Wednesday, April 1, 2015

चैत चतुर नहीं...



बुद्ध और बुध्दू होने के बीच ही
रहते हैं हम सब ,
मौत की आखिरी हिचकी से अटके
सांसों के जंगल में भटके से

चैत चतुर नहीं,
बुध्धू भी नहीं
बस कि गिरते और उगते लम्हों
के फासलों का गवाह भर.…

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पेड़ों से उतरकर
कुछ परछाइयाँ
साँझ के इर्द-गिर्द जमा होती हैं,
कहती हैं 'बुध्धू,'
पास बैठे बुद्ध मुस्कुराते हैं.…

'बुध्धू होना आसान नहीं' वो कहते हैं.…
किसी सयाने ने नहीं सुनी
बुद्ध की ये बात.

3 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तति का लिंक 02-04-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1936 में दिया जाएगा
धन्यवाद

कविता रावत said...

'बुध्धू होना आसान नहीं' वो कहते हैं.…
किसी सयाने ने नहीं सुनी
बुद्ध की ये बात.
..बहुत सही कहा है ....
सुन्दर रचना

Onkar said...

सही कहा