वो संभावनाओं से, सपनों से और प्रेम से भरी एक लड़की थी। वो इस बड़ी सी दुनिया में अपने सपनों को बोना चाहती थी। वो इस धरती को प्रेम से भर देना चाहती थी। घर, शहर की दहलीज लांघकर उसने बड़े शहर के बड़े से आसमान पर अपना नाम लिखने का हौसला थामा हुआ था। कुछ डर, कुछ उपेक्षाएं, अपनों की कुछ नाराजगी साथ लेकर भी वो अपने सपनों के सफर पर निकल पड़ी थी। हाँ, वो घर से प्रेम करने नहीं करियर बनाने ही निकली थी कि उसके कंधे पर किसी ने हौसले से भरा हाथ रखा। जैसे कहा हो, ‘मैं हूँ तुम्हारे साथ’. थोड़ा सा ख्याल रखा जैसे कहा हो, ‘तुम बेफिक्र आगे बढ़ो मैं हूँ न’। लड़की उस सार-सहेज को प्रेम समझ बैठी और एक दिन उसी प्रेम के नाम पर छली गयी। क्रूरता की तमाम हदें पार करते हुए उसे मौत के घाट उतार दिया उसी ने जिसे वो प्रेमी समझ बैठी थी। उसकी नफरत की शिकार हुई जिसे वो प्रेम समझ बैठी थी। हाँ, यह कहानी मुम्बई की श्रृद्धा की है लेकिन क्या सच में यह कहानी सिर्फ मुम्बई की श्रृद्धा की ही है।
मुंबई की श्रद्धा के साथ दिल्ली में जो कुछ भी हुआ वह दिल दहला देने वाला है। लेकिन यह समय उन कारणों को जानने, समझने और महसूस करने का है कि आखिर कौन सी हैं वो वजहें जो लड़कियों को ऐसे मुश्किल रिश्तों में उलझा रही हैं। बात सिर्फ श्रृद्धा की ही नहीं उन तमाम लड़कियों की भी है जो प्रेम के नाम पर रिश्ते की ओर बढीं और एक अब्यूजिव रिलेशन में फंस गयीं, फंसी ही हुई हैं। क्यों वे परिवार की नसीहतों को पीछे छोड़ किसी अजनबी में ढूँढने लगती हैं प्रेम, सहारा, सुरक्षा। कैसे कोई अजनबी उनके मन के उन कोनों को रोशन करने लगता है जिन कोनों की अब तक किसी ने सुध ही नहीं ली। ये रिश्ते उनका दैहिक, आर्थिक और भावनात्मक दोहन करते हैं और वो उसमें से निकल नहीं पातीं। क्या श्रृद्धा ने अपनी उलझनों के बीच कोई आवाज न दी होगी किसी को, या फिर हम एक समाज के, व्यक्ति के और परिवार के तौर पर उस आवाज को सुन पाने में असमर्थ रहे।
केयर करना प्रेम नहीं होता -कोई अजनबी उम्र के नाजुक दौर में क़रीब आता है, थोड़ा प्रेम देता है, थोड़ा सहारा देता है, थोड़ी केयर करता है तो उन्हें महसूस होता है कि ऐसा तो उन्हें किसी ने कभी एहसास ही नहीं कराया। वो उस सार सहेज को प्रेम समझ उसकी ओर बढ़ने लगती हैं। और अक्सर ऐसे रिश्तों में उलझ जाती हैं जिनका अंजाम आगे चलकर अच्छा नहीं होता। असल में परिवार को वो जगह होना था जहाँ लड़कियां सिर्फ पलती और बढती नहीं बल्कि प्रेम, सुरक्षा, अपनेपन और आत्मविश्वास से लबरेज होकर बाहर निकलतीं। भावनात्मक रूप से मजबूत होकर बाहर निकलतीं। लकिन अफ़सोस कि अभी परिवार संस्था ने परवरिश के असल मर्म को समझना शुरू ही नहीं किया है।
परिवार, परवरिश और हम -बच्चे कोई भी गलती करें एक उंगली परिवार की ओर भी उठती है। सवाल उठते हैं। कई बार वाजिब और कई बार गैर वाज़िब भी। लेकिन परवरिश सिर्फ परिवार में नहीं होती बच्चे की परवरिश इस समाज में होती है जिसमें माता पिता भाई बहन के अलावा दोस्तों, रिश्तेदारो और पड़ोसियों तक की भूमिका होती है। बच्चे की उपलब्धि को सब लपक लेना चाहते हैं और उनकी मुश्किल को या तो बच्चों के मत्थे उनकी गलती कहकर मढ़ देना चाहते हैं या परिवार की ओर ऊँगली उठाते हैं। मौजूं सवाल यह है कि परिवार और समाज की तैयारी नहीं है परवरिश की। अच्छे स्कूल, ज्यादा नम्बर, बढ़िया पैकेज की नौकरी के सपने देखने वाले परिवार बच्चों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने को ही परवरिश मान बैठते हैं। बच्चों के सपने, उनकी भावनात्मक जरूरतों को समझने की तो जैसे कोई तैयारी है ही नहीं। पैरेंट्स समझ ही नहीं पाता कि इतने लाड प्यार के बावजूद कैसे बच्चा इतना इग्नोर्ड फील करता रहा। अगर किसी बच्चे ने इस बाबत बात की तो उसे डपट दिया गया, ‘इतना कुछ कर रहे हैं तुम्हारे लिए’ के जुमले बच्चे लिए घूमते हैं। इसी के साथ जब बच्चे खासकर लड़कियां जब बाहर निकलती है तो उलझे हुए रिश्तों के मकडजाल में फंस जाती हैं। बात-बात पर अपने निर्णय थोपने वाले, गुस्सा करने वाले परिवार से वे दूरी बना लेना चाहती हैं।
भावनात्मक सपोर्ट जरूरी है -जब बच्चियां बड़ी होती हैं तो पढ़ाई के लिए बाहर जाती हैं। पैरेंट्स उनकी पढ़ाई की एकेडमिक और फाइनेंशियल तैयारी तो करते हैं लेकिन उन्हें भावनात्मक रूप से तैयार नहीं करते हैं क्योंकि पैरेंट्स को ही तरीका नहीं पता है। पहले पैरेंट्स इसके लिए तैयार हों और बच्चियों को समझाएं कि बाहर निकलने पर दोस्त और रिलेशन बनेंगे लेकिन कब स्वीकार करना या कब तक सहन करना आदि भी बच्चियों को आना चाहिए। उनमें भी यह समझ विकसित करने की जरूरत है।
पैरेंटस सुनना स्वीकारें- अक्सर देखा जाता है कि परिवार में बच्चों की बातों को ज्यादा तवज्जों नहीं दी जाती है। यह समझना जरूरी है कि क्या परिवार, रिश्ते वो जगह है जहाँ बच्चियां अपनी ज़िंदगी के सारे सुख, दुःख यहाँ तक कि लिए गए गलत निर्णय भी सहज ढंग से बिना किसी डर के साझा कर सकें। परिवारों को बच्चों के मन का डस्टबिन होना चाहिए जहाँ बच्चे सब कुछ उड़ेल सकें और खाली हो सकें। लेकिन बतौर समाज हम विवाह संस्था हो या परिवार संस्था इनके ग्लोरिफिकेशन का काम तो खूब करते हैं लेकिन इनके भीतर की दिक्कतों पर बात नहीं करते। इन संस्थाओं की पुनर्निर्मिति का समय है, इनके ढाँचे को री-डिज़ाइन करने का समय है।
जजमेंटल न हो-जब बच्चा कुछ कहता है तो पैरेंट्स तुरंत जजमेंटल हो जाते हैं कि लडक़ा या लडक़ी गलत बोल रही है। वह गलत कर रही है। ऐसे में बच्चे अपनी बातों को छिपाने लगते हैं। एक समय के बाद बच्चे आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, उन्हें होना भी चाहिए। इसके लिए लोगों की पहचान करना, किससे रिश्ता रखें या नहीं वे अपनी पसंद के हिसाब से तय करना चाहते हैं। ऐसे में पैरेंट्स उनकी मदद करें।
कुछ सवाल खुद से भी-देखने में आता है कि कोई बच्चा या कोई दोस्त आपकी पसंद का काम नहीं कर रहा है तो पैरेंट्स-दोस्त उसको अकेला छोड़ देते हैं। यह वही समय है जब उन्हें आपकी ज्यादा जरूरत होती है। रिलेशनशिप में श्रृद्धा के साथ मारपीट होती थी, लेकिन वह उससे अलग नहीं हो पाती थी। इसकी क्या यह वजह है कहीं वह स्टॉकहोम सिंड्रोम का शिकार तो नहीं थी, या ऐसा तो नहीं वो अब भी उस टॉक्सिक रिलेशनशिप को बचाने की कोशिश कर रही थी, उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, पता नहीं। वो किस दौर से गुजर रही थी क्या उसके पास सब कुछ बता सके ऐसी कोई जगह थी? कहीं इसमें बचपन से जवाब न देना, सहना, कुछ बुरा हो तो उसे इग्नोर करना, रिश्तों को किसी भी हाल में बचाकर रखने जैसी नसीहतें और आसपास देखे अनुभवों की भूमिका तो नहीं थी। यह वो असुरक्षा कि इस रिश्ते से बाहर जायेगी तो लोग क्या कहेंगे? न जाने कितने डर होंगे न जाने कितनी उलझनें और न जाने कितनी कोशिशें हम नहीं जानते। क्या सचमुच बच्चों की गलतियों को अपनाने को, उन्हें जज न करने को तैयार परिवार और समाज हैं हम? अगर होते तो सवाल उस बच्ची पर नही होता, उसकी गलतियाँ नहीं ढूंढ रहे होते हम।
समय की नब्ज़ को समझना होगा- अब समय बदल रहा है। लेकिन समय की इस बदली हुई नब्ज़ को हम समझ नहीं पा रहे। मॉर्डन होने का ढोंग कर रहे हैं बाहरी आवरण में लेकिन भीतर से पुराने ही किसी खोल में दुबके हुए हैं। ये घटनाएँ बच्चियों को डराने के उदाहरण न बनें बल्कि उन्हें सतर्क, साहसी और आत्मविश्वास से भरने की ओर प्रेरित करें। उन्हें सहानुभूति, केयर और प्रेम के अंतर को समझने में मदद करें और समाज के तौर पर हम सबको अपने बच्चों पर भरोसा करना, उनके साथ हमेशा हम हैं वो अकेले नहीं है यह भरोसा भरना सिखाये ताकि हमारी बच्चियों के मन में डर नहीं साहस भरे ताकि ऐसे रिश्तों में उलझने की बजाय उनका ध्यान हो उस ऊंचे आसमान पर जिसे उनकी उड़ान का इंतज़ार है।
(हेमंत पांडे द्वारा की गयी बातचीत पर आधारित)राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित- https://epaper.patrika.com/Home/ArticleView?eid=147&edate=23/11/2022&pgid=603198