कभी लगता है कि घर के आईने में जो रहता है वो कोई और ही है. देह में जो सांस है जाने किसकी है. गले में नाम की एक तख्ती लटकी थी जिससे कोई मुझे पुकारता था वो तख्ती खो दी मैंने। लापरवाह जो बहुत हूँ, सब खो देती हूँ, दिन भी रात भी, सुबह भी नदी भी, ओस भी सब खो देती हूँ मैं. अब कोई मानता नहीं है मेरे होने को. आइना भी नही.
मैं अपने चेहरे पर अपनी उँगलियाँ फिराती हूँ. मैं ही तो हूँ. फिर कोई मानता क्यों नही. मैं अदालतों के चक्कर काट रही हूँ बरसों से. दुनिया की अदालतों के, रिश्तों की अदालतों के.…थककर जीवन की देहरी पे लुढ़क जाने का जी चाहता है कि अब चला नहीं जाता।
हर बार अपने होने के सुबूत कहाँ से जुटाऊँ मैं, कहाँ से लाऊँ चेहरे को रंगने वाली रंग रोगन से दमकती मुस्कुराहटें। मैंने अपने होने के सारे प्रमाणपत्र खो दिए हैं. सिर्फ सांस नहीं खोयी। यूँ इसके इस तरह खोने से बचे रहना का श्रेय मुझे नहीं जाता। ये कमबख्त यूँ ही चिपकी हुई है.
बार बार अपना ही नंबर डायल करती हूँ जो एक्सिस्ट नहीं करता। क्या मैं एक्ससिस्ट करती हूँ. सचमुच।
नन्हे क़दम दूर जाते हुए लगातार बड़े होते जा रहे हैं.… लगातार। जो फूल लगाये थे वो खूब खिल रहे हैं बस मेरे हाथ नहीं पहुँच पाते उन फूलों तक.
न पहचाने मुझे आइना, नहीं देने मुझे दुनिया की किसी अदालत में अपने होने के सुबूत। उन फूलों की खुशबू में मेरी भी खुशबू है… ये बात वो भी जानते हैं मैं भी....
(खामखाँ)
नन्हे क़दम दूर जाते हुए लगातार बड़े होते जा रहे हैं.… लगातार। जो फूल लगाये थे वो खूब खिल रहे हैं बस मेरे हाथ नहीं पहुँच पाते उन फूलों तक.
न पहचाने मुझे आइना, नहीं देने मुझे दुनिया की किसी अदालत में अपने होने के सुबूत। उन फूलों की खुशबू में मेरी भी खुशबू है… ये बात वो भी जानते हैं मैं भी....
(खामखाँ)
1 comment:
सुन्दर रचना
Post a Comment