसा भी नहीं कि जिया न हो. ये बिना खुद को छुए जीना भी कितना अजीब होता है. हम हँसते हैं, मुस्कुराते हैं, लोगों से मिलते हैं और अपनी खैरियत से होने की तस्दीक करते हैं. फिर क्या है जो भीतर रिसता रहता है.

पर्याप्त खुश होना क्या यही होता है. अगर ये है तो महसूस क्यों नहीं होता. जब जी चाहता है मौसमों की डाल झुकाकर खुद को पीले या सफ़ेद फूलों से ढँक लेती हूँ. जब जी चाहता है, आवारगी की पाजेब की छुन छुन से पूरी धरती को गुंजा देती हूँ. बरिशे जब चाहे उतार लाती हूँ, जब चाहे सूरज को हथेलियों से फिसल जाने देती हूँ. वादी में गिरता सूरज कितना मासूम लगता है न? इसके तेवर तो दोपहरों को देखने वाले होते हैं ठीक उसी वक़्त वो जिद्दी रात बरसनी शुरू हो जाती है. भरी दोपहर रात की बारिश....टप्प टप्प टप्प...

अरसा हुआ जी भर के रोये, बेखटक सोये, अरसा हुए किसी से झगडा किये, बेवजह रुठे या किसी को मनाये, कितनी मुद्दत से किसी मोड़ पे ठहर जाने को जी नहीं किया, किसी किताब का पन्ना मोडते हुए अपना सीला सा मन वहीँ रख देती हूँ. कानों में गूंजता है कोई अधूरापन कि और क्या होता है पर्याप्त खुश होना भला?

जाने क्या बात है कि अपनी पर्याप्त ख़ुशी के साथ जब भी कुछ लिखने बैठती हूँ एक हूक सी उठती है...और लिखने की बजाय झाड़ू लगाना ज्यादा अच्छा लगता है. घर बहुत साफ़ रहता है इन दिनों. जीवन पर्याप्त से ज्यादा व्यवस्थित....सब कुछ अच्छा है  बहुत फिर भी...

पर्याप्त जगह है जीवन में मेरी
पर्याप्त जीवन है मुझमे
मुक्कमल रातों की मुठ्ठियों में
दिलकश सवेरे का ठिकाना महफूज है
मुस्कुराहटें भी हैं,
बेसबब खिलखिलाहटें भी
आहिस्ता-आहिस्ता
करवट बदलती धरती सा मन
अपने पर्याप्त पूरेपन में
जाने किस अधूरेपन से जूझता है
घर में जाला कोई नहीं इन दिनों...

5 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-03-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2305 में दिया जाएगा
धन्यवाद

Dayanand Arya said...

खूबसूरत

Unknown said...

शानदार लेखन , कलम मे संभावनाएं

रश्मि शर्मा said...

अपने पर्याप्त पूरेपन में
जाने किस अधूरेपन से जूझता है
घर में जाला कोई नहीं इन दिनों...समझो जरा मन का ताना-बाना..रूत नहीं इतना भी सुहाना
बहुत अच्‍छा लि‍खा आपने। बधाई।

समय चक्र said...

बहुत सुन्दर.. नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ...