'वेरा उन सपनों की कथा कहो' का चौथा संस्करण पलटते हुए मैं सोच रही हूं कि कविता के सुधी पाठकों का संसार शायद इतना भी सीमित नहीं. मार्च 1996 में यह संग्रह पहली बार प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से कोई रोशनी सी फूटती नजर आ रही थी। इसकी कविताएं महज शब्द नहीं, एक पूरा संसार हैं स्त्री मन का संसार। इन कविताओं में प्रेम की ताकत भी है, पाकीज़गी भी और तमाम रूढियों व अहंकारों से मुक्ति भी। इसके जरिये वेरा तक पहुंचना हुआ, निकोलाई की वेरा तक। उसकी आंखों से देखना सपना शोषण मुक्त समाज का। इस किताब ने हिंदी प्रकाशन को नया संदेश भी दिया। वेरा की साज सज्जा, इसके कवर पर बनी दांते और बिएत्रिस की तस्वीर, ले-आउट, डिजाइन सबने ध्यान खींचा। आज आलोक श्रीवास्तव की वेरा 18 साल की हो गई। चौथा संस्करण को हाथ में लेते हुए मन बेहद खुश है। सजा-सज्जा में तनिक बदलाव कुछ नई कविताओं और भूमिकाओं के साथ एक बार फिर वेरा अपने ही सपनों को हमारी पलकों में सजाने को आतुर है...स्वागत है वेरा! शुक्रिया आलोक!
दुःख प्रेम और समय
बहुत से शब्द
बहुत बाद में खोलते हैं अपना अर्थ
दुःख प्रेम और समय
बहुत से शब्द
बहुत बाद में खोलते हैं अपना अर्थ
बहुत बाद में समझ में आते हैं
दुःख के रहस्य
खत्म हो जाने के बाद कोई संबंध
नए सिरे से बनने लगता है भीतर
.....और प्यार नष्ट हो चुकने
टूट चुकने के बाद
पुर्नरचित करता है खुद को...
खत्म हो जाने के बाद कोई संबंध
नए सिरे से बनने लगता है भीतर
.....और प्यार नष्ट हो चुकने
टूट चुकने के बाद
पुर्नरचित करता है खुद को...
4 comments:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार (12-04-2015) को "झिलमिल करतीं सूर्य रश्मियाँ.." {चर्चा - 1945} पर भी होगी!
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
खुद के मिटके जो सृजन करें, क्या अद्भुत प्रकृति है उसकी। प्रेम शायद इसलिये इतना महान है। सुंदर प्रस्तुति।
क्योंकि प्यार रहता है दिल में हमेशा .. लौट के आता है नए अर्थों में ...
Post a Comment