इतवार की शाख से अभी-अभी सुबह उतारी है. एकदम खिली-खिली सी सुबह है. बाद मुद्दत हथेलियों में फुर्सत के फूल रखे हैं. एक लम्बी व्यस्तता के बीच वायरल ने जब धप्पा दिया तो वायरल को शुक्रिया कहा कि यूँ ही दिन दिन भर सामने वाली दीवार को ताकते रहना और चाय पीने की इच्छा और बनाने के आलस से जूझते हुए घंटों बिता देना. इसका भी कोई सुख होता है. देह की हरारत की डोर में स्मृतियों की ख़ुशबू पिरोना.
माँ की चिंता कि 'अकेले कैसे करोगी सब?' को सहेज लेती हूँ और माँ को कहती हूँ 'माँ, अकेली कहाँ हूँ. अकेला होना घर में किसी के न होने से नहीं होता.' माँ कुछ समझती नहीं बस चिंता में घुली जाती हैं तो अब आवाज़ में ख़ुशी पिरोकर बात करना आदत बना ली है. हालांकि हूँ भी खुश लेकिन कभी खुश दिखना होने से ज्यादा जरूरी हो जाता है.
बहरहाल, इस सुबह में हरारत नहीं है. एक पूरा दिन है और मैं हूँ. मुस्कुराती हूँ. सोच रही हूँ क्या-क्या कर सकती हूँ. देर तक सो सकती हूँ, कहीं घूमने जा सकती हूँ, चुपचाप पड़े रह सकती हूँ.
कुछ पौधे हसरत से देखते हैं तो उनसे कहती हूँ, 'हाँ आज थोड़ा समय तुम्हारे लिए भी.' वो खुश हो जाते हैं. बालकनी में बैठे कबूतर गुटर गूं कर रहे हैं जैसे कह रहे हों, 'तुम दिन यूँ ही क्या करूँ सोचते हुए बिता दोगी देख लेना.' मैं हंसती हूँ. हाँ सच ऐसा ही तो होता है हमेशा.
इन दिनों चुप की ऐसी आदत हो चली है कि इसकी संगत में मन खिलता है. तो इतवार की इस सुबह में रेखा भारद्वाज गुनगुना रही हैं 'गिरता है गुलमोहर ख़्वाबों में रात भर....'
दोस्तोवस्की क़रीब रखे हैं और सिमोन की डायरी पढ़ने की इच्छा कुलबुला रही है. दिन के हाथों में तसल्ली का तोहफा है. सामने ढेर सारे सूरजमुखी खिले हैं.
हाँ, मैंने अरसा हुआ न्यूज़ नहीं देखी.
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सुन्दर रचना
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